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AIMIM विधायकों के RJD में जाने के बाद क्या बिहार की मुस्लिम राजनीति बदलेगी?

इस दलबदल से ओवैसी और उनकी AIMIM को जो झटका लगा है, उसका खास तौर से आरजेडी को बहुत फायदा नहीं मिलेगा

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बिहार में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के पांच में से चार विधायकों के राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में शामिल होने के फैसले से असदुद्दीन ओवैसी को निश्चित तौर पर झटका जरूर लगा है. ओवैसी काफी समय से मुसलमानों के अखिल भारतीय नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं. वैसे AIMIM, और साथ ही साथ, ओवैसी के लिए यह दूसरा बड़ा झटका है. साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में AIMIM ने काफी निराशाजनक प्रदर्शन किया था.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में ओवैसी ने बड़ी धूमधाम और उम्मीदों के साथ 100 उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन पार्टी धराशाई हो गई थी. पार्टी के किसी भी उम्मीदवार को 5,000 से ज्यादा वोट नहीं मिले थे. इनमें से 99 की तो जमानत भी जब्त हो गई थी.

अब AIMIM के चार विधायकों के दलबदल के चलते तेजस्वी यादव की अगुवाई वाली आरजेडी एक बार फिर से बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई है लेकिन राज्य में तत्काल राजनीतिक बदलाव की उम्मीद नहीं है.
स्नैपशॉट
  • बिहार में AIMIM के चार विधायकों के आरजेडी में शामिल होने के फैसले से असदुद्दीन ओवैसी के मंसूबों पर पानी फिर गया है. वह काफी समय से मुसलमानों के अखिल भारतीय नेता बनने की कोशिश में हैं.

  • वैसे AIMIM, और साथ ही साथ, ओवैसी के लिए यह दूसरा झटका है. साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश विधानसभा में चुनाव में AIMIM ने काफी निराशाजनक प्रदर्शन किया था.

  • 2015 के बाद से ओवैसी के कारण AIMIM का नाम जरूर चमका. लेकिन यह भी सच है कि अपने नेताओं के राजनीतिक आधार के चलते ही AIMIM ने सभी सीटों पर जीत हासिल की.

  • ऐसे में आरजेडी में AIMIM के चार विधायकों का दाखिला सोने पे सुहागे जैसा है. लेकिन आगे की राह लंबी और मुश्किल है.

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क्या इस दलबदल का आरजेडी को फायदा होगा

वैसे आरजेडी सत्ता के केंद्र के करीब पहुंचे, उसके लिए बड़े नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम की जरूरत है. राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुनाव में नीतीश कुमार का क्या रुख होगा, इसके लिए कई महीनों से अटकलें लगाई जा रही थीं. लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) के साथ टकराव से बचने का विकल्प चुना है. इसीलिए इस समय कोई भी बदलाव संभव नहीं है.

जनता दल यूनाइटेड (JDU) और उसके गठबंधन के सहयोगियों के बीच विवाद का सिर्फ एक बड़ा मुद्दा है- जातिगत जनगणना. हां, केंद्रीय मंत्रिमंडल में आरसीपी सिंह बने रहते हैं या नहीं, यह भी एक पेचीदा मामला है. जातिगत जनगणना पर बीजेपी के पास एक ही विकल्प है- वह इस मुद्दे पर पिछले महीने हुई सर्वदलीय सहमति को ही आगे बढ़ाए.

फिर भी बीजेपी ने इसमें कुछ शर्तें जरूर जोड़ी हैं: "कोई रोहिंग्या या अवैध बांग्लादेशी प्रवासी नहीं" गिना जाएगा. इसके अलावा उसने मुसलमानों की कथित 'कोशिशों' से 'सावधान' रहने की जरूरत भी गिनाई है जो अपने वर्चस्व वाले क्षेत्रों में ओबीसी लाभ का झूठा दावा करते हैं.

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लेकिन इस दलबदल से ओवैसी और उनकी AIMIM को जो झटका लगा है, उसका खास तौर से आरजेडी को बहुत फायदा नहीं मिलेगा. इसकी वजह यह है कि इन चार में से दो विधायकों ने आरजेडी उम्मीदवारों को हराकर अपनी सीट जीती थी. इनके आरजेडी में आने से उनके निर्वाचन क्षेत्रों में पार्टी के कार्यकर्ता जले-भुनेंगे, साथ ही राज्य पर भी उसका असर होगा.

