हमें इस बात पर गर्व है कि हम हिंदुस्तानी है. हमें इस बात पर गर्व है कि हम दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता है. हमें इस बात पर गर्व है कि हमारे देश में सभी धर्मों के लोग सद्भाव से रहते हैं . हमें इस बात पर गर्व है कि ये गंगा जमुनी तहजीब का देश है. हमें इस बात पर गर्व है इस देश में गांधी, नेहरू, पटेल और स्वामी विवेकानंद ने जन्म लिया.
हमें इस बात पर गर्व है कि हमारे महापुरूषों ने हिंदू मुस्लिम एकता की बात की और उसके लिये काम किया. हमें इस बात पर गर्व है कि हम होली और ईद पर जी भर कर गुझियां और सेवइयां खाते हैं. हमें इस बात पर गर्व है कि भारत में लोकतंत्र है. हमें इस बात पर भी गर्व है कि यहां सबको बराबरी का अधिकार है.
ऐसे में भीड़ जब किसी को गाय के नाम पर कत्ल कर देती है तो हम सोचते है कि क्या ये वही देश है जिस पर हमें गर्व है? क्या इस कत्ल पर चुप्पी भी गर्व है ? और क्या कत्ल को पिछले दरवाजे से सही ठहराने की कोशिश भी गर्व है?
हिंदुस्तान बदल रहा है ये हमें मालूम था. लेकिन हिंदुस्तान इतना बदल जाएगा ये हमें हाल में मालूम हुआ है. दादरी के अखलाक से जुनैद और अलीमुद्दीन तक की यात्रा अद्भुत है. ऐतिहासिक है. अभूतपूर्व है. ये बताती है कि हम जैसे लोग शायद समय से कदमताल करने में पीछे रह गये हैं. समय की किसी कंदरा में शायद कैद होकर रह गये हैं.
क्या ये बदलाव भी गर्व है?
ये अच्छा है कि देश के प्रधानमंत्री ने कहा है कि गाय के नाम पर हत्या स्वीकार्य नहीं है और गांधी जी भी यही कहते थे, पर ऐसा ही कुछ बयान अखलाक की मौत के दस दिन बाद भी आया था. तब देश के राष्ट्रपति की अंतरपीड़ा सार्वजनिक हुई थी पर डेढ़ सालों में क्या देश वाकई में इतना बदल गया कि वो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की बात पर भी कान नहीं धरती. क्या ये बदलाव भी गर्व है ?
पिछले दिनों कुछ सिरफिरे जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए. इनमें बेचैनी थी. ये अंदर से काफी परेशान थे. ये कह रह थे कि मेरे नाम पर ये कत्ल ठीक नहीं है. लेकिन क्या इनकी आवाज बदलते हिंदुस्तान को बदलने से रोक सकेगी?
ये सवाल सिर्फ जंतर मंतर से नहीं निकला है. ये सवाल देश के सभी कोनों से आ रही है. ये आवाज अभी मद्धम है. ये आवाज अपने हुक्मरानों से बस एक निवेदन है. ये आवाज बस इतना कह रही है. अब और नहीं.
पर एक सवाल और है कि ये आवाज कुछ असर दिखाएगी? या सिर्फ सवाल बन कर ही रह जाएगी. ईमानदारी से कहूं तो यकीन थोड़ा है. बदलाव अभी अधूरा है पूरा होने की तलाश जारी है. प्रधानमंत्री की बात के बाद भी ये रुकेगा ये यकीन भी अधूरा है. इसके कारण हैं. हालांकि, मैं गलत साबित होना चाहता हूं.
32 हमले हुए 23 लोगों की जान गई
2014 लोकसभा चुनाव के बाद से मुस्लिम समुदाय के लोगों पर भीड़ के कुल 32 हमले हुए. इनमें 23 लोगों की जाने गईं. पचास घायल हुए और दो बलात्कार की भी खबर आई ये हमले किसी एक प्रदेश में नहीं हुए. 12 राज्यों का नाम इनसे जुड़ा.
