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गांधीजी की हत्‍या हिंदूवादी ताकतों के लिए आज भी परेशानी का सबब

नाथूराम गोडसे सिरफिरे कातिल की तरह ये मानता था कि गांधीजी की हत्या कर वो देश सेवा कर रहा है 

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गांधीजी की हत्या हुए 69 साल हो चुके हैं. उनके हत्यारों को सजा भी मिल चुकी है. नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी और बाकियों को आजीवन कारावास. विनायक दामोदर सावरकर बाइज्‍जत बरी हुए. कायदे से ये मामला खत्म मान लिया जाना चाहिए. पर विवाद बार-बार खड़ा हो जाता है.

इस मामले की जांच नये सिरे से हो भी चुकी है. कपूर कमीशन की जांच की रिपोर्ट पड़ी है, जिसमें एक बार फिर आरएसएस और सावरकर पर उंगली उठी. ये मामला बहुत पहले खत्म हो जाता पर आरएसएस और सावरकर का नाम आने से विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा.

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अब इस विवाद को नये सिरे से जिंदा करने के लिये सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है. नये सबूतों का हवाला दिया गया है. इशारों-इशारों में ये बात कहने का प्रयास हुआ है कि हो सकता है गांधीजी की हत्या उन लोगों ने न की हो, जिन पर आरोप लगे या जिनको सजा मिली.

एक सज्जन हैं पंकज फडनीस. विवादित संगठन अभिनव भारत से जुड़े और खुद को सावरकर का अनुयायी मानते हैं. जगजाहिर है कि गांधीजी पर तीन गोलियां दागी गई थीं. इनमें दो गोली उनके शरीर को छलनी करते हुये बाहर निकल गई और तीसरी गोली शरीर में ही फंसी रह गई. गांधीजी की अंत्येष्टि के बाद ये तीसरी गोली उनकी राख से बरामद हुई.

पंकज फडनीस का कहना है कि एक चौथी गोली भी थी. एक और शख्‍स उस वक्‍त मौके पर मौजूद था. हो सकता है कि गांधीजी की मौत इस चौथी गोली से हुई हो. उनका तर्क नया है.

पंकज फडनीस कहते हैं कि हत्या के पीछे ब्रिटिश गुप्तचर संस्था फोर्स 136 का हाथ हो, क्योंकि ब्रिटेन नहीं चाहता था कि गांधीजी विभाजन के बाद पाकिस्तान जाएं और जिन्ना से मिलें. उसे ये डर था कि इससे उनका कोई राज खुल सकता है. पंकज ये भी कहते हैं कि उस वक्‍त मौके पर एक अमेरिकी अधिकारी हरबर्ट रैनर भी मौजूद था, जिसने गोडसे और आप्टे को पकड़ने में मदद की.

पंकज का सवाल है कि क्या अमेरिकी संस्था वहां गांधीजी को बचाने के लिये मौजूद थी, अगर ऐसा था, तो फिर क्यों? क्या उन्हें कोई जानकारी पहले से उपलब्ध थी, जो अब सामने आनी चाहिये? उनका कहना है कि अमेरिकी सरकार के पास इस बाबत उनकी पिटीशन पर अभी फैसला आना बाकी है.

सुप्रीम कोर्ट ने पंकज की याचिका स्वीकार कर वकील अमरिंदर शरण से गुजारिश की है वो जांच कर बताये कि क्या गांधी हत्या की फिर से जांच की कोई गुंजाइश बनती है या नहीं. अदालत क्या कहती है, वो तो अदालत जाने.

लेकिन ये सर्वविदित है कि गांधी की हत्या से हिंदुत्ववादियों के जुड़े होने से हिंदुत्ववादी ताकतों को बार-बार तकलीफ उठानी पड़ती है. ये उनके लिये भारी एंबरेसमेंट का सबब है और उनकी साख पर बट्टा लगाता रहता है. नई पीढ़ी को ये सच पता न चले, इसके उपाय लगातार होते रहते हैं.

