वास्तव में एक न्यूज चैनल किस प्वांइट पर अजीब जानवर जैसा दिखता है- रियलिटी टीवी और मनोरंजन कुश्ती? हम अब भारत में पत्रकारिता के निम्न स्तर पर आ गए हैं, लेकिन हमें ये पूछने की हिम्मत करनी चाहिए कि ये तेज आवाजों में सुनाई देने वाली न्यूज क्यों लोकप्रिय है? इस मामले में हमें वो सवाल पूछने चाहिए जो असल में पत्रकारों को पूछना चाहिए था-क्या, कहां, कब, कैसे और क्यों?
न्यूज चैनल अब गरमागरम न्यूज बन गए हैं.
टेलीविजन की रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी में रिपब्लिक टीवी अंग्रेजी के सभी न्यूज चैनल से ऊपर है. लेकिन अब उस पर घूस देकर रेटिंग में हेराफेरी करने का आरोप लगा है, हालांकि चैनल ने आरोपों से इनकार किया है.
इसमें दोनों तरह की राजनीति की बू आती है. आक्रामक एडिटर-इन-चीफ अर्नब गोस्वामी के नेतृत्व वाले न्यूज चैनल का महाराष्ट्र में शिवसेना की सरकार को आड़े हाथों लेने का एक लंबा ट्रैक रिकॉर्ड है. बीजेपी के साथ गठबंधन टूटने के बाद चैनल के न्यूज एंकर ने शिवसेना को असामान्य रूप से लगातार निशाने पर लिया. दूसरी तरफ, यह भी अजीब बात है कि देश की वित्तीय राजधानी मुंबई के पुलिस कमिश्नर टीआरपी घोटाले को लेकर खुद ही प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करते हैं.
अर्नब गोस्वामी: लोकप्रियता मिली, लेकिन विश्वसनीयता नहीं
हम जानते हैं कि न्यूज चैनलों ने एक लंबा सफर तय किया है, लेकिन गलत दिशा में. अर्नब गोस्वामी अपने फालोअर्स के लिए एक बार के लिए 'एंटी हीरो और आइकन' हो सकते हैं, लेकिन वह प्रभावी रूप से पत्रकारिता के सभी नियमों को भी तोड़ते हैं, और वह इससे लोकप्रियता को कायम रखने में सफल तो रहे, लेकिन विश्वसनीय नहीं बन पाए.
टीआरपी अपनी कहानी खुद बयान करती है. रिपब्लिक टीवी के प्रतिद्वंद्वियों में टाइम्स नाउ भी शामिल है, जिसकी उन्होंने शुरुआत करने में मदद की और हिंदी चैनल शोर मचाकर दर्शकों के एक हिस्से को स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से अपनी ओर खींचते हैं. अधपके तथ्यों पर पैनल डिस्कशन होता है, दर्जनों चेहरे या एंकर चीखते-चिल्लाते हैं. जब हमने सोचा कि वे ये नहीं कर सकते, लेकिन चीजें उससे भी ज्यादा बदतर हो गई हैं.
इस न्यूज ऑपेरा के नए एपिसोड में, रिपब्लिक टीवी शेयर बाजारों में इनसाइडर ट्रेडिंग जैसी दिखने वाली फेक न्यूज का एक सक्रिय एजेंट है. संदिग्ध सोशल मीडिया, एजेंट और चैनल के बीच अपमानजनक टिप्पणी, असंवेदनशीला और भड़काऊ चीजों को बढ़ावा मिलता है. न कोई फिल्टर है और न चेक.
इसे विडंबना की कहेंगे कि झूठ और मनगढ़ंत बातें अब न्यूज के रूप में सुनाई जाने लगी हैं- एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की दुखद मौत के बाद कोई सबूत और विश्वसनीय स्रोत नहीं मिला, जैसा कि हमने न्यूज में देखा. रिपब्लिक टीवी उन स्रोतों को वैध बताता रहा, जो पारंपरिक पत्रकारिता में नजरअंदाज किए गए थे.
हमें ये पूछने की जरूरत है कि हम यहां तक कैसे पहुंचे.
