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उमर खालिद बता रहे ‘बाटला हाउस’ में किन सवालों के नहीं मिले जवाब

फिल्म निर्माता पुलिस की ओर से कई आरोपों का जवाब देते नजर आते हैं  

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जयपुर, अहमदाबाद और दिल्ली में मई से सितंबर 2008 के बीच कई विस्फोटों ने हंगामा बरपा दिया था. अलग-अलग शहरों में विस्फोट होते रहे, लेकिन पुलिस को उनकी साजिश के सुराग नहीं मिले. 19 सितंबर 2008 को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने बाटला हाउस के फ्लैट नंबर 108, L/18 में एक मुठभेड़ को अंजाम दिया. इस मुठभेड़ के साथ ही पुलिस ने सभी विस्फोटों की साजिश का पर्दाफाश एक साथ करने का दावा किया. पुलिस के मुताबिक ये विस्फोट आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन (IM) की कारगुजारी थी.

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मुठभेड़ में पूरी साजिश खुलकर सामने आ गई और उसके आधार पर गिरफ्तारियां हुईं, लेकिन ये मुठभेड़ विवादास्पद थी. कई सवालों के जवाब नहीं मिले और न्यायिक जांच की मांग जोर पकड़ती रही.

उस दिन की घटनाओं पर आधारित फिल्म 'बाटला हाउस' हाल में रिलीज हुई है. फिल्म में एसीपी संजीव कुमार यादव (भूमिका में जॉन अब्राहम) पर मुकदमों और उनकी परेशानियों को दिखलाया गया है. फिल्म में एसीपी, IM के आतंकी मॉड्यूल को खत्म करने के मिशन पर हैं.

‘सच्ची घटनाओं पर आधारित’, लेकिन सच्चाई से दूर

फिल्म में दावा किया गया है कि वो ‘सच्ची घटनाओं पर आधारित’ है, लेकिन फिल्म में कई ऐसी घटनाएं दिखाई गई हैं, जो सच्चाई से कोसों दूर हैं. फिल्म के शुरू में कहा जाता है कि फिल्म ‘दिल्ली पुलिस से प्रेरित’ है, लेकिन ये नहीं मान लेना चाहिए कि इसमें ‘तमाम घटनाएं बिलकुल वैसी ही दिखाई गई हैं, जैसी घटी थीं.’

कोई विरोधाभास?

कई लोगों को शक है कि पुलिस जो कह रही है, वो पूरी तरह सच नहीं है, लिहाजा सच्चाई जानने के लिए न्यायिक जांच कराई जानी चाहिए. पूरी फिल्म का आंकलन कर जानते हैं कि इसमें कितनी सिनेमाई कल्पनाशीलता है और कितनी सच्चाई.

फिल्म में वही दिखाया गया है, जो दिल्ली पुलिस ने दावा किया था. 26 जुलाई को अहमदाबाद में आतिफ अमीन ने विस्फोट की साजिश रची थी. आतिफ अमीन IM का मुख्य मास्टरमाइंड था (फिल्म में ये रोल आदिल अमीन ने निभाया है). इसके बाद उसने अपने गिरोह के साथ दिल्ली को निशाना बनाने की साजिश रची. अपने नापाक इरादों को अंजाम देने के लिए वो दिल्ली आया और बाटला हाउस में किराए के घर में रहने लगा.

दिलचस्प बात है कि फ्लैट लेने के लिए आतिफ और साजिद (फिल्म में ये भूमिका सादिक ने निभाई है) ने स्थानीय पुलिस से वेरिफिकेशन भी करा लिया. फिल्म में ये भाग बड़े विस्तार से दिखाया गया है, लेकिन उससे जुड़े कई सवालों पर फिल्म खामोश है. जिन आतंकवादियों ने दो अलग-अलग शहरों में विस्फोटों को अंजाम दिया, और अब राजधानी को दहलाने की साजिश रच रहे हैं, वो भला अपने पुराने ठिकानों का सही पता क्यों बताएंगे? आतिफ अमीन ने ड्राइविंग लाइसेंस भी अपने बारे में सही जानकारियां देकर हासिल कर लिया. इसके अलावा उसने और साजिद ने अपने सही नामों के आधार पर सिम कार्ड भी खरीद लिये.

फिल्म में IM के एक सदस्य को टीवी स्टूडियो से गिरफ्तार होते दिखाया गया है. स्टूडियो में वो आरोपी मुठभेड़ के बारे में इंटरव्यू देने गया था. ये पूरी तरह सही नहीं है. हालांकि ये सच है कि मुठभेड़ की जानकारी मिलने पर आतिफ को फ्लैट दिलाने में मदद करने वाला शाकिब निसार एक टीवी स्टूडियो में इंटरव्यू देने गया था. इंटरव्यू में उसने पुलिस के दावों पर हैरानी जताई और मुठभेड़ की सच्चाई को चुनौती दी थी.