पंकज फडनीस का अवतार इसी कड़ी से जुड़ा हो सकता है, क्योंकि उनकी दलील गले नहीं उतरती. उसका सारा तर्क चौथी गोली के सिद्धांत पर अटका है. जानकारों का मानना है कि ऐसी गोली कभी बरामद ही नहीं की गई. गोडसे ने भी अदालत में माना था कि गोली उसने चलाई थी और गांधीजी को मारने के ध्येय से ही उसने गोली चलाई. गोडसे के बयान के बाद पंकज के पिटीशन या फिर शक की गुंजाइश कहां रहती है.

गांधी की हत्या के बाद आरोपियों और गवाहों के बयान 8 नवंबर 1948 से 22 नवंबर 1948 के बीच रिकॉर्ड किए गए. 1 दिसंबर 1948 को अदालत में जिरह शुरू हुई. नाथूराम गोडसे ने वकील लेने से मना कर दिया और अपना पक्ष खुद रखा. गोडसे के भाई गोपाल गोडसे को भी इस मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई थी. उन्होंने बाद में अपनी किताब 'मैंने गांधी को क्यों मारा- नाथूराम गोडसे', में लिखा कि गोडसे ने अदालत को बताया कि उसकी पिस्टल से दो गोली निकली थी. हालांकि मेडिकल रिपोर्ट में तीन गोली का जिक्र है.

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जब सीके दफ्तरी, जो सरकारी वकील थे, ने कहा कि दो गोली की बात कहकर गोडसे अदालत को गुमराह करना चाहते हैं, ताकि संदेह का लाभ मिले और वो बच जाएं. गोडसे ने फौरन प्रतिवाद किया, "पिस्टल ऑटोमेटिक थी. ट्रिगर एक बार दबाई गई थी. मेरे लिये इसका कोई अर्थ नहीं है कि गोली दो निकली या तीन. एक गोली ही काफी थी और वो एक गोली मैंने चलाई थी." फिर गोडसे ने व्यंग्य किया, "अगर दो या तीन गोली के विवाद से कोई संदेह का लाभ मिलता है, तो वो सरकारी पक्ष को ही दे दिया जाए."

गोडसे ने गांधीजी की हत्या क्यों की, इस बारे में विस्तार से अदालत को बताया. गोडसे ने कबूला कि वो गांधीजी का सम्मान करते थे. वो कहता है: “मैं ये मानने के लिये तैयार हूं कि गांधीजी ने देश के लिए काफी परेशानी झेली. उन्होंने देश में लोगों में जागृति फैलाने में अहम भूमिका अदा की. उन्होंने निजी स्वार्थ के लिये कुछ नहीं किया, पर उन्होंने ईमानदारी से ये नहीं स्वीकारा कि अहिंसा के सिद्धांत के मसले पर हर तरफ से उन्हें हार का सामना करना पड़ा....’’

नाथूराम आगे कहता है, ''आजादी की लड़ाई में बहुत लोगों ने गांधीजी से ज्‍यादा योगदान किया है, फिर भी देश की सेवा के लिये किये गये उनके कामों के प्रति मेरा सिर सम्मान में झुकता है. उन पर गोली चलाने के पहले उनके सम्मान में मैंने सिर झुकाया था. लेकिन गांधीजी को देश का बंटवारा करवाने का कोई हक नहीं था. कानूनी तरीके से ऐसे अभियुक्त को सजा नहीं दी जा सकती थी, इसलिये मैंने उन पर गोलियां चलाईं. मेरे पास और कोई उपाय नहीं था. अगर ये काम मेरे द्वारा नहीं होता, तो मेरे लिये बेहतर होता. पर परिस्थितियां मुझ से परे थी."