हम यहां कैसे पहुंचे?
1990 की शुरुआत में, जब आर्थिक सुधारों के बाद भारत में न्यूज चैनलों की शुरुआत हुई तो सैटेलाइट ब्रॉडकास्टर के लिए चीजें आसान हो गईं. इसमें सीएनएन के मॉडल का अनुसरण किया गया, जिसने 1990 में इराक के कुवैत पर हमला करने का लाइव प्रसारण कर न्यूज को तमाशे की तरह दिखाया.
अर्नब को एक हल्के-फुल्के, मिलनसार सज्जन के रूप में जाना जाता है, मेरे पास यह मानने के कारण हैं कि मुझे पता है कि अब वह कहां है. असम के एक आर्मी ऑफिसर के बेटे के रूप में, एनडीटीवी न्यूजरूम में उदारवादियों की भीड़ के बीच उन्होंने एक रिपोर्टर के तौर पर खोया हुआ महसूस किया होगा.
वहीं, दूसरी ओर से मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने अक्टूबर 1996 में फॉक्स न्यूज लॉन्च किया. वह टीवी न्यूज के लिए नए नियम गढ़ रहे थे, ठीक ऐसा ही वह दो दशक पहले अखबारों के लिए भी कर चुके थे. उन्होंने समाचारों पर भरोसा करने वाले स्वतंत्र संपादकों की जगह न्यूज एग्जिक्यूटिव को रखा, जो बाजार की नब्ज जानते थे.
पाठक अब उपभोक्ता बन गया था और चैनल उनके लिए पुराने समय के टैबलॉयड हो चुके थे, इसमें वही न्यूज दिखाई जाती जो दर्शक को पसंद आए ना कि जो संपादक की पसंद हो.
ठीक इसी तरह की जमीन भारत में भी तैयार हो चुकी थी, लेकिन कारगिल जंग और टीवी की ताजगीपन ने एक न्यूज माध्यम के रूप को भारत की पत्रकारिता को दक्षिणपंथी नजरिये से सुरक्षित रखा.
अच्छा समय ज्यादा देर नहीं ठहरता, ऐसा लगता है.
अर्नब गोस्वामी ने अपनी जमीन कैसे तलाशी?
अब विचार करते हैं कि भारत अब नए पढ़े-लिखे, नए उपभोक्तावादी मिडिल क्लास के साथ सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन रहा था, जिसका अपना विचार था कि क्या खबर होनी चाहिए. मैरीलैंड यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च पेपर में तर्क दिया कि 2002 के गुजरात दंगों के कारण न्यूज कवरेज में दक्षिणपंथी धारणाओं और उदारवादी पक्षपात को जन्म दिया.
इस प्रतिक्रिया को साबित करने के लिए इसे नए-नए आए सोशल मीडिया द्वारा हवा दी गई थी, इससे यह फ्रैंकस्टाइन राक्षस की तरह और भी बड़ा हो गया.
2006 में जब टाइम्स नाउ लॉन्च हुआ तो गोस्वामी उसके फाउंडिंग एडिटर और एंकर थे. यही वो साल था, जब स्टीव जॉब्स आइफोन लॉन्च कर चुके थे और मार्क जकरबर्ग 2004 में फेसबुक ला चुके थे. सामाजिक रूप से सशक्त बनाने वाली तकनीक की वजह से न्यूज चैनल के लिए यह सबसे अच्छा दौर था. एक नए फैशन वाला बाजार पैदा हो गया, मुद्रास्फीति, जाति से लेकर भ्रष्टाचार तक पर शोर शराबे वाली बहसें होने लगीं.
कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 में गोस्वामी ने अपनी जमीन तलाश ली थी, जिसमें दिए गए ठेकें के खिलाफ ने टाइम्स नाउ ने घोड़े दौड़ाए.
इसके एक बाद साल, अन्ना हजारे ने अनशन शुरू किया था, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक रैली स्थल बन गया. या तो ये वक्त की मांग थी या इसे संयोग कहे कि हमारे पास एक स्टार एंकर की परिभाषा थी, जो स्टाइलिश और विश्वसनीय प्रस्तुतकर्ता से पब्लिक प्रॉसीक्यूटर में बदल गया था, जो कागजों को लहराते हुए कठिन सवाल पूछने लगा.
