बीजेपी के पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने हाल ही में भारतीय मीडिया और तानाशाह उत्तर कोरिया के बीच एक विवादास्पद तुलना की. सवाल उठता है कि शौरी ने भारतीय मीडिया को उत्तर कोरियाई मीडिया जैसा क्यों बताया?
शौरी ने एनडीटीवी के संस्थापकों, प्रणय रॉय और राधिका रॉय के घर पर सीबीआई छापे के एक दिन बाद चैनल के श्रीनिवासन जैन से बातचीत में यह बात कही थी. दरअसल, छापे से कुछ दिनों पहले एनडीटीवी की निधि राजदान ने बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा को अपने शो से चले जाने को कहा था. निधि ने कहा था कि पात्रा उन न्यूज चैनलों पर जाया करें, जो ‘दूरदर्शन की तरह’ हैं.
उत्तर कोरिया का टीवी कैसा दिखता है?
अब बात उत्तर कोरिया के टीवी की. दरअसल, वहां का टीवी वही दिखाता है, जैसी तानाशाही सत्ता की सोच होती है. वहां का शासक अपने दुश्मन देशों के प्रमुखों के प्रति जैसी क्रूर सोच रखता है, टीवी उसे साकार होता महसूस करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ता.
सीएनएन की 2013 की इस रिपोर्ट में उत्तर कोरिया के सरकारी टीवी चैनल की कवरेज के कुछ हिस्से हैं. इनमें रॉकेट लॉन्चर्स से ‘ट्रेडरों के कठपुतली देशों’ के लीडर्स के पुतलों को उड़ाते हुए देखा जा सकता है. दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति के पुतले जब इस तरह से उड़ाए नहीं जा सके, तब उत्तर कोरियाई सैनिकों ने उस पर कुत्तों से हमला करवाया. अमेरिका के प्रतीक वाले पेपर टारगेट्स पर अटैक और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति के कटआउट पर ट्रेन को गुजरते हुए भी इनमें देखा जा सकता है.
भारतीय मीडिया के साथ तुलना
सोमवार की रात को जब अरुण शौरी कुछ भारतीय मीडिया की आलोचना कर रहे थे, तब रिपब्लिक चैनल के प्रमोटर और जर्नलिस्ट अर्णब गोस्वामी वामपंथी दलों को राष्ट्र-विरोधी और सेना-विरोधी घोषित करने में व्यस्त थे. दरअसल, कश्मीर में पत्थरबाजी से बचने के लिए आर्मी अधिकारी के जीप पर एक आम नागरिक को बांधे जाने की लेफ्ट फ्रंट के नेताओं ने आलोचना की थी.
रिपब्लिक टीवी पर अपने प्राइम टाइम शो में अर्णब गोस्वामी
रिपब्लिक चैनल पर इसी महीने कश्मीर पर एक डिबेट में अर्णब ने प्रदर्शनकारियों के बारे में बेहद विवादास्पद बात कही. उन्होंने कहा था, ‘मैं कहता हूं कि इन लोगों की प्रॉपर्टी ले ली जाए, उनके बैंक खाते सीज कर दिए जाएं, उनके घर छीन लिए जाएं, उन्हें दिवालिया कर दिया जाए, सड़कों पर छोड़ दिया जाए.’
टीवी जर्नलिस्ट और एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म, चेन्नई के चेयरमैन शशि कुमार ने ‘फ्रंटलाइन’ मैग्जीन में अपने कॉलम में लिखा था कि यह आज जबरन आम सहमति गढ़ने की कोशिश हो रही है. उन्होंने लिखा था, ‘जब तक आपकी राय, मेरी राय से मिलती है, तब तक आपको मेरे शो पर जगह मिलेगी. अगर ऐसा नहीं है तो मैं आपको अपने शो पर बोलने नहीं दूंगा.’
देश का हर अंग्रेजी चैनल अब इसी फॉर्मूले को अपनाया रहा है. सभी एंकर चीखने-चिल्लाने लगे हैं.
कहां गायब हो गए असली सवाल?
सुकमा में माओवादियों के हमले में 26 सीआरपीएफ जवानों के मारे जाने के बाद सरकार से सुरक्षा में चूक पर सवाल करने के बजाय टाउम्स नाउ ने कन्हैया कुमार और उमर खालिद की इस हमले पर चुप्पी को लेकर निशाना बनाया था. तब रिपब्लिक चैनल लॉन्च नहीं हुआ था और अर्णब ने ट्विटर पर, ‘छद्म, मीडिया की कॉकटेल सर्किट और विदेशी फंडिंग पाने वाले राष्ट्र-विरोधियों’ को टारगेट किया था.
यहां वह वीडियो है, जिसमें अर्णब गोस्वामी को 2014 में हुए एक माओवादी हमले के बाद पिछली सरकार से सख्त सवाल पूछते देखा जा सकता है.
मीडिया की जिम्मेदारी और बढ़ गई है
फेक न्यूज आज हमारे सोशल मीडिया ग्रुप पर जितनी तेजी और आसानी से पहुंच रहे हैं, उसमें मीडिया की जवाबदेही और बढ़ जाती है. तथ्यों की पड़ताल और सही और तीखे सवाल पूछने की जो ताकत मीडिया के पास है, वह उससे मुंह नहीं मोड़ सकता. मीडिया का यही रोल भी है. हालांकि, अभी जिस तरह के हालात हैं, उन्हें देखकर लगता है कि हमें भारतीय मीडिया की भी निगरानी की जरूरत है, ताकि यह उत्तर कोरिया के सरकारी भोंपू का तरह न बन जाए.
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