आगामी चुनावों में आरजेडी के लिए असमंजस की स्थिति होगी कि इन निर्वाचन क्षेत्रों में किसे चुने. पिछले विधानसभा चुनावों में कई सीनियर नेताओं ने एआईएमआईएम का दामन इसीलिए थामा था क्योंकि उन्हें आरजेडी ने टिकट नहीं दिया था.

दो भाइयों की कहानी

अक्टूबर-नवंबर 2020 के चुनाव में जोकीहाट विधानसभा क्षेत्र में नामांकन के मुद्दे पर काफी घमासान मचा था. लालू प्रसाद यादव के करीबी रहे स्वर्गीय मोहम्मद तस्लीमुद्दीन के दो बेटों ने इस क्षेत्र से एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था.

तस्लीमुद्दीन के बड़े बेटे और पूर्व सांसद सरफराज आलम को आरजेडी ने जोकीहाट से अपना उम्मीदवार चुना था. लेकिन उनके छोटे बेटे शाहनवाज आलम, जो जोकीहाट से मौजूदा विधायक थे, इस बात से नाराज होकर AIMIM में शामिल हो गए थे.
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इस तरह भाई-भाई के बीच की दरार दर्शाती है कि भारतीय राजनेता उत्तराधिकार के मुद्दे को सुलझा नहीं पाते. मोहम्मद तस्लीमुद्दीन एचडी देवेगौड़ा सरकार में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री थे. संसद और विधानसभा में उन्होंने कई सालों तक कई पार्टियों की नुमाइंदगी की थी. 2017 में जब उनका निधन हुआ तो वह लोकसभा में अररिया से आरजेडी सांसद थे.

तस्लीमुद्दीन के इंतेकाल के समय उनके बड़े बेटे सरफराज आलम जेडीयू के विधायक थे. वालिद के इंतेकाल के बाद सरफराज ने जेडीयू को छोड़ा और विधानसभा से इस्तीफा दे दिया. आरजेडी ने सरफराज को उसी सीट से टिकट दिया जो सीट उनके वालिद के इंतेकाल के बाद खाली हो गई थी.

इधर सरफराज के इस्तीफे के बाद खाली हुई विधानसभा सीट उनके छोटे भाई शाहनवाज आलम की झोली में गिर गई. उपचुनाव हुए और छोटा भाई जीत गया. इसके बाद भी दोनों भाइयों का रिश्ता बना रहा. उनकी आपस में तब ठनी, जब आरजेडी ने बड़े भाई सरफराज आलम का नाम उस विधानसभा सीट के लिए पेश किया, जिसके शाहनवाज मौजूदा विधायक थे.
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सरफराज 2019 के संसदीय चुनावों में बीजेपी के एक उम्मीदवार से हार गए थे. छोटे भाई शाहनवाज की नाराजगी लाजमी थी. इस तनातनी में वह ओवैसी की पार्टी में चले गए और उसी सीट से अपने बड़े भाई सरफराज के खिलाफ लड़ लिए. जीत भी गए. सरफराज, शाहनवाज से 13 साल बड़े हैं और इस चुनावों में वह शाहनवाज से 7,000 से ज्यादा वोटों से हार गए.

अब सवाल यह है कि क्या ये दोनों भाई आपसी रंजिश भुलाकर गले मिलेंगे या बड़े भाई और उनके साथी किसी और राजनीतिक मोर्चे में अपना भविष्य तलाशेंगे. कम से कम एक अन्य सीट पर भी ऐसी ही स्थिति है.

ओवैसी की अपील काफी नहीं

ओवैसी ने बिहार के सीमांचल इलाके में पैर जमाने की पहली कोशिश 2015 के विधानसभा चुनावों में की थी. तब उन्होंने राज्य की 243 में से छह सीटों पर चुनाव लड़ा था. हालांकि उनके हाथ खाली रहे थे.

अब इस इलाके में ओवैसी के पास सिर्फ तिनके का सहारा है. उनके पास यहां AIMIM के प्रदेश अध्यक्ष और एकमात्र विधायक अख्तरुल ईमान ही बचे हैं. ईमान किशनगंज से 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के उम्मीदवार थे. इस सीट से सैयद शहाबुद्दीन और एमजे अकबर जैसे नेता चुने गए हैं.

