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बाबूलाल मरांडी की वापसी से क्या बदलेगी झारखंड बीजेपी की तस्वीर?

मरांडी बीजेपी में रहते हुए संगठन से लेकर सत्ता और सियासत की सारी बागडोर संभाल रहे थे.

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बाबूलाल मरांडी सत्ता और सियासत के मंझे हुए राजनेता है. मरांडी ने एक बार फिर 14 साल बाद बीजेपी में वापसी की है. साथ ही अपनी पार्टी जेवीएम का विलय बीजेपी में कर दिया है. मरांडी के इस फैसले के बाद सियासत में कई मायने निकाले जा रहे हैं. कोई इसे बाबूलाल की मजबूरी कह रहा तो वहीं, इसे बीजेपी की जरूरत के रूप में भी देखा जा रहा है. हालांकि, ये तय माना जा रहा है कि झारखंड बीजेपी की तस्वीर बदल जाएगी.

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बाबूलाल मरांडी बीजेपी के दिग्गज नेता रह चुके हैं. एक समय था जब वे बीजेपी में रहते हुए संगठन से लेकर सत्ता और सियासत की सारी बागडोर संभाल रहे थे. हालांकि, उन्हें कई मौकों पर शिकस्त मिली लेकिन वह आगे बढ़ते गए.

मरांडी साल 1998 में झारखंड बीजेपी के अध्यक्ष बनाए गए थे. हालांकि, इससे पहले उन्हें दो बार लोकसभा चुनाव में शिकस्त मिली थी. लेकिन उनके नेतृत्व में विधानसभा की 14 में से 12 सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी.

बीजेपी को मरांडी की जरूरत

माना जा रहा है कि बाबूलाल मरांडी एक बार फिर बीजेपी के तारणहार बनेंगे. एक समय था जब उन्होंने संगठन को संभाला था और पार्टी को तेजी से आगे बढ़ाया था. अब फिर से बीजेपी में ऐसी स्थिति आ गई है कि झारखंड में पार्टी को नेतृत्व करनेवाला कोई नजर नहीं आ रहा है. ये इस बात से पता चलता है कि झारखंड में करीब 3 महीने पहले नई सरकार बन चुकी है और बीजेपी न ही सदन में अपना नेता चुन सकी है और न ही पार्टी प्रदेश अध्यक्ष चुन पाई है.

माना जा रहा है कि बीजेपी शायद बाबूलाल मरांडी के इंतजार में थी अब जब वह बीजेपी में वापस आ गए हैं तो उन्हें अब महत्वपूर्ण पद और बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है.
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बीजेपी ने क्यों लगाया है मरांडी पर दांव?

झारखंड में बीजेपी को बेहतर नेतृत्व की जरूरत है. ऐसे में मरांडी बीजेपी के लिए सबसे अच्छा विकल्प हैं. वे पहले भी संगठन को संभाल चुके हैं. साथ ही वे बीजेपी के खोए हुए वोट बैंक हो सकते हैं. मरांडी की आदिवासियों के बड़े नेता के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पकड़ संथाल क्षेत्र में है. हालांकि, बीजेपी में अर्जुन मुंडा भी आदिवासी नेता के रूप में हैं लेकिन वे कोल्हान क्षेत्र में अपनी पकड़ रखते हैं. ऐसे में बीजपी के पास संथाल क्षेत्र को साधने के लिए एक नेता मिलेगा.

बाबूलाल मरांडी ने 1998 में संथाल क्षेत्र में ही लोकसभा चुनाव शिबू सोरेन को हराया था, जिसके बाद उन्हें केंद्रीय कैबिनेट में जगह दी गई थी. साल 2004 लोकसभा चुनाव में मरांडी एक मात्र बीजेपी के उम्मीदवार थे जिन्होंने झारखंड में जीत दर्ज की थी.

क्या बाबूलाल को है बीजेपी की जरूरत?

बाबूलाल मरांडी की पार्टी को काफी समय से नुकसान झेलना पड़ रहा है. हालांकि, उनकी पार्टी जेवीएम ने अच्छा आगाज किया था लेकिन समय बीतने के बाद पार्टी को अपने अस्तित्व की चिंता सताने लगी. 2014 विधानसभा चुनाव में 8 सीटों पर जीत दर्ज की थी लेकिन बाद में उनके 6 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए. इससे पार्टी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा. वहीं 2019 के विधानसभा चुनाव में भी महज तीन सीट जीतने में पार्टी सफल हुई लेकिन दो विधायकों ने मरांडी से ही बगावत कर ली. इससे पहले लोकसभा चुनाव में भी महागठबंधन में उन्हें एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई.

लोकसभा चुनाव 2019 के बाद ही मरांडी ने पार्टी की इस स्थिति को भांप लिया था. इसलिए विधानसभा चुनाव के दौरान वे बीजेपी में वापसी का विकल्प तलाश रहे थे. वहीं, बीजेपी ने भी उन्हें वापसी का निमंत्रण दिया. हालांकि, चुनाव के दौरान उन्होंने गठबंधन नहीं किया था लेकिन उन्होंने चुनाव के बाद समर्थन देने का मन बना लिया था. उन्हें शायद ऐसा लगा था कि वह सरकार बनाने के वक्त इसका सही इस्तेमाल करेंगे लेकिन उन्हें ऐसा मौका नहीं मिला.

चुनाव में बीजेपी को महज 29 सीट मिल पाई और जेवीएम ने भी मात्र 4 सीट पर जीत दर्ज की. ऐसे में 81 सीट वाली झारखंड में 41 सीटों का जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंच सकी.

बहरहाल, बाबूलाल मरांडी की नई पारी के साथ ही झारखंड बीजेपी समेत प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर में बड़ा उल्टफेर देखने को मिलेगा.

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