गोडसे के बयान से साफ है कि उसने जो भी किया, सोच-समझ कर किया. उसे अपने किये पर कतई पछतावा नहीं था. वो जानता था कि वो क्या कर रहा है और उसका क्या अंजाम होगा. अदालत में अपनी दलील के पैरा 136 में वो कहता है कि अगर देश के प्रति भक्ति पाप है, तो मैं मानता हूं कि मैंने पाप किया है. मैंने ये काम सिर्फ मानवता के लिये किया. मैंने उस शख्‍स पर गोली चलाई, जिसकी नीतियों और कार्यकलापों की वजह से लाखों हिंदुओं की जानें गईं."

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पैरा 137 में वो कहता है: "मैं हकीकत बयान कर रहा हूं कि गांधीजी पर गोली चलाते ही मेरी जिंदगी का भी अंत हो गया." उसके बयान से साफ है:

1. गोली उसने चलाई

2. गोली गांधीजी को डराने के लिये नहीं, उन्हें मारने के लिये चलाई

3. गोली उसने सोच-समझकर चलाई

4. उसके मन में गोली चलाने का कारण था

5. वो मानता था कि गांधीजी को मारने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था

6. उसे मालूम था कि कत्‍ल के बाद उसे फांसी ही होगी

7. उसके मन में कोई पछतावा नहीं था

8. सिरफिरे कातिल की तरह वो ये मानता था कि गांधीजी की हत्या कर वो देश सेवा कर रहा है

क्या अब भी किसी शक की गुंजाइश बचती है? कातिल खुद मान रहा है. गोडसे कोई अनपढ़ जाहिल इंसान नहीं था. वो मूर्ख नहीं था, पढ़ा-लिखा था. एक अखबार का संपादक था. ये भी सच है कि वो कभी आरएसएस का सदस्य था. पर बाद में ये दावा किया गया कि वो संगठन छोड़कर बाहर आ गया था और सावरकर से प्रभावित होकर उसने हिंदू महासभा ज्वाइन की थी. सावरकर से उसके रिश्ते में कोई शक नहीं है.

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‘द मैन हू किल्ड गांधी’ किताब के लेखक मनोहर मलगांवकर लिखते हैं कि जवानी में सावरकर से मिलने के बाद गोडसे की जिंदगी बदल गई. आज के सोशल मीडिया के संदर्भ में कह सकते हैं कि वो सावरकर का अनन्य भक्त था.

गांधी हत्याकांड में सरकारी गवाह बने दिगंबर बडगे के मुताबिक गांधीजी की हत्या पर जाने से पहले वो सावरकर से मिलने गया था और उनसे आशीर्वाद भी लिया था. सावरकर ने चलते-चलते कहा था, यशस्वी हून हो- यानी कामयाब होकर लौटो. सावरकर को गांधी हत्या की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. हालांकि तकनीकी कारणों से वो अदालत से बाइज्‍जत बरी हो गये थे, पर ताउम्र ये दाग उन पर लगा रहा. यहां तक कि गांधी हत्या की जांच के लिये 1966 में बने कपूर कमीशन ने भी उन पर शक जाहिर किया था.

आज देश में हिन्दुत्ववादी ताकतों का बोलबाला है. तमाम कोशिश के बाद भी ये ताकतें गांधीजी को जनता के मानस से दूर नहीं कर पायी. अब वो बापू को अपनाने के लिये मजबूर है. हालांकि आज भी गोडसे को देशभक्त बताने वाली ताकतें जिंदा हैं और कहते भी हैं पर जनता के दिल में बापू बसते हैं. बापू आज भी राष्ट्रपिता हैं और राष्ट्रपिता की हत्या का आरोप इन ताकतों के मत्थे पर एक नैतिक कलंक है.

इस कलंक को दूर करने का प्रयास है मौजूदा याचिका. साथ ही साथ नई पीढ़ी को गुमराह और भ्रमित करने की एक कोशिश भी. अदालत के प्रति पूरे सम्मान के साथ कहना चाहता हूं कि ये कोशिश कामयाब नहीं होगी, ये मेरा अटल विश्वास है.

(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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