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बेंगलुरु वालों की दुविधा: ट्रैफिक झेलें या हरियाली का आनंद लें

Bengaluru: खुशबुओं और हरीतिमा के इस शहर के बीच एक शोर भी है-भद्दा, अशालीन और दुःख देने वाला, अंधाधुंध ट्रैफिक का.

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बेंगलुरु (Bengaluru) के साथ जुड़ी हैं सुरभियों के सम्मिलित आक्रमण की स्मृतियां. मसलन बेला फूल की सुरभि की स्मृतियां. हर नुक्कड़ पर छोटी-बड़ी दुकानों पर बेला के गुच्छे अपनी मादक सुरभि लिए हमले के लिए तैयार बैठे रहते हैं. दूसरी खुशबू है फिलटर कॉफी की. जैसी बेला के फूल की तीखी मादकता, करीब-करीब वैसी ही दुखदायी मादकता है भुनी हुई कॉफी के गहरे भूरे दानों की.

चाहे वह अमीरों का स्टारबक्स हो या घर के पास वाली कॉफी की गुमटी. और कॉफी पेश करने का अंदाज भी अलहदा. एक छोटी स्टील या पीतल की कटोरी में छोटा ग्लास और उसमें लबालब भरी हुई कॉफी.

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'बस ट्रैफिक कम हो तो आनंद ही आनंद'

छूने में डर लगता है पर यह एक भ्रम ही होता है. क्योंकि बाहर से गिलास जितना गर्म होता है, कॉफी उतनी गर्म नहीं होती. इसलिए इसे कटोरी में उड़ेल कर पीने का रिवाज है, तीसरी महक है बेंगलुरु के मौसम की, जो करीब पूरे साल एक सा ही होता है. मामूली गर्मी के बाद मई से लगातार बारिश शुरू होती है. और सुबह-शाम जब भी बाहर निकलें, जी करता है कोई हल्का ऊनी कपड़ा पहन ही लिया होता तो ठीक रहता.

दक्षिण भारत के भोजन से जो परिचित हैं, और जिन्हें यह प्रिय है, उन्हें जगह-जगह पर सांभर और गर्मा-गर्म इडली की महक भी ललचाती रहती है. इन्द्रियों पर तरह -तरह की सुरभियों का आक्रमण लगातार जारी रहता है और अजीब बात यह है कि यह सुख भी देता है.

खुशबुओं और हरीतिमा के इस शहर के बीच एक शोर भी है-भद्दा, अशालीन और दुःख देने वाला अंधाधुंध ट्रैफिक का. बेंगलुरु में रहने वाले भी यही कहते हैं कि बस यहां की ट्रैफिक कम होती तो स्वर्ग जाने का विचार ही उनके मन में नहीं आता.

हरियाली भरपूर है और शहर के बीचो बीच में कभी भी कोयल की कूक या किसी दूसरे परिंदे की मीठी आवाज सुनाई दे सकती है पर साथ ही ट्रैफिक का शोर इन मीठी ध्वनियों को तोड़ कर चूर-चूर कर देता है.

आम तौर पर बेंगलुरु का जिक्र आते ही आंखों के सामने एक मनोहारी नजारा घूम जाता है. आंखों को लुभाती हरियाली, देह को गुदगुदाती ठंडी हवाएं और शहर से बाहर निकलते ही कुछ दूर पर एक-से-एक नयनाभिराम दृश्य. 

एक तरफ सिलिकन क्रांति का परचम लहराती इलेक्ट्रॉनिक सिटी, नंदी हिल्स का सौंदर्य, तो दूसरी तरफ जगह-जगह पर झीलें, बाग, बगीचे, पेड़ों की कतारों के बीच बनी साफ-सुथरी सड़कें. मानो किसी शौकीन चित्रकार ने बड़े सलीके से इस शहर के कैनवस को अपने नायाब स्ट्रोक से रचा हो.

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जाम में फंसने का इंतजाम करें

पर बेंगलुरु की सड़कों पर उतरते हैं तो ऐसा महसूस होता है जैसे पूरा शहर भयंकर दमे का शिकार है. चौराहे, सड़कें, मोड़ सब जाम हैं, कहीं ट्रैफिक रेंग रहा है तो कहीं एक ही जगह पर फंसा है. एक-दो घंटे किसी जाम में बिलकुल एक जगह पर ही फंसे रहना सामान्य बात है, बेहतर होगा लोग अपना लंच बॉक्स, काम करने के रजिस्टर या टैब व मोबाइल में कुछ पसंदीदा मूवीज रखें, ताकि इस समय में आपका मानसिक संतुलन बना रहे और आप बाल नोचते या कपड़े फाड़ते हुए अपने वाहन से बाहर न आ जाएं.

भारत के प्रमुख शहरों के वाहनों की औसत रफ्तार का आकलन करने के लिए विभिन्न टैक्सी चलाने वाली कंपनियों के साथ एक सर्वे किया गया है. उसमें पुणे और दिल्ली ने 23 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्त्तार से सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया. वहीं, कोलकाता और बेंगुलुर ने क्रमशः 17 और 18 किलोमीटर प्रतिघंटा की औसत रफ्तार के साथ अपने हालात खुद ही बयां कर दिए.  