लेकिन जिस तरह फिल्म में दिखाया गया, उस तरह उसे टीवी स्टूडियो से गिरफ्तार नहीं किया गया था. निसार को अगले दिन उसके घर से पकड़ा गया. बाद में उसे विस्फोट के लिए साजो-सामान उपलब्ध कराने वाले साजिश में शामिल आतंकी के रूप में पेश किया गया.

लिहाजा, अगर पुलिस पर भरोसा किया जाए, तो विस्फोटों को अंजाम देने में माहिर IM मॉड्यूल के दो सदस्य अपने आखिरी मंसूबे को अंजाम देने से पहले खुद पुलिस स्टेशन जाकर अपने बारे तमाम जानकारियां दे देते हैं, और तीसरा सदस्य खुद-ब-खुद टीवी स्टूडियो पहुंच जाता है. मुठभेड़ के बाद वो छिपने की कोई कोशिश नहीं करता.

सवालों के घेरे में दिल्ली पुलिस

फिल्म में बेहद चतुराई से निसार से जुड़ी दूसरी जानकारियां छिपा ली जाती हैं, जिसने पुलिस पर संगीन आरोप लगाए थे. पुलिस ने निसार पर आरोप लगाया था कि उसने अहमदाबाद और दिल्ली में विस्फोट के लिए साजो-सामान उपलब्ध कराए थे. जबकि निसार के परिवार ने इस आरोप को सरासर गलत बताया. परिवारवालों ने निसार का एडमिट कार्ड दिखाते हुए कहा कि 26 जुलाई को, जिस दिन अहमदाबाद में विस्फोट हुआ था, उस दिन निसार दिल्ली में MBA की परीक्षा दे रहा था. उन्होंने सवाल किया कि एक ही समय वो दो अलग-अलग जगहों पर कैसे मौजूद रह सकता है?

पुलिस के दावों का विरोध करनेवालों ने आतिफ और साजिद को दफनाने से ठीक पहले ली गई उनकी तस्वीरों के आधार पर सबसे गंभीर सवाल खड़े किए. तस्वीरों के मुताबिक आतिफ की पीठ लहूलुहान थी. साजिद की खोपड़ी में कई गोलियों के निशान थे. सवाल है कि आमने-सामने हुई गोलीबारी में आतिफ की पीठ पर चोट कैसे लगी? इसके अलावा साजिद की खोपड़ी पर गोलियों के निशान क्या कहते हैं? क्या साजिद को पुलिस ने पकड़कर प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी थी?

फिल्म निर्माता पुलिस की ओर से इन आरोपों का जवाब देते नजर आते हैं. फिल्म के एक हिस्से में एसीपी यादव को एक आरोपी के वकील से इन सवालों का सामना करते हुए दिखाया जाता है. जवाब में गोली-बंदूकों के बारे में अपनी गहन जानकारी देते हुए एसीपी यादव बताता है कि गोलियां लगने पर आतिफ जमीन पर गिर गया, जिससे उसकी पीठ पर चोट आई. जबकि साजिद के सिर में गोली लगी. अपने सिर को नीचे झुकाकर भागने की फिराक में था, इस कारण गोलियां उसकी खोपड़ी में घुस गईं (मुठभेड़ के बीच में कौन इस तरह भागने की कोशिश करता है?).

एसीपी यादव बचाव पक्ष के वकीलों की जिरह से परेशान दिखते हैं, लेकिन बाकी पुलिस टीम खुशी से उछल पड़ती है. वास्तविकता में खुशियां तो दूर, पुलिस को आतिफ और साजिद की तस्वीरों के आधार पर उठे सवालों के कारण भारी विवादों का सामना करना पड़ा था. RTI कार्यकर्ताओं ने मुठभेड़ में मारे गए लोगों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट हासिल करने की काफी कोशिश की. जबकि पुलिस की स्पेशल सेल इसका विरोध करती रही, जो अब तक सबसे लंबे समय तक किसी RTI का विरोध है.

आखिरकार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मार्च 2010 में आतिफ और साजिद की पोस्टमार्टम रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी. रिपोर्ट के मुताबिक उनके शरीर में चोट के और भी कई निशान थे. आतिफ के शरीर में लगी दस गोलियों में से आठ पीछे से लगी थीं. खोपड़ी में गोलियों के निशान के अलावा साजिद के शरीर में दो और चोट के निशान थे, जो रिपोर्ट के मुताबिक “किसी भारी वस्तु से चोट या जमीन पर गिरने” के कारण हो सकते थे.