‘नेशन वॉन्ट्स टू नो’ एक तरह से सूचना का युद्ध घोष बन गया था. यह मन की स्थिति, एटीट्यूड और मीम जनरेटर सब कुछ बन गया था.
और आखिर में यह बीजेपी के लिए एक प्रोपेगैंडा गाड़ी भी बन गई थी, जिसकी मदद से आज वह सत्ता में है. जी न्यूज, टाइम्स नाउ और दूसरे अन्य चैनलों के एंकर्स के लिए गोस्वामी अब झूठी मिसाल या प्रेरणा हैं.
अर्नब गोस्वामी न्यूज के 'शाहरुख खान' कैसे बने?
गोस्वामी अब न्यूज के शाहरुख खान बन गए हैं. बॉलीवुड स्टार ने एक बार कहा था कि उनके आइकॉनिक मिथक ने उनकी स्क्रीन के व्यक्तित्व को घेर लिया है और अब वह शाहरुख खान की इमेज के लिए काम करते हैं. शाहरुख ने कहा था “इसलिए मैं मिथक के लिए काम करता हूं”. अगर रोमांटिक, कभी-कभार हास्य और ऊर्जावान मिथक ने शाहरुख को गढ़ा है तो ठीक इसी तरह का मिथक टाइम्स नाउ के न्यूज रूम में बनाया जा रहा था, जहां सीधी बात कहने वाला, देशभक्त और भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वाला एंकर तैयार हुआ.
कभी मिलनसार रहा असम का ये लड़का अब काम करता है और जीवन के उस बड़े मिथक के लिए लगातार काम कर रहा है. तो बात यह है कि यह एंटी-हीरो निश्चित रूप से एजेंडा चलाने वाली गाड़ी जैसा है.
प्रशंसक उन्हें पसंद करते हैं. वे अपने पौराणिक मानस से उनकी पहचान करते हैं. जो सिस्टम से हताश हैं और उसे सही करने बाहर निकला है. यहां कहानी को संतुलित करने की कोई जटिलता नहीं है, 'नो कमेंट्स' की औपचारिकता के लिए समय नहीं है.
ये ऐसा जैसे पहले दर्शक मेहनत करके शरलॉक होम्स की तरह तफ्तीश करते किरदार को पसंद करता था, फिर वो बदमाशों पर अचानक कूद पड़ने वाले स्पाइडर मैन को चाहने लगा.
हालांकि, स्पाइडरमैन के पास झिल्लीदार पैर हैं, जो सामान्य खबर पसंद करने वालों के लिए लिविंग रूम में कीचड़ लाता है. वह बिना बताए कीचड़ फेंकता है और लगातार फेंक रहा है.
जासूस बाहर हो जाता है और सुपरकॉप अंदर आ जाता है.
अर्नब गोस्वामी अब तक बिना कैप के सुपरमैन थे, जो उड़ सकते हैं- मिलनसार क्लार्क केंट से भी ऊंचा. और उड़ भी गए
2017 में उन्होंने रिपब्लिक टीवी शुरू किया, तब मोदी नई दिल्ली में मजबूती से जम चुके थे. रिपब्लिक का मीटर मोदी की तरह तेजी से ऊपर जा रहा था.
अर्नब गोस्वामी ने 9 बजे कैसे आग लगाई?
टीआरपी वो चीज है, जिसे विज्ञापनदाता नजरअंदाज नहीं कर सकते.
ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बीएआरसी) के डेटा के अनुसार, 2 अक्टूबर को सप्ताह के आखिर में रिपब्लिक टीवी के 5.05 मिलियन इम्प्रेशन थे. इसी तरह टाइम्स नाउ के 1.87 मिलियन, इंडिया टुडे टीवी के 1.81 मिलियन इम्प्रेशन थे. पहले दो साफतौर पर शोर करने वाले न्यूज चैनल हैं. वहीं, तीसरा पुराने और नए दोनों का मिश्रण है.