ये भी सच है कि 26 हमले गैर-मुस्लिम समुदायों पर भी हुए. 5 लोग मारे गए. इनमें कुछ खबरें मीडिया की सुर्खियां बनी तो कुछ गुमनाम रह गई. ये सब कुछ गोरक्षा के नाम पर हुआ. गोरक्षा का कैंपेन नया नहीं है. हिंदुत्ववादी ताकतें आजादी के पहले से गो रक्षा का मुद्दा उठाती रही. साठ के दशक में एक बड़ा आंदोलन भी खड़ा किया गया. पुलिस की गोली और दंगों में से काफी लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे. बाद के दशकों में भी समय समय पर इस मुद्दे की धमक सुनाई देती रही, पर ये मुद्दा कभी इस तरह से नहीं गरमाया जैसा पिछले तीन सालों में भभका है.
दरअसल, अस्सी और नब्बे के दशक में राम मंदिर आंदोलन ने इस मुद्दे को पूरी तरह से ही नेपथ्य में डाल दिया था. ये भी कह सकते है कि इस मुद्दे को पूरी तरह से भुला दिया गया था.
‘गोहत्या न तो एक धार्मिक प्रश्न है और न ही सामाजिक’
मेरा मानना है कि अपनी रवायत में गोहत्या न तो एक धार्मिक प्रश्न है और न ही सामाजिक. राम मंदिर की तरह ये पूरी तरह से राजनीतिक सवाल है. हिंदुत्ववादी ताकतें 1925 में आरएसएस के गठन के बाद से ही जातियों में बंटे हिंदू समाज को एक करने का ख्वाब संजोए हुए हैं.
मध्य कालीन इतिहास की अपनी व्याख्या की वजह से उनका मानना है कि हिंदुओं को मुस्लिम समाज की तरह एकजुट और मिलिटेंट होना चाहिए तभी वो फिर कभी गुलाम नहीं होगा और विश्वगुरु बनने का सपना पूरा हो सकेगा.
संघ परिवार जानता है कि हिंदू समाज में गाय को ऊंचा दर्जा दिया गया है. पुराणों में गाय के नाम पर लड़ाइयों का वर्णन है. पुराने भारत में गाय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी भी हुआ करती थी.
बचपन में मेरे जैसे बच्चों ने गाय पर निबंध लिखा है जिसकी पहली लाइन होती थी गाय हमारी माता है. मेरे गांव में गाय के गोबर से उपले बनते थे जिनसे चूल्हा जलता था. गाय के गोबर से मेरी दादी और नानी रसोई भी लीपा करती थी. उनकों लगता था कि इससे रसोई पवित्र होगी. सुबह उठते ही वो गाय को रोटी खिलाकर ही मुंह में निवाला डालती थी. कई बार मैंने उन्हें गाय की पूजा करते और सिंदूर का टीका लगाते भी देखा है.
गांधी जी ने भी कहा है
गो रक्षा हिंदू धर्म का केंद्रीय तत्व है
हालांकि, अपनी किताब में "मिथ आफ द होली काऊ" डी एन झा ने इस बात को साबित करने का प्रयास किया है कि वैदिक काल में गो वध और गो मांस खाने के उदाहरण है. लेकिन अमूमन ये माना जाता है कि मांस भक्षी होने के बाद भी हिंदू गौ मांस नहीं खाते. इसके विपरीत मुस्लिम समाज के बारे में ये आम है कि उन्हें इससे कोई परहेज नहीं है.
संघ परिवार ने हिंदू समाज में गाय के प्रति धार्मिकता और मुस्लिम समाज के नजरिए में अपने लिए अवसर खोज लिया. उन्हें लगा कि गोरक्षा और गोहत्या के नाम पर हिंदू समाज में उद्वेलन पैदा किया जा सकता है. इस मसले पर उन्हें इतिहास से भी मदद मिली.
