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कश्मीर:क्या फारूक और उमर अब्दुल्ला आर्टिकल 370 पर नरम पड़े?

करीब एक साल पहले केंद्र सरकार ने जम्मू और कश्मीर के संवैधानिक दर्जे को बदलने का विवादास्पद काम किया था

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करीब एक साल पहले केंद्र सरकार ने जम्मू और कश्मीर के संवैधानिक दर्जे को बदलने का विवादास्पद काम किया था और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा था. इस मुद्दे पर जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला ने रविवार 26 जुलाई, 2020 को अपनी लंबी चुप्पी तोड़ी है.

रविवार को ऑल इंडिया रेडियो के श्रीनगर स्टेशन के करंट अफेयर्स प्रोग्राम शहरबीन को फारूक ने एक इंटरव्यू दिया और कहा कि वह और उनकी पार्टी गुपकर घोषणा के लिए प्रतिबद्ध है. पिछले साल 5 अगस्त को नजरबंद होने के बाद यह उनका पहला इंटरव्यू है.

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गुपकर घोषणा में बीजेपी को छोड़कर मुख्यधारा की सभी पार्टियां ने आम सहमति से इस प्रस्ताव पर मंजूरी जताई थी कि जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने और उसे संरक्षित करने वाले अनुच्छेद 370 और 35-ए की समाप्ति को स्वीकार नहीं किया जाएगा. इसके अलावा उमर ने द इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक आर्टिकल में यह वादा किया था कि जब तक जम्मू और कश्मीर यूटी रहता है तब तक वह चुनाव नहीं लड़ेंगे.

एलजी के बयान के बाद नेशनल कांफ्रेंस का रुख

नेशनल कांफ्रेंस के दो बड़े नेताओं ने यह बयान तब दिया, जब लेफ्टिनेंट गवर्नर गिरीश चंद्र मुर्मू ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए इंटरव्यू में संकेत दिया कि भारत का चुनाव आयोग डिलिमिटेशन का काम पूरा करने से पहले ही जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव करा सकता है.

“... डिलिमिटेशन कमिटी बना दी गई है, अब डिलिमिटेशन शुरू होगा. विधानसभा चुनाव इसके साथ हो सकते हैं, या इसके बाद. तो, यह काम साथ-साथ हो रहा है. मुझे लगता है कि यह वैक्यूम जल्द खत्म होगा.” मुर्मू ने ऐसा तब कहा था, जब उनसे पूछा गया था कि जम्मू और कश्मीर में राजनैतिक प्रक्रिया और नई विधानसभा का काम कब शुरू होगा.

“चुनाव आयोग को फैसला करना होगा कि क्या वह पहले के डिलिमिटेशन के हिसाब से काम करेगा या नए डिलिमिटेशन के मुताबिक. मुझे लगता है कि इस साल के आखिर तक कोई न कोई प्रक्रिया शुरू हो जाएगी.”
गिरीश चंद्र मुर्मू, लेफ्टिनेंट गवर्नर, जम्मू और कश्मीर

जून 2018 में महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और भाजपा गठबपंधन के टूटने के बाद से जम्मू और कश्मीर में गवर्नर और राष्ट्रपति शासन लागू है.

श्रीनगर के स्थानीय चुनावों से राजनैतिक प्रक्रिया का रास्ता साफ

एलजी के इंटरव्यू से पहले ज्यादातर राजनीतिज्ञों और पत्रकारों का मानना था कि जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव डीलिमिटेशन की प्रक्रिया पूरा होने के बाद होंगे- 2021 या शायद 2022 में. लेकिन अब यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि केंद्र कुछ शहरी स्थानीय निकायों को भंग करके इस अड़चन को दूर करेगा और श्रीनगर म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (एसएमसी) के चुनाव भी कराएगा.

