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अतीक अहमद के मर्डर पर दो सवाल: एक पुलिस वालों के लिए और दूसरा नेताओं के लिए

Atiq Ahmed Murder: यह मामला इतना पेचीदा है कि इसकी जांच सतही तौर पर नहीं की जा सकती है.

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एक विशाल पुलिस फोर्स, प्रेस और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मौजूदगी में गैंगस्टर अतीक अहमद (Atique Ahmed) और उसके भाई अशरफ की गोलियों से भूनकर हत्या हो गयी. यह सुरक्षा से जुड़े सवालों को फिर से सुर्खियों में लाती है- क्योंकि सुरक्षा एक ऐसा कानूनी अधिकार था, जिसके दोनों मृतक हकदार थे.

दोनों भाई कोर्ट के आदेश के कारण पुलिस रिमांड में थे. ऐसे में मान लेते हैं कि जिस थाने में उनसे पूछताछ की जा रही थी, वहां सुरक्षा मुहैया कराई गई थी और अवांछित (अनवांटेड) तत्वों को दूर रखने के लिए प्रभावी अवरोधक मौजूद थे. फिर यह चूक कैसे हो गयी? इसका जवाब खोजना मुश्किल है.

अतीक और अशरफ को हथकड़ी लगाई गई थी- संभवत: अदालत से उचित अनुमति लेकर और डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल मामले में निर्धारित मानक संचालन प्रक्रियाओं का पालन करते हुए.

पुलिस वालों के लिए सवाल: वे अपनी नाक के नीचे यह कैसे होने दे सकते हैं?

पहला सवाल उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए है: उन्होंने फुलप्रूफ और फेल-प्रूफ सुरक्षा सुनिश्चित क्यों नहीं की, जो वे देने लिए बाध्य थे?

अतीक और अशरफ को प्रेस से मिलने और प्रेस को संबोधित करने की अनुमति क्यों दी गई, जबकि वे मेडिकल जांच के लिए गए थे, खासकर जब प्रयागराज के मेडिकल कॉलेज के परिसर में कड़ी सुरक्षा नदारद थी. जो तीन आदमी मीडियाकर्मी बनकर आए और कनपटी पर बंदूक रखकर गोली चलाई, उन्हें अतीक और अशरफ के पास जाने के दौरान ही रोका या मारा क्यों नहीं किया गया?

तीनों शूटर्स ने तुरंत सरेंडर कर दिया. उनके हथियार और खाली कारतूस बरामद कर लिये गए. वे भारी क्षमता वाली जीगॉन तुर्की पिस्तौल ले जा रहे थे, जिसमें 15-शॉट मैगजीन थी- ये यूएस कोस्ट गार्ड और फिलीपींस और मलेशिया में पुलिस का एक प्रमुख हथियार है.

पूरी घटना की जांच के लिए गठित तीन सदस्यीय हाई लेवल कमेटी का उस समय तक कोई मतलब नहीं है, जब तक कि ऐसी कार्रवाई नहीं की जाती है जो उदाहरण बने- खासकर पुलिस विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ, जो अतीक और अशरफ की सुरक्षा के जिम्मेदार थे.

यह भी बताया गया है कि तीन हमलावरों में से एक नशेड़ी है और दूसरा नामी गैंगस्टर सुंदर भाटी से जुड़ा है. वे एक ऐसे समृद्ध परिवार से ताल्लुक नहीं रखते हैं, जो ऐसे हथियार खरीद सकें जो स्पेशल और महंगे दोनों हैं. यहां तक कि उसके पास से मिले दोपहिया वाहन और फर्जी प्रेस आईडी भी महंगे हैं. यह दूसरे प्रश्न की ओर ले जाता है कि कौन उन्हें आर्थिक रूप से मदद कर रहा है?

नेताओं के लिए सवाल: हत्या से किसको लाभ होगा ?

इन दो गैंगस्टरों की हत्या से किसे फायदा होगा? लोगों को क्या संदेश दिया जा रहा है? जब मैं संदेश कहता हूं तो मेरा मतलब 'जय श्री राम' के उन नारों से भी है जो हत्या के बाद लगाए गए थे.

बैकग्राउंड और उसके असर से भी इंकार नहीं किया जा सकता है. हो सकता है कि अतीक ने उत्तर प्रदेश में निवेश करने वाले कुछ राजनेताओं और बिल्डरों के पास अपना पैसा जमा किया हो. वह जाहिर तौर पर पंजाब के कुछ बंदूकधारियों के संपर्क में था, जिन्हें पाकिस्तान और ISI से हथियार और ड्रोन मिले थे.

अतीक द्वारा लश्कर-ए-तैयबा (LeT) के आतंकवादी हाफिज सईद के साथ अपने संबंधों को कबूल करने और हथियारों की तस्करी, मीडिया रिपोर्टों के बाद शायद उन्हें इस बारे में सूचना मिल गई होगी कि NIA इस मामले की जांच कर सकती है.

संयोग से, अतीक और अशरफ को मारने के लिए इस्तेमाल की गई पिस्तौल का इस्तेमाल पंजाब में सिद्धू मूसेवाला (Sidhu Moosewala) की हत्या में भी किया गया था.
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जाहिर है, यह मामला इतना पेचीदा है कि इसकी जांच सतही तौर पर नहीं की जा सकती है और इस बात को ध्यान में रखते हुए एक गहन जांच की जरूरत है कि क्या सांप्रदायिक उन्माद भड़काने की कोशिश थी, या फिर हत्या की मदद से किसी और कांड को छुपाया जा रहा है?

ये स्थिति बता रही है कि अतीक और अशरफ की मौत चाहने वालों के पास मकसद की कमी नहीं थी. तीनों हमलावरों ने दावा किया कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर के रूप में अपना नाम और प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए ही हत्याएं कीं. कम से कम कहने के लिए यह ऐसा दावा है जो आसानी से हजम नहीं होता.

हत्यारों के कृत्य और मानसिक बनावट की तैयारी एक बड़े रहस्य की ओर इशारा करती है जो केवल एक कड़ी पुलिस जांच के बाद ही सामने आ सकती है.

उम्मीद की जा सकती है कि जिन लोगों ने सुरक्षा चूक में सहयोग किया, जिसके कारण ये हत्याएं हुईं, उन पर ऐसी कार्रवाई की जाएगी, जो नजीर बने. तीनों अभियुक्तों से उन सभी वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करते हुए गहन पूछताछ की जानी चाहिए जो जांच दल के लिए उपलब्ध हैं, जैसे नार्को टेस्ट और लाई डिटेक्टर टेस्ट. राज्य में व्यापारियों, राजनेताओं और अपराधियों के पूरे गठजोड़ को उजागर करने की जरूरत है.

(डॉ विक्रम सिंह एक भारतीय शिक्षाविद् और रिटार्यड आईपीएस अधिकारी हैं. वह 1974 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं. सिंह जून 2007 से सितंबर 2009 तक यूपी के डीजीपी के पद पर रहे थे. यह एक ओपिनियन पीस है, और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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