ब्रृह्मपुत्र के पुत्र कहलाने वाले भारत रत्न भूपेन हजारिका का एक गीत है, एनुआ पोरोते जाओ बसारोते. असमिया भाषा के इस गीत का हिंदी अनुवाद यह है कि गायक पिछले साल की भयंकर बाढ़ की तबाही का दर्द बयान कर रहा है. उस बाढ़ में उसकी छोटी सी झोपड़ी बह गई थी. धान के खेत डूब गए थे. उसकी प्रिया भी मौत के गाल में समा गई जिसका हार अब भी गिरवी रखा हुआ है.
असम (Assam) की बाढ़ का यह आलम है. जहां देश के कई इलाकों में मानसून से पहले की बारिश खुशियां लेकर आती है, खासकर राजधानी और उत्तरी पट्टी के राज्यों में, जहां गर्मी की तपन जी बेहाल कर रही होती है, वहीं पूर्वोत्तर में बारिश कहर बनकर गिरती है.
फिलहाल असम और मेघालय बाढ़ और भूस्खलन की चपेट में हैं. अभी जून का महीने आधा ही बीता था कि असम में बाढ़ की दूसरी लहर ने तबाही मचा दी. मेरे संसदीय क्षेत्र नौगांव, जो मध्य इलाका है, वहां एक महीने में दूसरी बार हालात चिंताजनक बने हुए हैं. स्थिति बहुत अस्थिर है. प्रभावित लोगों और जिलों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है.
असम में स्थिति बहुत अस्थिर है. प्रभावित लोगों और जिलों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है. हालांकि जब राष्ट्रीय स्तर पर विकास की दुहाई दी जाती है, तो यहां के लाखों लोगों के संघर्ष को नजरंदाज कर दिया जाता है.
2020-21 में जब राज्य सरकार ने बहाली कार्य के लिए 2,642.99 करोड़ रुपए मांगे तो सिर्फ 44.37 करोड़ रुपए की सांकेतिक राशि जारी की गई.
1954 के बाद से भूमि के कटाव के कारण असम ने 4.3 लाख हेक्टेयर भूमि को गंवा दिया है जोकि राज्य के क्षेत्रफल का 7% है. अगर हिसाब लगाएं तो यह भूमि दिल्ली के आकार से तीन गुना से अधिक है.
असम के 40% क्षेत्र (32 लाख हेक्टेयर के करीब) पर बाढ़ का जोखिम है, जबकि देश में इसका स्तर 10.2% है. यानी असम में बाढ़ का जोखिम पूरे देश की तुलना में चार गुना अधिक है. असम में जल से जुड़ी आपदाओं का मुद्दा इतना गंभीर है कि इसे क्षेत्रीय मांग नहीं माना जा सकता, और न ही इसे पक्षपातपूर्ण कहकर ठुकराया जा सकता है.
असम की बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग
समस्या की प्रकृति और उसके पैमाने को देखते हुए, और यह भी कि इससे नदी घाटी के प्रबंधन का बड़ा सवाल जुड़ा हुआ है, केंद्र सरकार की भूमिका और सहयोग अहम है. देश के अधिकांश हिस्सों में जब बाढ़ आती है तो राष्ट्रीय स्तर पर सबका ध्यान जाता है. केंद्रीय सहायता मिलती है. नीति निर्धारकों के लिए यह प्राथमिकता बन जाती है.
असम में बाढ़ हर साल आती है लेकिन जब राष्ट्रीय स्तर पर विकास पर चर्चा होती है तो यहां के लाखों लोगों के संघर्ष को नजरंदाज कर दिया जाता है. इसे बदलने की जरूरत है.
यही कारण है कि असम में बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की लंबे समय से मांग की जा रही है. लोकसभा में उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018-19, 2019-20 और 2021-22 में असम को एनडीआरएफ के तहत कोई धनराशि जारी नहीं की गई थी. 2020-21 में जब राज्य सरकार ने बहाली कार्य के लिए 2,642.99 करोड़ रुपए मांगे तो सिर्फ 44.37 करोड़ रुपए की सांकेतिक राशि जारी की गई.
राष्ट्रीय स्तर पर असम में बाढ़ पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है. इसके अलावा कटाव की समस्या को तो पूरी तरह अनदेखा कर दिया जाता है. ऐसा साल भर होता रहता है जिसे रोकना संभव नहीं है. नदी के किनारे के कटाव से जमीन का बड़ा हिस्सा जलमग्न हो जाता है और बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित हो जाते हैं. फिर भी केंद्र सरकार न तो पर्याप्त धनराशि आबंटित करती है और न ही व्यापक स्तर पर कोई नीति बनाती है. असम जल संसाधन विभाग का अनुमान है कि नदी के कटाव के कारण लगभग 8,000 हेक्टेयर भूमि का औसत वार्षिक नुकसान होता है जिसकी लागत सैकड़ों करोड़ है.
1954 के बाद से भूमि के कटाव के कारण असम ने 4.3 लाख हेक्टेयर भूमि को गंवा दिया है जोकि राज्य के क्षेत्रफल का 7% है. अगर हिसाब लगाएं तो यह भूमि दिल्ली के आकार से तीन गुना से अधिक है. हाल के बजट सत्र में मैंने केंद्र सरकार से अपील की थी कि राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) के तहत सरकारी सहायता के लिए आपदाओं की सूची में भूमि के कटाव को शामिल किया जाए और समवर्ती सूची के विषयों में बाढ़ नियंत्रण और प्रबंधन, साथ ही भूक्षरणरोधी योजनाओं को जोड़ा जाए. बाढ़ और नदी कटाव को रोकने के उपायों को किसी एक राज्य के सीमित संसाधनों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.
