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एक जैसी है केजरीवाल और मोदी की राजनीति, दुश्मन भी एक ही

क्या केजरीवाल मॉडल और मोदी मॉडल में कोई टकराव है?

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राष्ट्रनिर्माण का नारा, जीत के बाद सीधे हनुमान मंदिर जाना और शपथग्रहण समारोह में सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न्योता देना- अरविन्द केजरीवाल के इन तीन कदमों से एक बात साफ हो गयी है कि सैद्धांतिक तौर पर आम आदमी पार्टी किसी भी सूरत में बीजेपी से आमने-सामने का टकराव नहीं चाहती. दूसरी बात यह भी स्पष्ट है कि आम आदमी पार्टी ने यह समझ लिया है कि उसका जन्म कांग्रेस से लड़कर हुआ है और कांग्रेस की कीमत पर हुआ है, इसलिए आगे भी उसका विस्तार इसी तर्ज पर होगा.

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दिल्ली चुनाव में बीजेपी के वोट बढ़े. सीटें भी बढ़ीं. आम आदमी पार्टी के वोटों की भरपाई किसी हद तक कांग्रेस के वोट छीनकर हुई. लोकसभा चुनाव का नतीजा भी बताता है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के वोटरों में फर्क नहीं है. कांग्रेस बढ़ती है तो आप घटती है. आप बढ़ती है तो कांग्रेस घटती है. मतलब साफ है कि आम आदमी पार्टी का मजबूत होना बीजेपी पर निर्भर नहीं करता है, यह कांग्रेस पर निर्भर करता है.

क्या केजरीवाल मॉडल और मोदी मॉडल में कोई टकराव है?

केजरीवाल मॉडल और दिल्ली मॉडल की जो सोच लगातार तीसरी बार केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद पैदा हुई है, वह अति उत्साह का नतीजा हो सकती है मगर यह भी सच है कि ऐसी सोच के जन्म लेने का अवसर भी यही हुआ करता है. केजरीवाल मॉडल देशव्यापी हो सकता है और यह गुजरात मॉडल की तर्ज पर देश के लिए एक सपना जगा सकता है, इस सम्भावना को न नकारा जा सकता है न स्वीकारा जा सकता है. कुछ कहने से पहले हमें वक्त का इंतजार करना होगा कि चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं. मगर, मूल प्रश्न यह है कि क्या केजरीवाल मॉडल और गुजरात मॉडल, जो अब केंद्र में मोदी मॉडल बन चुका है इनके बीच कोई टकराव है?

मोदी विरोध की धारा यह सोचती है कि केजरीवाल मॉडल और मोदी मॉडल में टकराव है. वजह यह है कि वह मोदी मॉडल का विकल्प खोजने को अधीर है. जो मॉडल दिख जाए, वही विकल्प है. मगर, खुद केजरीवाल मॉडल खुद को विकल्प के तौर पर पेश करने से भी बच रहा है. उसका पूरा जोर केवल खुद को मजबूत करने पर है. जब यह मजबूत होगा, तभी विकल्प बनेगा. मजबूत कैसे होगा- जब अधिक से अधिक भौगोलिक क्षेत्र में इसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी। यह कहां और कैसे सम्भव है, इस पर गौर करते हैं.

केजरीवाल मॉडल से कांग्रेस को नुकसान सबसे ज्यादा

आम आदमी पार्टी के विस्तार की सम्भावना पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, महाराष्ट्र में है जहां सरकार में कांग्रेस है. हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखण्ड, यूपी में भी आम आदमी पार्टी पैर पसार सकती है मगर बीजेपी का जनधार छीनकर नहीं, कांग्रेस और दूसरी बीजेपी विरोधी पार्टियों से जनाधार छीनकर. आम आदमी पार्टी की पहली प्राथमिकता अगर अपना विस्तार करना है तो उसकी लड़ाई गैर बीजेपी दलों से पहले है. केजरीवाल मॉडल अगर कहीं तुरंत प्रभावी हो सकता है तो वह गैर बीजेपी प्रदेश हैं जहां कोई मोदी मॉडल नहीं होने की वजह से प्रसार के अवसर ज्यादा हैं.

एक बार अगर केजरीवाल मॉडल गैरबीजेपी शासित राज्यों में स्वीकार कर लिया जाता है या फिर बीजेपी शासित राज्यों में भी गैर बीजेपी दलों के जनाधार में अपना आकर्षण बढ़ा लेता है तो वह स्वत: विकल्प बनकर खड़ा दिखेगा.