1857 की क्रांति का एक बड़ा कारण कारतूस में लगे गाय का चमड़ा था जिसे बंदूक में लोड करने के पहले दांत से कांटना पड़ता था. इस असफल क्रांति के बाद गोरक्षा के लिए कई संगठन बने.
दयानंद सरस्वती ने 1882 में गोरक्षा समिति बनाने की पहल की
दयानंद सरस्वती ने 1882 में गोरक्षा समिति बनाने की पहल भी की. 1880 और 1890 के दशक में गो हत्या के नाम पर हिन्दू मुस्लिम दंगे भी हुए और सैकड़ों लोगों की जानें गई. यानी 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिंदू पुनर्जागरण की जो मुहिम शुरू हुई, संघ परिवार ने उसे आगे चल कर अपनी हिंदुत्ववादी विचारधारा का अहम हिस्सा बना लिया.
जो ये सोचते हैं कि 2014 मे बीजेपी की बहुमत की सरकार बनने के बाद गो रक्षा के नाम पर भीड़ हत्या के वाकये कुछ सिरफिरे लोगों का काम है वो भूल कर रहे हैं. ये महज कुछ घटनाएं नहीं है. ये कानून व्यवस्था का मसला भी नहीं है. हकीकत में ये एक वैचारिक लड़ाई का महत्वपूर्ण अस्त्र है.
मेरे पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि इसको संघपरिवार की तरफ से योजनाबध्य तरीके से अंजाम दिया जा रहा है और न ही मैं ये बात कहना ही चाहता हूं. पर ये जरूर जानता हूं कि हिंदुत्ववाद एक विचारधारा है. जिसको आरएसएस ने पिछले बानबे सालों में करोड़ों लोगों तक पहुंचाया है.
राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मैं ये कह सकता हूं कि विचारधारा सिर्फ कागज पर लिखे कुछ शब्द नहीं होते. या कुछ वाक्य या कोई पोथा ये एक सोच है. वो सोच जो एक मानव समूह विशेष को अनुप्राणित करती है. एक बड़े लक्ष्य को पाने का सपना दिखाती है. विचारधारा अपने साथ एक खास तरह की सोच रखने वालों की फौज तैयार करती है और इसके बरक्स विचारधारा के दुश्मन की पहचान भी करती चलती है. यानी एक तरफ विचारधारा का आदर्श है तो दूसरी तरफ उतना ही तीखा शत्रुभाव भी.
हिंदुत्ववाद उसी तरह से एक विचारधारा है जैसे साम्यवाद. ये उसी तरह से एक नए हिंदू समाज की संरचना को रेखांकित करती है जैसे कि साम्यवाद वर्गविहीन समाज की प्रेरणा देती है. इस वर्गविहीन समाज के सपने ने सोवियत रूस, चीन और दुनिया के दूसरे कई मुल्कों में साम्यवादी अधिनायकवाद को जन्म दिया और जिसने पूंजीवाद के खिंलाफ जबर्दस्त संघर्ष को अंजाम तक पंहुचाया.
विचारधाराओं का ये संघर्ष तब खत्म हुआ जब 1990 में साम्यवाद को हार का सामना करना पड़ा. लेकिन तब तक लाखों लोग इसका शिकार हो चुके थे.
भारत में भी विचारधारा का संघर्ष जारी है. ये संघर्ष कहां जाकर समाप्त होगा अभी दावे से नहीं कहा जा सकता. इस संघर्ष में किसकी जीत होगी ये भी नहीं कहा जा सकता. पर इतना तय है कि प्रधानमंत्री के बयान मात्र से भीड़ हत्या का सिलसिला रुकने वाला नहीं है. ये संघर्ष कोई भी आयाम तय करे, पर अफसोस, इस पर गर्व कतई नहीं किया जा सकता.
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