मैं उस टीम का हिस्सा हूं, जिसने 65वें नेशनल फिल्म अवॉर्ड में एजुकेशन की कैटेगिरी में बेस्ट फिल्म का खिताब जीता.
हमारी फिल्म है The Little Girls We Were... And the Women We Are. इस पर राही फाउंडेशन ने सालों मेहनत की है. उस क्षेत्र पर काम किया है, जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता - बाल यौन शोषण.
हम जब आसिफा जैसे नेशनल लेवल के मामलों पर भी बात करते हैं, तो उसके इर्द-गिर्द हो रही राजनीति की बात करते हैं. इस तरह के विषयों पर हम सहजता से बात नहीं करते. चुप हो जाओ, इसके बारे में बात मत करो और इसे पड़े रहने दो, क्योंकि इस पर बात करना मतलब जैसा ये सही में हो रहा हो.
लेकिन देश की पांच बहादुर महिला कैमरे के सामने (बिना चेहरा छुपाए) आती हैं और इसके बारे में बात करती हैं. राही ने बाल यौन शोषण पर काम किया है और बच्चों को उनका दर्द दूर करने में मदद की है.
हमने अवॉर्ड लेने और समारोह में जाने का फैसला किया, क्योंकि हममें से चार का पहचाना जाना जरूरी था, जिन्होंने उस काम को चुना, जिस पर कोई बात नहीं करता.
लेकिन क्या मैंने व्यक्तिगत तौर पर खुद के साथ धोखा महसूस किया? हां.
क्या मैंने व्यक्तिगत तौर मुझे ये महसूस किया कि मुझे सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने गुमराह किया? हां.
क्या मैं उन लोगों के साथ खड़ी हो पाई, जिन्होंने इसके खिलाफ एक लड़ाई लड़ी? हां.
13 अप्रैल को नेशनल फिल्म अवॉर्ड के विजेताओं का ऐलान हुआ था. फिल्म निदेशालय से जो मेल आया, उसमें साफ था कि भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अवॉर्ड देंगे.
ये है अवॉर्ड दिए जाने का न्योता.
न्यूजपेपर के विज्ञापन में भी यही लिखा था कि राष्ट्रपति अवॉर्ड देंगे.
बाद में पता चला, क्या हुआ...
जिनको अवॉर्ड दिया जाना था, वो 2 मई को विज्ञान भवन में रिहर्सल के लिए इकट्ठे हुए. इसके बाद जो हुआ, उससे हमें निराशा हुई. फिल्म निदेशालय के अतिरिक्त महानिदेशक ने घोषणा की कि राष्ट्रपति केवल 11 पुरस्कार पेश करेंगे. ये तो 64 साल से चल रहे प्रोटोकॉल को तोड़ा गया था. राष्ट्रपति ही सारे अवॉर्ड देते हैं, तो इस साल बदलाव क्यों? अगर सब बराबर हैं, तो ये भेदभाव क्यों?
सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी को निराश लोगों को शांत कराने के लिए बुलाया गया था. उन्होंने हमें बताया कि राष्ट्रपति समारोह में केवल एक घंटा ही रहेंगे. वो विनम्र थीं और अवॉर्ड मिलने वाले भी उतने ही विनम्र थे. उन्होंने कहा कि कुछ नहीं हो सकता, तब अवॉर्ड पाने वालों ने कहा कि वो बॉयकॉट करेंगे. इस पर उन्होंने कहा कि वो राष्ट्रपति कार्यालय में ये मामला उठाएंगी. इस पर अवॉर्ड पाने वालों ने उन्हें एक अवसर दे दिया.
लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्री से मेरे कुछ सवाल हैं:
क्या आपको शुरू से ये नहीं पता था कि राष्ट्रपति के पास कम समय है? अगर हां, तो अवॉर्ड लेने वालों से ये क्यों छुपाया गया? उनको आखिरी समय पर किनारे क्यों किया गया? क्या ये जानबूझकर गुमराह करना नहीं था?
राष्ट्रपति के प्रेस ऑफिस से और भी निराश करने वाला जवाब आया. उनको इस बात पर हैरानी हो रही थी कि इस बात पर हंगामा क्यों मचा हुआ है कि राष्ट्रपति एक घंटे से ज्यादा समारोह में भाग नहीं लेंगे.