किस मुठभेड़ में लोगों को सिर्फ सिर और पीठ पर चोट लगती है?
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पुलिस अधिकारी एमसी शर्मा की मौत का रहस्य

फिल्म में शहजाद (फिल्म में दिलशाद ने भूमिका निभाई है) को सेशंस कोर्ट सजा देती है, जो पुलिस के लिए एक बड़ी जीत है. हकीकत ये है कि इस सजा को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई, जिस दौरान और भी कई सवाल सामने आए. हम इस बारे में गहराई से चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि मामला अभी अदालत में है.

पुलिस का दावा था कि पुलिस अधिकारी एमसी शर्मा (फिल्म में रवि किशन) को मारने वाला शहजाद था, जो गोलीबारी के दौरान एक दूसरे आतंकी के साथ फ्लैट से भागने में कामयाब रहा. जिस फ्लैट को पुलिस ने चारों ओर से घेर रखा हो, वहां से उनके लिए भागना कैसे मुमकिन हो सकता है? फिल्म में पुलिस के दावों को दिखाया गया है कि गोलीबारी में व्यस्त होने के कारण वो भागने वालों पर ध्यान नहीं दे सके.

पुलिस ने दावा किया था कि फ्लैट में छापा मारने के लिए कुल 21 पुलिसवालों की टीम गई थी. मुठभेड़ के दौरान इनमें सात पुलिस वाले चौथे फ्लोर पर थे, जिनमें दो बाहर निकलने वाले रास्ते पर तैनात थे. कम से कम चौदह पुलिस वाले सबसे निचले फ्लोर में बाहर निकलने वाले रास्ते और साथ लगी गली में तैनात थे. इस हालत में ये कैसे भरोसा किया जा सकता है कि शहजाद (हथियार के साथ) और दूसरा आतंकी एक पुलिस अधिकारी को मारकर और सभी 21 पुलिसवालों को चकमा देकर फरार हो सकता है? क्या ये बयान स्पेशल सेल की नाकामी नहीं बतलाता है?

शहजाद के आश्चर्यजनक रूप से भागने की दलील तब दी गई, जब पुरानी तमाम दलीलें बेदम हो गई थीं. पहले पुलिस का कहना था कि दोनों बालकनी के जरिये साथ वाले फ्लैट में कूदकर भाग निकले. लेकिन शहजाद के वकील ने जोर देकर कहा कि दूसरी इमारत में कूद पाना किसी के लिए भी नामुमकिन है. इसके बाद पुलिस ने जो बयान दिया, वही फिल्म में दिखाया गया.

फिल्म में सुनवाई के दौरान पुलिस के बयानों में तोड़-मरोड़ और बयान बदलने के बारे में कुछ भी नहीं दिखाया गया है, जिसकी संभावना पहले से थी.

शहजाद को पुलिस अधिकारी एमसी शर्मा की जान लेने का दोषी ठहराया गया. लेकिन ना तो उसका हथियार और ना ही एमसी शर्मा को लगने वाली गोली कभी अदालत में पेश की गई.

इंस्पेक्टर शर्मा की मौत ने भी मुठभेड़ की सच्चाईयों पर सवाल खड़े कर दिये. किस ‘फर्जी मुठभेड़’ में एक पुलिस वाला मारा जाता है? लेकिन पिछले एक दशक में इंस्पेक्टर शर्मा के बारे में शायद ही कोई चर्चा हुई हो. फिल्म में भी इंस्पेक्टर शर्मा का कम ही जिक्र किया गया है. लेकिन इंस्पेक्टर शर्मा के बारे में ज्यादा दिखलाने से स्पेशल सेल की सिरदर्दी एक बार फिर बढ़ सकती थी, और निश्चित रूप से फिल्म निर्माता इससे बचना चाहते थे.

कई खबरों के मुताबिक इंस्पेक्टर शर्मा के शरीर में लगी तीन गोलियां होली फैमिली अस्पताल में ऑपरेट करके निकाली गई थीं. लेकिन जिस दिन मुठभेड़ हुई, उसी दिन शाम को अस्पताल ने एक प्रेस रिलीज जारी किया. उसमें साफ लिखा था कि उनकी छाती और पेट के एक्स-रे में “कोई बाहरी वस्तु नहीं पाई गई.”