हर साल आने वाली बाढ़ की आर्थिक लागत बहुत अधिक है
असम में कृषि भूमि का एक बड़ा हिस्सा वर्षा पर निर्भर है. इसके चलते राज्य में जीवन और आजीविका, दोनों के लिए मानसून बहुत जरूरी है. बारिश के कारण इस इलाके के बाढ़ के मैदानों का पारिस्थितिकी तंत्र बरकरार रहता है और यहां की समृद्ध जैव विविधता को पोषित करता है. असम भारत में धान के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है, और अगले चक्र की फसल के लिए खाली जमीन को फिर से नया जीवन देने के लिए बाढ़ जरूरी भी है. लेकिन इससे लोगों को बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है. बड़ा विनाश होता है. जिंदगियां खत्म हो जाती हैं. बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित होते हैं. घर, सड़कें, पुल सब नष्ट हो जाते हैं.
असम की भौगोलिक स्थिति कटोरे के आकार वाली है. इसकी वजह से इस इलाके में होने वाली मूसलाधार बारिश का दंश असम को झेलना पड़ता है. पूर्वोत्तर राज्यों में होने वाली बारिश इसके मैदानी इलाकों में जमा होती जाती है, और ब्रह्मपुत्र नदी भी उफनती जाती है.
हालांकि असली तकलीफ इस सच्चाई में छिपी है कि इस समस्या के बारंबार सिर उठाने के बावजूद तुरत फुरत इलाज कर छुट्टी पा ली जाती है. जबकि इस समस्या से निजात पाने के लिए एक अधिक टिकाऊ और दीर्घकालीन निवारण की जरूरत है. दरअसल राज्य के विचित्र भूगोल, अनियोजित विकास की बढ़ती रफ्तार और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर ने इस समस्या को जटिल बनाया है और इसीलिए तत्काल नहीं, सोच-समझकर कार्रवाई करने की जरूरत है.
संसद के आगामी मानसून सत्र में सभी राजनैतिक दलों और राज्यों के सांसदों को असम में बाढ़ और कटाव के लिए पहल करने की मांग उठानी चाहिए. असम के 40% क्षेत्र (32 लाख हेक्टेयर के करीब) पर बाढ़ का जोखिम है, जबकि देश में इसका स्तर 10.2% है. यानी असम में बाढ़ का जोखिम पूरे देश की तुलना में चार गुना अधिक है. असम में जल से जुड़ी आपदाओं का मुद्दा इतना गंभीर है कि इसे क्षेत्रीय मांग नहीं माना जा सकता, और न ही इसे पक्षपातपूर्ण कहकर ठुकराया जा सकता है.
जबकि राहत और पुनर्वास अपने आप में महत्वपूर्ण है, नीति निर्माताओं के रूप में हमारे लिए यह खास तौर से जरूरी है कि उन कामचलाऊ उपायों से परे जाकर देखा जाए जिन्हें हमारी चुनाव प्रणाली ने हमें उपहारस्वरूप दिया है. राज्य हर साल नई-नई समस्याओं से निपटते हैं और इसमें समय, धन और मानव संसाधन सभी का नुकसान होता है. इसका असर उन विकासपरक गतिविधियों पर पड़ता है जो जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकती हैं.
प्रकृति की सीमा बनाम मानव की अभिलाषा
यह भी एक सवाल है कि हम नीति निर्धारकों के तौर पर, लोगों की अभिलाषाओं और प्रकृति की सीमाओं के बीच कैसे तालमेल बैठाते हैं. इसका हल निकालना आसान नहीं है, और हम आज जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों का चरम रूप देख रहे हैं. इस लिहाज से एक व्यापक और प्रगतिशील नीति की जरूरत महसूस होती है, जोकि यह समझे कि बाढ़ और भूक्षरण के परिणामस्वरूप विस्थापन का असल कारण जलवायु परिवर्तन है. और प्रभावित समुदायों के अधिकारों की रक्षा का प्रयास करे.
यह देखते हुए कि भारत में एक तरफ बाढ़ है और दूसरी तरफ जल का संकट. इसीलिए यह भी फायदेमंद होगा कि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध मीठे पानी के स्रोतों को दूसरे इलाकों में समान रूप से वितरित करने के लिए ट्रांस-बेसिन पाइपलाइन्स की संभावनाओं पर काम किया जाए.
इस समय पूर्वोत्तर में विशाल जल संसाधनों का पूरा उपयोग नहीं हो पाता और हर साल वह बंगाल की खाड़ी में बह जाता है. इसके लिए ज्ञान, अनुसंधान और इनोवेशन तो उपलब्ध है लेकिन राजनैतिक इच्छा शक्ति नहीं है. हां, इसके लिए यह भी जरूरी है कि बाढ़ को रोकने और उसे अपने अनुकूल बनाने की रणनीतियों में मौजूदा अनुसंधानों के अलावा स्थानीय समुदायों की परंपराओं को भी शामिल किया जाए. प्रभावित समुदायों की भलाई के लिए यह दोनों महत्वपूर्ण हैं.
लेकिन इसकी शुरुआत तभी होगी जब सरकारें देश को सिर्फ राजधानी और उत्तर भारत के मानचित्र से परे जाकर देखेंगी. बेशक, बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे असम को भी पहचान मिलनी जरूरी है.
(प्रद्युत बोरदोलोई नौगांव से कांग्रेस के लोकसभा सांसद हैं और तीन बार कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं. इविता रॉड्रिग्स सांसद बोरदोलोई के कार्यालय से संबंधित स्वानीति इनीशिएटिव में एसोसिएसट है. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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