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हालांकि वह इस चुनाव में तीसरे नंबर पर थे लेकिन सबसे खास बात यह है कि उन्होंने 2.95 लाख वोट बटोरे थे जो कुल वोटों का 26.78% था. इस परिणाम ने ओवैसी के बिहार में दाखिले के विरोधाभास को उजागर किया था.

पिछले विधानसभा चुनावों में ओवैसी ने काफी सावधानी बरती थी. उन्होंने ग्रैंड सेक्युलर डेमोक्रेटिक फ्रंट के तौर पर चुनाव लड़ा था जिसमें उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP), बहुजन समाज पार्टी (BSP), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (SBSP) और समाजवादी जनता दल (लोकतांत्रिक) शामिल थे. हां, AIMIM ने अपने सहयोगियो की तुलना में कम सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन पूरा मीडिया उन्हीं को तवज्जो दे रहा था.

2015 के बाद से ओवैसी के कारण AIMIM का नाम जरूर चमका. लेकिन यह भी सच है कि अपने नेताओं के राजनीतिक आधार के चलते ही AIMIM ने सभी सीटों पर जीत हासिल की. 2020 में भी परिदृश्य अलग नहीं था- ओवैसी ने मीडिया का ध्यान खींचा लेकिन राजनीतिक समर्थन व्यक्तिगत आधार वाले मजबूत स्थानीय नेताओं के कारण मिला.
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परंपरागत रूप से सीमांचल क्षेत्र लालू प्रसाद यादव का गढ़ था. यहां मुसलमानों की बड़ी आबादी है. हालांकि पश्चिम बंगाल की सीमा से लगी किशनगंज सीट अक्सर सुर्खियों में रहती है, क्योंकि वहां से स्टार उम्मीदवार खड़े होते हैं. यहां भी मुसलमान आबादी काफी है (65% से अधिक). पर यह इलाका उपेक्षित और अविकसित रहा है.

तेजस्वी के आगे जटिल समस्या है

इसमें कोई शक नहीं कि इन दलबदल के बाद विधानसभा में संतुलन बिगड़ रहा है. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के पास 127 सीटें हैं जो बहुमत के निशान से सिर्फ पांच ज्यादा है, जबकि विपक्षी महागठबंधन अब 115 पर पहुंच गया है, जिसमें से 80 सीटें आरजेडी के पास हैं.

इस घटनाक्रम से बेशक, RJD के कैडर का मनोबल बढ़ेगा और कुछ असंतुष्ट JDU विधायक अपने विकल्पों पर सोच-विचार करने लगेंगे, खासकर जब नीतीश कुमार उदासीन हो रहे हों. वैसे भी कई JDU विधायकों को लगता है कि BJP उनकी पार्टी को हाशिए में फेंकने के मंसूबे बना रही है और नीतीश उसका सही से जवाब नहीं दे रहे.

जैसा कि महाराष्ट्र में देखने को मिला है. बीजेपी जब अपने राजनीतिक आधार को मजबूत करने का इरादा करती है तो अपने विरोधियों को ही नहीं, सहयोगियों को भी किनारे लगा देती है. चूंकि बीजेपी की रणनीतियों पर तो लगाम लगाई नहीं जा सकती, इसीलिए नीतीश कभी भी उससे अपने पल्ला छुड़ा सकते हैं.

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ऐसे में आरजेडी 2020 के नुकसान को फायदे में बदलने के लिए AIMIM के विधायकों से मदद ले रही है. पार्टी के तौर पर उसका कद बढ़ सकता है ताकि वह अल्पसंख्यक वोटों को हासिल कर सके.

लेकिन तेजस्वी यादव के सामने बड़ी मुश्किल है. बिहार में नौजवान बेरोजगारी से बेचैन हैं. अग्निपथ योजना को लेकर बहुत असंतोष है. RJD के पास एक मौका है. तेजस्वी ने इस विवादित योजना पर बहस की मांग के साथ पहल कर दी है. विधानसभा अध्यक्ष ने इसकी इजाज़त नहीं दी और मानसून सत्र बेअसर हो गया.

ऐसे में आरजेडी में AIMIM के चार विधायकों का दाखिला सोने पे सुहागे जैसा है. लेकिन आगे की राह लंबी और मुश्किल है.

(नीलांजन मुखोपाध्याय NCR में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी : द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वह @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करत है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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