'नए' संविधान की मांग करते हुए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने स्वतंत्रता दिवस पर एक अखबार में यह तर्क देते हुए लेख लिखा कि:
ये 2023 है, 1950 को बीते हुए 73 साल हो गए हैं. हमारा वर्तमान संविधान 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है. इसका मतलब है कि ये एक औपनिवेशिक विरासत है. 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए गठित एक आयोग द्वारा रिपोर्ट आई थी, लेकिन यह आधे-अधूरे मन से किया गया प्रयास था. हमें पहले सिद्धांतों से शुरुआत करनी चाहिए, जैसा कि संविधान सभा की बहसों में होता है.
कुछ लोगों को लग सकता है कि ये वैध, महत्वपूर्ण सवाल हैं जिन पर विचार करना चाहिए. लेकिन ये भी ध्यान रखना चाहिए कि जब हमारा संविधान बनाया गया था तो उसे तीन साल लग गए थे. तीन सालों तक कई मुद्दों पर बहस चली, सभी को बोलने और अपनी बात रखने का मौका दिया गया था. लेकिन आज वास्तविकता बदल चुकी है.
डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के नेतृत्व में सावधानीपूर्वक एक संविधान तैयार किया गया, जो एक नवोदित गणतंत्र के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने की चिंताओं को संबोधित करने वाला था.
लेकिन, हम जो अभी देख रहे हैं वह निश्चित रूप से एक अलग वास्तविकता है.
हाल ही में दिल्ली-एनसीआर की 'एलीट' प्राइवेट अशोका यूनिवर्सिटी में जो घटनाएं हुई हैं वह बताती हैं कि कैसे अस्वतंत्रता (स्वतंत्रता नहीं) का माहौल उच्च शिक्षा की शैक्षणिक संस्कृति को आकार दे रहा है - यहां तक कि प्राइवेट संस्थानों में भी जहां सरकार का पैसा नहीं लगा है.
ऐसे संस्थानों के छात्र स्वतंत्रता 'खरीदने' और सर्वोत्तम प्रकार की 'उदार शिक्षा' के लिए पैसे देते हैं.
सार्वजनिक संस्थानों के लिए नए दिशानिर्देश
2021 में इंडियन एक्सप्रेस के लिए लिखे एक कॉलम में सुधींद्र कुलकर्णी ने बताया कि कैसे मोदी सरकार ने अंतरराष्ट्रीय वेबिनार/सम्मेलन/कार्यशाला आयोजित करने के अपने (नए) आदेश के साथ 'शैक्षणिक स्वतंत्रता' पर अपना सबसे बड़ा हमला किया था. 15 जनवरी 2021 को शिक्षा मंत्रालय के एक अवर सचिव के ऑफिस से जारी "ज्ञापन", जिसका शीर्षक था- 'ऑनलाइन/वर्चुअल सम्मेलन, सेमिनार, प्रशिक्षण आदि आयोजित करने के लिए संशोधित दिशानिर्देश' के रूप में मिनी "सर्जिकल स्ट्राइक" हुआ था.
नई गाइडलाइन के अनुसार, "सभी केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान, सरकारी यूनिवर्सिटी" जो केंद्र या राज्य सरकार के अधीन है, उन्हें "राज्य की सुरक्षा, सीमा, पूर्वोत्तर राज्यों, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर, लद्दाख से संबंधित किसी भी मुद्दे या भारत के आंतरिक मामलों से संबंधित मुद्दों" पर ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन या सेमिनार आयोजित करने के लिए विदेश मंत्रालय से पहले अनुमति लेनी होगी. इसके अलावा, उन्हें आयोजन के लिए और साथ ही प्रतिभागियों की सूची के लिए उपयुक्त प्रशासनिक सचिव से अनुमोदन की आवश्यकता है.
यह वर्तमान सरकार द्वारा पिछले नौ सालों में उठाए गए कई उपायों में से एक उदाहरण था, जिसका उद्देश्य सार्वजनिक संस्थानों की शैक्षणिक स्वतंत्रता को कम करना था. सामाजिक विज्ञान से लेकर अन्य विषयों तक 'स्वतंत्र' सोच वाले आलोचनात्मक अकादमिक विमर्श की क्षति के बाद लगभग हर सार्वजनिक संस्थान को सरकार की राह पर चलते हुए देखा गया है.
और फिर, निजी संस्थानों की बारी आई.
