यह खबर दुखद है कि सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात में 2002 के दो नरसंहारों के 31 दोषियों को जमानत दे दी है. इन नरसंहारों में मुसलमानों को क्रूरता से जिंदा जलाया गया था. यह जमानत सशर्त है. दोषियों को गुजरात नहीं, मध्य प्रदेश में रहकर सामाजिक सेवा करनी होगी. इसके लिए मध्य प्रदेश प्रशासन को यह काम सौंपा गया है कि वह इन दोषियों को काम दे. मानवाधिकार कार्यकर्ता इस फैसले से नाखुश हैं.
हत्याएं जब वांछनीय बन जाएं तो ऐसे फैसले मन तोड़ते हैं. इसी फैसले के साथ यह बात उठनी लाजमी है कि धार्मिक नरसंहारों या भीड़ की हिसा से निपटने के लिए अलग से कानून बनाया जाना चाहिए.
दिल्ली हाईकोर्ट अलग कानून बनाने को कह चुका है
यूं 1984 हिंदू बहुसंख्यकवादी नफरत की पहली परीक्षा थी. उसके बाद आसानी से सिखों के स्थान पर पुराने दुश्मन मुसलमानों को रख दिया गया. जिसे 1989 के भागलपुर से लेकर 2014 के मुजफ्फरनगर तक लगातार देखा गया है. धीरे-धीरे यह नफरत हमारा स्वभाव बन गई और उससे लड़ना कहीं कठिन हो गया. इस लड़ाई को आसान बनाने के लिए एक अलग कानून की भी जरूरत महसूस की गई. पिछले साल दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस जरूरत पर बल दिया था.
1984 की सिख विरोधी हिंसा में कांग्रेस के पूर्व नेता सज्जन कुमार को उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कोर्ट ने कहा था कि ऐसे मामले कई बार देखने को मिले हैं. 1993 में मुंबई से लेकर 2002 में गुजरात तक. खास तौर से राजनीतिक संरक्षण की बात भी कही गई थी.
इस फैसले में जज एस. मुरलीधरन ने न्यूरेमबर्ग ट्रायल का हवाला दिया था. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी के न्यूरेमबर्ग में नाजी सैन्य अधिकारियों और हिटलर के समर्थक नेताओं को मौत की सजा सुनाई गई थी. इसके लिए विशेष कोर्ट का गठन हुआ था. जिन लोगों को मौत की सजा दी गई थी, वे सभी नरसंहारों और दूसरे युद्ध अपराधों के दोषी थे.
हिटलर की जर्मनी में लाखों यहूदियों को मौत के घाट सिर्फ इसलिए उतारा गया था क्योंकि नस्ल के आधार पर उनसे घृणा की जाती थी. न्यायाधीश मुरलीधरन ने इस घटना का हवाला देकर धार्मिक नरसंहारों के खिलाफ कानून बनाने की बात कही थी.
मणिपुर ने बनाया सबसे पहले मॉब लिंचिंग के खिलाफ कानून
हमारे देश में फिलहाल धार्मिक या सांप्रदायिक हिंसा करने पर भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी के अंतर्गत सजा दी जाती है. आईपीसी के अध्याय 8 में लोक शांति को भंग करने के खिलाफ सजा का प्रावधान है. इसकी धारा 147 और धारा 153 ए उपद्रव करने और धर्म, भाषा, नस्ल वगैरह के आधार पर नफरत फैलाने वालों को सजा देती है. हत्या करने पर धारा 302 लगाई जाती है. पर ये बहुत आम कानून हैं. सामूहिक नरसंहार यानी जेनोसाइड के खिलाफ ऐसे कानून लगभग बेसर ही होते हैं.
ऐसा नहीं है कि सरकारों की तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं की गई. 2005 में सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ एक विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया था. इसमें पीड़ितों के पुनर्वास की भी व्यवस्था थी. विधेयक को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया था. समिति ने कहा था कि विधेयक में नरसंहारों को भी शामिल किया जाना चाहिए. लेकिन यह विधेयक पारित नहीं हुआ. 2014 में इसे निरस्त कर दिया गया. इससे पहले 2013 में उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर में मुसलमानों के साथ हिंसा हुई थी.
नेशनल अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का कहना है कि 2014 में विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने वाले 66378 मामले दर्ज हुए. 2015 में 65,679 और 2016 में 62,452 मामले दर्ज किए गए. गृह मामलों के मंत्रालय ने 2017 में संसद में एक तारांकित सवाल के जवाब में कहा गया था कि 2014 में धार्मिक हिंसा के 644, 2015 में 751 और 2016 में 703 मामले हुए थे जिनके कारण 278 लोग मारे गए थे.
इसी तरह मॉब लिंचिंग के खिलाफ मणिपुर, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने कानून बनाए हैं. 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों से ऐसे कानून बनाने को कहा था. 2018 में ही मणिपुर ने इस संबंध में पहले एक अध्यादेश लाया, फिर विधानसभा ने प्रोटेक्शन फ्रॉम मॉब वायलेंस एक्ट पारित किया. इस कानून के टेम्प्लेट के साथ राजस्थान और पश्चिम बंगाल ने भी अपने कानून बनाए. इस सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय ने दिशानिर्देश जारी किए थे और ये कानून उन दिशानिर्देशों के आधार पर बनाए गए थे. पश्चिम बंगाल ने तो मॉब लिचिंग के दोषियों को मौत की सजा देने की भी बात की थी.
बौद्ध धर्म म्यामांर को न सिखा सका, शांति और अहिंसा का पाठ
धार्मिक उन्माद का शिकार एक और देश हुआ है. यह देश है म्यांमार. बौद्ध धर्म वहां लोगों को शांति और अहिंसा का महत्व समझाने में विफल रहा है. वहां रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ वैसी ही नफरत है. जिसके चलते लाखों लोगों को म्यांमार छोड़कर बांग्लादेश, भारत जैसे देशों में शरण लेनी पड़ी है. इस संबंध में गांबिया ने म्यांमार को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में घसीटा. गाम्बिया मुसलिम बहुल देश है और उसका कहना है कि म्यामांर को अपनी बर्बरता पर जवाब देना होगा.
तकलीफदेह यह है कि फौजी हुकूमत से बहादुरी से जिंदगी भर लड़ने वाली आंग सान सू की तक इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं. यह नस्लकुशी ही कही जाएगी, जब किसी का भौतिक निशान मिटाने के साथ-साथ उसकी मौजूदगी के विचार को भी खत्म करने के बारे में सोचा जाए. और असल साहस की पहचान भी तभी होती है जब आप उनके खिलाफ खड़े होते हें जो आपके अपने हैं. इस परीक्षा में सू की भी विफल हुई हैं, और अपने यहां का शीर्ष नेतृत्व भी.
हरिशंकर परसाई ने अपने निबंध आवारा भीड़ के खतरे में चेताया था कि इस भीड़ का उपयोग लोकतंत्र के नाश के लिए किया जा सकता है. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था. हमारे देश में भी यह भीड़ बढ़ रही है. मुसलमान चुनावी राजनीति में उपयोगी इस तरह हैं कि उनके प्रति हिंदू भय और घृणा को एकजुट किया गया है. सरदारपुरा फैसले के बाद कहीं ऐसा न हो कि हर घृणा को माफी मिलने लगे. उसे आध्यात्मिक बन जाने की सलाह दी जाए. धार्मिक हिंसा के प्रति दुनिया की लापरवाही एक सामान्य बात न बन जाए.
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