बाद में उनका पोस्टमार्टम करने वाले एम्स के एक सीनियर डॉक्टर ने कहा कि उन्हें गोलियां जरूर लगी थीं, लेकिन ये बताना कठिन है कि वो किस दिशा से शरीर में घुसीं और बाहर निकलीं. क्योंकि “इनसे जुड़े निशान होली फैमिली अस्पताल के डॉक्टरों ने मिटा दिये थे.”

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सांकेतिक राजनीतिक संदेश

फिल्म का सबसे गंभीर हिस्सा विस्तार से नहीं दिखाया गया है, लेकिन सियासी हलकों में इसे गंभीरता से लिया जा सकता है. एक सीन में गृहमंत्री एसीपी यादव और दूसरे अधिकारियों को तलब करता है. मंत्री मुठभेड़ पर हो रहे राजनीतिक विवादों से परेशान है. गृहमंत्री स्पेशल सेल को निर्देश देता है कि वो गिरफ्तारियों को ‘संतुलित’ दिखाए और सिर्फ एक समुदाय पर इल्जाम न मढ़े. एसीपी यादव को इस निर्देश से धक्का पहुंचता है. इस भाग के जरिये फिल्म निर्माता सीधे तौर पर उस आरोप को हवा दे रहे हैं, जो बीजेपी, कांग्रेस पर लगाती रही है, और जिसके मुताबिक यूपीए के शासनकाल में इस्लामिक आतंकवाद का नैरेटिव संतुलित दिखाने के लिए हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़े ‘बेगुनाहों’ पर निशाना साधा जाता रहा है.

बाद में हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़े व्यक्तियों की गिरफ्तारी शहीद इंस्पेक्टर हेमंत करकरे की गहन छानबीन के आधार पर की गई थी. क्या फिल्म निर्माता परोक्ष रूप से ये कहना चाहते हैं कि अपनी जान पर खेलकर इस्लामिक आतंकियों से लोहा लेने वाले एसीपी यादव ‘अच्छे पुलिस वाले’ थे और तत्कालीन यूपीए सरकार के कहने पर नैरेटिव को ‘संतुलित’ करने वाले शहीद हेमंत करकरे ‘बुरे पुलिस वाले’?

फिल्म में इस मुठभेड़ को सच बताने की कोशिश जरूर की जाती है, साथ में फिल्म निर्माता फर्जी मुठभेड़ को भी उचित बताने से गुरेज नहीं करते. एक सीन में अपने वकील के साथ विचार-विमर्श करते हुए एसीपी यादव स्वीकार करते हैं कि वास्तव में फर्जी मुठभेड़ हुई हैं और ये भी गलत नहीं है कि कई बार पुलिस मुठभेड़ की जगहों से फर्जी हथियारों की बरामदगी दिखलाती है. वो ये भी कहने से नहीं चूकते कि कई बार कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस को कानून तोड़ना पड़ता है.

लेकिन जहां तक कानून और व्यवस्था बनाए रखने का सवाल है, तो स्पेशल सेल का ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. आतंक के मामलों में उसका कन्विक्शन रेट 30 फीसदी से भी कम है. दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो कोर्ट ने 10 में से 7 से ज्यादा मामलों में पाया है कि बेगुनाहों को आतंकवादी बतलाया गया था. बेगुनाहों पर दोष लगाने से फायदे की बजाय नुकसान ज्यादा होते हैं. आतंक के खिलाफ ढंग से लड़ाई नहीं हो पाती, और बड़े पैमाने पर असली अपराधी कानून के दायरे से बाहर रहते हैं.

फिल्म में जब मुठभेड़ पर सवाल उठने शुरू होते हैं, तो एक पुलिस अधिकारी एसीपी यादव से कहता है कि सच्चाई से ज्यादा अहम छवि होती है. वास्तविकता में भी ‘आतंकवाद से जुड़े मामलों में’ पुलिस सच्चाई से ज्यादा छवि को तरजीह देती है. हाल में एकाधिक मामलों में पुलिस ने आरोपी पर आधिकारिक चार्ज लगाने से पहले ही संवेदनशील जानकारियां दिन-पर-दिन 'असंवेदनशील' बनती जा रही मीडिया को दी हैं. फिल्म 'बाटला हाउस' में भी छवि के लिए संघर्ष पर जोर दिया गया है. फिल्म मुकदमे को नतीजे तक पहुंचा देती है, जबकि वास्तविकता में मुकदमा अभी चल ही रहा है.

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(जेएनयू से पीएचडी करने वाले उमर खालिद अपराधों और सामूहिक हिंसा के खिलाफ काम करने वाले United Against Hate से जुड़े हुए हैं. वो राजनीति और संस्कृति पर भी लिखते हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके निजी हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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