अशोका यूनिवर्सिटी शैक्षणिक स्वतंत्रता के बुनियादी सिद्धांतों में फेल हो सकती है
गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी के वी-डेम इंस्टीट्यूट द्वारा विकसित अकादमिक स्वतंत्रता सूचकांक में गिरावट पर एक नजर डालें. संस्थान द्वारा शैक्षणिक स्वतंत्रता के घटकों को अच्छी तरह से परिभाषित किया गया है और सभी देशों में मोटे तौर पर समान हैं (इसकी कार्यप्रणाली के बारे में कोई कुछ भी कहे).
उदाहरण के लिए, शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक को निम्नलिखित आधार पर मापा है:
रिसर्च करने और पढ़ाने को लेकर स्वतंत्रता
शैक्षणिक आदान-प्रदान और प्रसार की स्वतंत्रता
संस्थागत स्वायत्तता
कैम्पस की अखंडता
शैक्षणिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
हालांकि, इंडिया फोरम का यह लेख समान मापदंडों का पालन करता है, लेकिन इसके लेखक- नंदिनी सुंदर और गौहर फाजिली, भारतीय संदर्भ में पिछले रिसर्च पर आधारित कुछ अलग मापदंडों और जोर देते हैं.
लेखकों के शब्दों में, “विश्वविद्यालयों को अपनी ओर से संस्थागत स्वायत्तता पर सम्मेलनों को बहाल और मजबूत करना चाहिए; और छात्र-संकाय संघों को शैक्षणिक स्वतंत्रता और स्वतंत्र भाषण के उनके अधिकारों के बारे में सूचित करना चाहिए. फैकल्टी के साथ कॉन्ट्रैक्ट में आकादमिक स्वतंत्रता की सुरक्षा का एक क्लॉज भी शामिल करना चाहिए, यानी, उन्हें पाठ्यक्रम के साथ-साथ अन्य गतिविधियों के लिए दंडित नहीं किया जाएगा. फैकल्टी को छात्रों और शिक्षकों के समर्थन करने के लिए एक नेटवर्क भी बनाना चाहिए.
ऐसा लगता है कि अशोका जैसे बड़े संस्थान का प्रशासन 'शैक्षणिक स्वतंत्रता' के इन बुनियादी सिद्धांतों को सुनिश्चित करने में विफल रहा है. हालांकि, सब्यसाची दास के इस्तीफे और उनके रिसर्च पेपर पर अशोका यूनिवर्सिटी की प्रतिक्रिया के बाद कैंपस में प्रोफेसर और छात्रों के बीच एकजुटता पैदा हो सकती है. लेकिन, गवर्निंग बॉडी और एकेडमिक एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा गई कार्रवाई लक्षणात्मक रूप से भारत में प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान में जो हो रहा है, उसके अनुरूप है.
यह बेहद चिंताजनक है. और अधिक प्राइवेट संस्थानों में ऐसा देखने को मिल सकता है, जहां आलोचनात्मक विचारों को आगे बढ़ाने के लिए फैकल्टी मेंबर्स को हटाया जा सकता है.
लेकिन क्या ऐसा होने की संभावना नहीं दिख रही थी? या शायद 'अभिजात वर्ग' असहमति में केवल तभी बोलते हैं जब उसकी अपनी स्थिति, उनके अपने लोगों की, स्वतंत्रता और हितों को खतरा होता है, बिना इसकी परवाह किए कि उनके समुदाय की सीमाओं के बाहर क्या हो रहा है.
एलीट, प्राइवेट संस्थानों को लोकतांत्रिक सिद्धांतों को लेकर वर्तमान माहौल में व्याप्त डर के प्रति पहले से सचेत रहने की जरूरत है. यह इन सिद्धांतों की सुरक्षा और अमल के लिए हैं, जो अच्छी तरह से लिखित/तैयार संविधान लोगों और उनके कल्याण के लिए काम करता है.
एक प्रखर लेखक और विद्वान होने के नाते देबरॉय को उन परिस्थितियों से अवगत होना चाहिए जिनमें एक शासन के नापाक कार्यों का सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक परिदृश्य और शैक्षणिक स्वतंत्रता पर हमला शामिल है. जो संविधान के कुछ सबसे जटिल लेकिन बुनियादी सवालों पर चर्चा को चुनौती बना देता है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसका 2047 या अगले 1000 सालों के भविष्य पर खतरा हो सकता है.
(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @Deepanshu_1810 है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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