एसएमसी पर भाजपा का नियंत्रण है. इसके काउंसिलर्स पर भ्रष्टाचार, खरीद फरोख्त, अपहरण, सोशल मीडिया पर गाली गलौच करने, गलत तरीके से बंधक बनाने, एक दूसरे के खिलाफ नो ट्रस्ट मोशन रखने जैसे गंभीर आरोप हैं, खास तौर से पिछले एक साल में.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जब तक सभी राजनीतिक दलों की भागीदारी से साफ-सुथरे, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं कराए जाते, तब तक कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की विश्वसनीयता बहाल नहीं की जा सकती. श्रीनगर से नई दिल्ली तक सरकारी अधिकारियों का यह मानना है कि 2018 की तरह, जब मुख्यधारा की पार्टियों, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस ने चुनावों का बहिष्कार किया था, 2020 में भी स्थानीय निकायों के चुनाव बड़े पैमाने पर मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं और इससे विधानसभा चुनावों का रास्ता आसान होगा.

अनुच्छेद 370 और 35ए पर गुपकर घोषणा

4 अगस्त 2019 को सभी राजनैतिक पार्टियों के वरिष्ठ नेता फारूक अब्दुल्ला के बंगले पर मिले. उनका बंगला श्रीनगर के गुपकर रोड पर स्थित है. उन्हें इस बात का अंदाजा था कि अनुच्छेद 370 और 35-ए को हटाया जा सकता है. इस बैठक में यह प्रस्ताव रखा गया कि ‘सभी पार्टियों को एकजुट होना चाहिए... और जो कुछ भी हो, जम्मू कश्मीर की पहचान, स्वायत्तता और विशेष दर्जे पर होने वाले हमलों को रोकना चाहिए’. यह भी कहा गया कि ‘संशोधन, अनुच्छेद 35-ए, 370 को हटाना, राज्य का असंवैधानिक तरीके से डिलिमिटेशन या उसे तीन टुकड़ों में बांटना, जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोगों पर आघात करने जैसा होगा.’

इस साल 19 जून को फारूक अब्दुल्ला सहित नेशनल कांप्रेंस के नेताओं ने संयुक्त बयान जारी करके कहा कि उनकी पार्टी स्टेटहुड को बहाल करने और बिना समझौता किए उसके विशेष दर्जे के लिए संघर्ष करती रहेगी.

हालांकि फारूक और उमर, किसी ने भी इस बारे में कोई इंटरव्यू या बयान नहीं दिया कि इस संबंध में पार्टी की भावी रणनीति क्या होगी. उन्होंने लगातार यह कहा कि वे इस बारे में तब बात करेंगे, जब अगस्त 2019 में और उसके बाद नजरबंद किए गए बाकी नेता, और पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को रिहा कर दिया जाएगा. वैसे रिहा होने के बाद उन्होंने यह कहा था कि कोरोना वायरस के कारण इस मुद्दे पर फिलहाल कुछ कहने का समय नहीं है.
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क्या नेशनल कांफ्रेंस लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का हिस्सा बनेगी

एआईआर के इंटरव्यू में फारूक ने यह दोहराया था कि कश्मीरी नेतृत्व पर क्या कार्य योजना बनाई जाएगी, यह तब तय होगा, जब ‘बाकी लोग’ भी रिहा हो जाएंगे, पर उन्होंने यह जरूर कहा था कि गुपकर योजना पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा. “(गुपकर योजना) पर हमारा रुख नहीं बदलेगा. 370, 35-ए, हमसे जो भी छीना जाएगा, हम उसे वापस लेंगे.” हालांकि उन्होंने डिलिमिटेशन प्रक्रिया को ‘गलत’ कहते हुए रद्द किया था. नेशनल कांफ्रेंस पहले ही यह साफ कर चुकी है कि जब तक उसकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला नहीं सुनाता, तब तक वह चुनाव आयोग की डिलिमिटेशन कमिटी से खुद को अलग रखेगी.