यहां कुछ और सवाल प्रेस ऑफिस के लिए भी हैं:
क्या राष्ट्रपति के प्रेस ऑफिस में इनवाइट नहीं गया था? क्या अखबारों में छपने वाला विज्ञापन राष्ट्रपति के प्रेस ऑफिस से होकर नहीं गया था? क्या प्रेस ऑफिस को सालों से चले आ रहे प्रोटोकॉल के बारे में जानकारी नहीं थी? तो क्यों जानबूझकर अवॉर्ड पाने वालों को राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कार पाने के काबिल नहीं समझा गया?
इतनी निराशा क्यों?
इंडस्ट्री में काम करने वाले सैकड़ों लोगों के लिए अवॉर्ड पाना मतलब आखिरकार पहचान मिलना होता है. ऐसे देश में जहां अवॉर्ड खरीदे और बेचे जाते हैं, वहां नेशनल अवॉर्ड ही ऐसा ईमानदारी वाला अवॉर्ड है, जो हुनर को पहचान दिलाता है. ये एक अवसर होता है, जहां खुद राष्ट्रपति से रीजनल सिनेमा, डॉक्यूमेंट्री और स्वतंत्र फिल्ममेकर्स को पहचान मिलती है. इसलिए तमाम अवॉर्ड पाने वाले बुधवार को दिल्ली पहुंचे थे.
मंत्रालय अवॉर्ड पाने वाले का फ्लाइट और ठहरने का खर्चा देता है. लेकिन अवॉर्ड पाने वाले को इसके अलावा भी अपनी व्यवस्था खुद करनी पड़ती है. एक फिल्ममेकर ने मुझे बताया कि उन्होंने 40,000 रुपये खर्च करके अपने परिवार को बुलाया, ताकि उनकी बेटी राष्ट्रपति से सम्मान मिलते हुए देख सके.
नहीं सर, आप किसी की भावनाओं और उसके काम को इस तरह खारिज नहीं कर सकते कि छोड़ो जाने दो.
ज्यादातर अवॉर्ड पाने वाले सेंट्रल दिल्ली के अशोका होटल में ठहरे थे और अवॉर्ड वाले दिन सुबह उन्होंने फैसला कि अपनी निराशा जाहिर करने के लिए वो एक खत लिखेंगे. वो अवॉर्ड को नहीं, सिर्फ समारोह को नकार रहे थे. करीब 70 लोगों ने इस पर साइन किए. उनको आखिरी वक्त तक लग रहा था कि मंत्रालय या राष्ट्रपति कार्यालय उनकी इस शिकायत पर गौर करेगा. लेकिन जाहिर है, ऐसा नहीं हुआ.
जूरी हेड शेखर कपूर को समझाने के लिए भेजा गया था, कुछ लोग मान गए, लेकिन फिर भी 50 लोग नहीं माने.
समारोह में क्या हुआ?
मैंने उन लोगों से बात कि जिन्होंने खत पर साइन किया था, लेकिन फिर भी समारोह में पहुंचे. इनमें से ज्यादा नौजवान स्वतंत्र फिल्ममेकर्स थे, जिनको अपनी कला पेश करने के लिए कई सरकारी संस्थाओं से फंड मिलता है. वो इस पल के बारे में सोचते हुए रात को ठीक से सोए भी नहीं.
जब हम समारोह पर पहुंचे और वहां बैठे तो करीब आधी सीटें खाली थीं. जिन्होंने खत पर साइन किए थे और आए नहीं थे, ऑर्गनाइजर ने उनकी नेमप्लेट टेबल पर लेटा कर रख दी. ये बहुत ही उदास करने वाला पल था. इन लोगों को नेशनल अवॉर्ड मिलने वाला था, करियर का सबसे बड़ा सम्मान. लेकिन अब इनकी नेमप्लेट टेबल पर पड़ी थी और आखिर में फर्श पर.
वॉलंटियर्स खाली सीटों को भरने के लिए आगे आए. ये कुछ खट्टा-मीठा समारोह था. हमने खुशी के साथ अवॉर्ड लिया, लेकिन इसमें एक उदासी भी थी. जिन्होंने अवॉर्ड समारोह का बॉयकॉट किया, उनको लोगों ने ट्रोल किया. ‘अवॉर्ड वापसी गैंग’ या ‘ड्रामेबाज’ ऐसे ही कई नामों से. लेकिन उन्हें आइडिया नहीं कि इसके लिए कितनी हिम्मत चाहिए होती है, जो हममें से कइयों के पास नहीं है.
समारोह में हमें स्पेशल महसूस कराया जाना चाहिए था, लेकिन हमें ऐसा महसूस कराया गया कि हम कोई मायने नहीं रखते.
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