एक ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जब 2024 में नरेंद्र मोदी 74 साल के होंगे और अरविन्द केजरीवाल महज 56 साल के. एक ओर मोदी मॉडल होगा, जिसके साथ एंटी इनकम्बेन्सी रहेगी और दूसरी ओर केजरीवाल मॉडल का विकल्प होगा, जो उम्मीद और सपनों से सजा होगा, तो जनता किस मॉडल को पसंद करेगी?

केजरीवाल मॉडल किसी से टकराव का मॉडल नहीं होगा. यह काम और केवल काम का मॉडल होगा. यह मॉडल राष्ट्रवादी भी होगा और हिन्दूवाद से भी इसे परहेज नहीं होगा. हां, नफरतवादी सियासत से दूर रहकर यह सकारात्मक भी दिखेगा. मोदी मॉडल में डरे हुए अल्पसंख्यक स्वाभाविक रूप से केजरीवाल मॉडल के साथ होंगे और हिन्दुओं को भी यह मॉडल अपना हितैषी नजर आएगा.

आम आदमी पार्टी की सियासत को समझें तो यह साफ तौर पर बीजेपी को चुनौती देने की नहीं है. यह गैर बीजेपी और खासतौर से कांग्रेस को लील लेने की सियासत है. कांग्रेस आसान शिकार है. कांग्रेस की कीमत पर ‘आप’ हृष्ट-पुष्ट होगी और वक्त आने पर अचानक मोदी मॉडल का विकल्प बनकर पेश हो जाएगी. आम आदमी पार्टी की इस रणनीति से भला नरेंद्र मोदी को भी क्यों एतराज हो. बीजेपी को ऐतराज हो सकता है मगर बीजेपी की सोच पर अभी मोदी की माया है. वह सोच नहीं पाएगी. बीजेपी इसी बात से आत्ममुग्ध रहेगी कि कांग्रेसमुक्त का सपना पूरा करने में आम आदमी पार्टी आगे आयी है.

मोदी-केजरीवाल में हितों का टकराव नहीं

नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल के एक-दूसरे के खिलाफ चुप रहने की राजनीति के पीछे सिर्फ दोनों का एक ही जाति से होना नहीं है. सियासी रणनीति में दोनों एक-दूसरे के खिलाफ नजर नहीं आ रहे. एक-दूसरे के सहयोगी के तौर पर ज्यादा दिख रहे हैं. दिल्ली के चुनाव में ध्रुवीकरण की राजनीति चाहे बीजेपी ने जितनी की हो, फायदा किसे हुआ? फायदा बीजेपी को भी हुआ और आम आदमी पार्टी को भी. नुकसान किसे हुआ ? सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस को.

अरविन्द केजरीवाल का शपथ ग्रहण के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न्योता देने जाना एक रणनीतिक पहल हो सकती है. मगर, उस तस्वीर को प्रचारित-प्रसारित करना क्या बगैर किसी रणनीति के सम्भव है? अगर अतीत में झाकें तो नरेंद्र मोदी के साथ की एक तस्वीर के विज्ञापन मात्र पर नीतीश कुमार ने बीजेपी की पूरी कार्यकारिणी को भोज से लौटा दिया था, उनका निवाला छीन लिया था. खुद अरविंद केजरीवाल से जब लालू प्रसाद 2015 में नीतीश के शपथग्रहण समारोह में गले मिले थे, तो केजरीवाल को बोलना पड़ा था कि वे जबरदस्ती गले से लिपट गये. आज अरविंद न सिर्फ घर जाकर नरेंद्र मोदी से मिल रहे हैं बल्कि तस्वीरें भी साझा करा रहे हैं तो मकसद साफ है कि वे सैद्धांतिक विरोध की सियासत का त्याग करने का संदेश दे रहे हैं.

मोदी मॉडल से केजरीवाल मॉडल किसी भी तरीके से अलग नहीं है. एक में मोदी-शाह हैं तो दूसरे में केजरीवाल-सिसोदिया. एक के पास ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा है तो दूसरे के पास भी कमोबेश वही नारा है. सपने दिखाने की सियासत दोनों मॉडल की बुनियाद है. केजरीवाल मॉडल के सामने रहने से इस बात की सम्भावना कम होगी कि बीजेपी के भीतर मोदी मॉडल के अलावा कोई मॉडल उभर पाएगा. मगर, बीजेपी को यह नुकसान मोदी के कार्यकाल के बाद होने वाला है. फिलहाल केजरीवाल मॉडल की प्लानिंग कांग्रेस को लील लेने के लिए की गयी है. एक तरह से चाहे बीजेपी हो या आम आदमी पार्टी दोनों का साझा हित है कांग्रेस मुक्त भारत.

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