फारूक ने कहा था कि उनकी पार्टी ‘संवैधानिक तरीके से’ 4 अगस्त 2019 की स्थिति की बहाली के लिए संघर्ष करेगी. पर उन्होंने यह नहीं बताया था कि अगर कानूनी लड़ाई लंबी चली या सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के पक्ष में फैसला सुनाया तो क्या नेशनल कांफ्रेंस चुनावों में हिस्सा लेगी.

इसी से इस बात के शुरुआती संकेत मिले थे कि नेशनल कांफ्रेंस अनुच्छेद 370 और 35-ए की बहाली की अपनी लड़ाई को कुछ समय के लिए रोक सकती है, और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में भाग ले सकती है. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि कश्मीर से नेशनल कांफ्रेंस के तीनों लोकसभा सदस्यों, फारूक अब्दुल्ला, मोहम्मद अकबर लोन और हसनैन मसूदी ने संसद से इस्तीफा नहीं दिया है.

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केंद्र को दिए ‘5 प्वाइंट्स’

फारूक की तरह उमर भी नरेंद्र मोदी सरकार की अगस्त 2019 की कार्रवाई के सख्त खिलाफ हैं. पर यह बात मायने रखती है कि अपने आर्टिकल में उन्होंने यह कहीं नहीं कहा कि अगर अनुच्छेद 370 और 35-ए बहाल नहीं किए जाते तो वह चुनाव नहीं लड़ेंगे. उन्होंने कहा था, “जहां तक मेरी बात है, मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अगर जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश रहते हैं तो मैं विधानसभा चुनाव नहीं लडूंगा. मैं सबसे मजबूत विधानसभा का सदस्य रहा हूं- यहां तक कि छह साल तक उस विधानसभा का नेता भी रहा हूं, अब मैं ऐसे सदन का सदस्य नहीं रह सकता, जिसे इस तरह कमजोर किया गया है.”

फारूक और उमर के बयान से पहले गुलाम नबी आजाद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी. उस मुलाकात में आजाद ने भी इस बात पर जोर दिया था कि ‘स्टेटहुड’ को बहाल किया जाए और विधानसभा चुनाव जल्द कराए जाएं. इस बातचीत में आजाद ने अनुच्छेद 370 और 35-ए की बहाली की कोई शर्त नहीं रखी थी. एआईआर के इंटरव्यू में फारूक ने खुलासा किया था कि प्रधानमंत्री से मिलने के बाद आजाद और उनकी फोन पर बातचीत हुई और आजाद ने उन्हें बताया था कि उन्होंने केंद्र के सामने 5 प्वाइंट्स रखे हैं.
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स्टेटहुड की बहाली- जम्मू की मांग, भाजपा का वादा

दरअसल ‘स्टेटहुड की बहाली’ भाजपा की खुद की मांग है और प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की तरफ से अस्पष्ट प्रतिबद्धता भी. इसे जम्मू में भाजपा नेताओं की अभिलाषा कहा जाता है जोकि इस बात से थोड़ा परेशान हैं कि लद्दाख को तो यूटी का दर्जा मिल गया, पर जम्मू को जम्मू-कश्मीर का एक छोटा सा

हिस्सा बना दिया गया. जब अमित शाह ने जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक को पेश किया था, तब उन्होंने संसद में यह कहा था कि जम्मू कश्मीर के स्टेटहुड पर विचार किया जा सकता है. पर इसकी शर्त सिर्फ यह है कि ‘शांति बहाल हो जाए’.

जम्मू और कश्मीर में एक साल से राजनैतिक शून्य कायम है. अगर केंद्र ‘आतंकवाद की समाप्ति’ की घोषणा कर दे और लद्दाख को छुए बिना स्टेटहुड को बहाल करने के अपने वादे को पूरा कर दे तो हैरानी नहीं होगी कि नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, कांग्रेस और दूसरी पार्टियां चुनावों में उतर जाएं. इसी तरह जम्मू और कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने का भाजपा का सपना पूरा हो जाएगा.

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लेखक श्रीनगर स्थिति वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह @ahmedalifayyaz पर ट्विट करते हैं)

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