एक अर्थ में देखें तो 9 बजे का शोर भारत के अति-लोकतंत्रीकरण को दर्शाता है, जिसमें लोअर मिडिल क्लास काफी सशक्त हुआ है. सोशल मीडिया के उदय और सत्ताधारियों से सामान्य असहमति ने अपरंपरागत नायकों के लिए मंच तैयार किया.
अर्नब गोस्वामी ने इस आग में घी डाला है, जबकि पुरानी दुनिया के पत्रकार अपनी समझदारी से इस आग को बुझा देंगे. मुख्यधारा का मीडिया भूसे से गेंहू को अलग करने के बजाय सिर्फ नथूनों में धूल भरता है.
लेकिन यह खबर से ज्यादा एक भाषण की तरह है. अगर कॉमनवेल्थ गेम्स पर सरकार से सवाल किए जाते हैं तो सुशांत सिंह राजपूत की मौत ने न्यूज बिजनेस को अफवाहों की मनगढ़ंत कहानी, अटकलबाजी और अपमानजनक आरोपों में बदल दिया. मीडिया रिसर्च अब सुशांत की कहानी में आत्महत्या से लेकर हत्या तक की साजिश की पुष्टि करता है और इसमें बीजेपी की सोशल मीडिया मशीनरी भी मदद कर रही है.
वॉल्टर लिपमैन का मशहूर कथन है ‘सहमति का निर्माण’ अपने आप में ‘समाचार के निर्माण’ से विकसित हुआ लगता है’ सोशल मीडिया की संस्कृति का शुक्रिया जिसमें यूट्यूब, फेसबुक, टि्वटर, वॉट्सऐप, और टिकटॉक भीड़ का ध्यान भटकाने वाले हथियार हैं.
दर्शकों को शोर पसंद है, और एंकर शोर मचाते हैं
जर्नलिज्म थिंक-टैंक नीमनलैब के शोध से पता चलता है कि 'भीड़ सेंसरशिप' के युग में अपने पेशे को आगे बढ़ाने के लिए पत्रकारों को अपने आप को अलग करना होता है. जिसमें सोशल मीडिया पर पुराने जमाने के पेशेवर पत्रकारों का उत्पीड़न काफी आम है.
इसका मतलब कि शोर शराबा, असंवेदनशीलता से भरी हुई खबरें अब दुनिया के लिए आम बात हो गई हैं. जिसमें नागरिकों के दिमाग की हार्ड वायरिंग समस्या का हिस्सा है.
नागरिकों में न्याय के लिए आक्रोश की भावना दिखती है. लेकिन न्यूज एंकर इसे ठीक करने के बजाय इस लत को और बढ़ाते हैं, जैसे कोई डॉक्टर ड्रग पैडलर बन गया हो.
कॉमेडियन कुनाल कामरा भी अपने अजीब खेल से गोस्वामी पर निशाना साधते रहते हैं. यहां तक कि एंकर के प्रशंसक भी सोशल मीडिया पर उनकी शैली की तारीफ करते हैं.
वॉशिंगटन पोस्ट के दो पत्रकार कार्ल बर्नस्टाइंन और बॉब बुडवर्ड ने 1970 में अपनी खोजी रिपोर्टिंग से अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन का पर्दाफाश किया था. दोनों पत्रकार स्कैंडल को सामने लाने के लिए चुपचाप अपना काम कर रहे थे. जबकि आज के पैपराजी रिपोर्टर आरोप लगाते हैं और किसी के जवाब न देने को भी ब्रेकिंग न्यूज की तरह परोसते हैं.
समय ऐसा होता है कि दर्शक जवाबदेही को एक पात्रता के रूप में देखते हैं और शोर मचाने वाले एंकर एक गैलरी के निर्माण द्वारा ऐसा करते हैं और फिर उससे खेलते हैं.
(लेखक वरिष्ठ जर्नलिस्ट हैं, रॉयटर्स, द इकनॉमिक्स टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए इकनॉमिक्स और पॉलिटिक्स को कवर कर चुके हैं. उनका टि्वटर हैंडल @madversity है. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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