बेंगलुरु निवासी लेखक और चिंतक संजीव के साथ इस बारे में दिलचस्प बाते हुई. उन्होंने कहा कि “इस शहर में बहुत जल्दी चिकित्सा विज्ञान में एक नयी विधा का सूत्रपात होगा. ट्रैफिक जाम में फंसने से होनी वाली बीमारी और उनके उपचार के लिए नए तरह के विशेषज्ञ पैदा होंगे- ट्रैफिक सिकनेस एक्सपर्ट. अलग हॉस्पिटल खोले जाएंगे– ट्रैफिक डिजीज मल्टी स्पेशैलिटी हॉस्पिटल्स.

 "योग वाले भी पीछे नहीं रहेंगे और ट्रैफिक जाम में फंसने पर करने वाली विशेष यौगिक क्रियाएं बताएंगे. विशेष ध्यान पद्धितियां और विपासना भी बाजार में आ जाएगी. खास तौर पर ट्रैफिक जाम के शिकार लोगों के लिए. वह दिन दूर नहीं जब बेंगलुरु इन सब का अंतर्राष्ट्रीय हब बन जाएगा, सूचना तकनीकी से भी बड़ा.”  
संजीव

उच्चस्तरीय नीति निर्माता, बेहतरीन इंजीनियर और वास्तुविद, जानकार अधिकारियों की फौज और राजधानी होने के कारण राजनैतिक व्यक्तित्वों का जमावड़ा. इन सभी के बावजूद ऐसा क्या हो गया कि पिछले दस वर्षों के अंदर बेंगलुरु के फेफड़े जाम हो गए और उसके लिए सांस लेना दूभर हो गया. दमे का तो फिर भी स्प्रे है, जिसे सूंघ कर कुछ राहत की उम्मीद होती है, लेकिन यहां की सड़कों का जो दमा है उसका तो कोई स्प्रे भी नहीं है.

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बढ़ती जरूरतों ने इस शहर पर बहुत बोझ बढ़ा दिया

यह सच है कि बाहर से आने वाले लोगों का बढ़ता दबाव, लगातार बढ़ती आबादी और उसकी निरंतर फैलती जरूरतों ने इस शहर पर बहुत बोझ बढ़ा दिया है, लेकिन यह कोई अनपेक्षित नहीं था. 

यहां सूचना क्रांति की शुरुआत अस्सी के दशक में ही हो गयी थी. नब्बे के बाद आर्थिक सुधार लागू होने बाद तो जैसे इसे पर लग गए. जब इसे सिलिकन वैली के रूप में विकसित किया जा रहा था, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि आने वाले समय में यहां की आबादी बहुत अधिक बढ़ने वाली है. 

लेकिन, उससे निबटने के लिए जो उपाय किए गए वे विस्तृत और उपयुक्त विजन के अभाव में बौने साबित हुए. बस फौरी तौर पर किसी तरह से समस्यों से निबटने के प्रयास किए गए. इसी का परिणाम है कि आज सड़कें जाम हो गयीं और पर्यावरण को नुकसान हुआ वो अलग.

अगर मेट्रो का काम युद्धस्तर पर चले, सुनियोजित ढंग से चलाया जाए, लोगों को पर्याप्त जानकारी दी जाए और किराया उपयुक्त रखा जाए तो ट्रैफिक में काफी राहत मिल सकती है.

एक और मित्र मिताली, कई वर्षों से इस शहर में सपरिवार रह रही हैं. उनका कहना है, “सबसे आश्चर्यजनक रवैया इस उच्च शिक्षित सूचना क्रांति के उद्गम और साधन-सम्पन्न शहर के नागरिकों का है. चाहे बाहर से आकर यहां बस गए लोग हों या यहां के मूल निवासी, लगता है प्रकृति के उपहार इस खूबसूरत शहर की किसी को परवाह ही नहीं है. 

"ढेरों झीलें, खूबसूरत पहाड़ियों, अद्भुत हरियाली और मनोहारी जलवायु वाले इस शहर के नागरिकों की उदासीनता अपराध की सीमा को छूती है. ट्रैफिक का रोना रोएंगे, रोज यंत्रणा भुगतेंगे, अपने जीवन के कीमती घंटे सड़कों पर गुजार देंगे, लेकिन कहीं कोई पहल नहीं करेगा. कहीं कोई कदम नहीं उठाएगा. यहां तक कॉलोनियों की समितियों में इस बात पर कोई चर्चा तक नहीं होती.”

संजीव कहते हैं, “चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या सामूहिक, लगातार कम्प्लेन मोड पर रहना, लेकिन हकीकत में कुछ नहीं करना ये हमारे जीवन की एक बड़ी महामारी बन कर आयी है. इस बात में आलोचना जैसा कुछ नहीं है. बल्कि यह हम लोगों की हकीकत है. अगर हम इस महामारी से निजात पा सकें तो शायद बेंगलुरु के ट्रैफिक के लिए कुछ किया जा सकता है, वरना जिन्दगी तो बेशर्म है ही, येन केन प्रकारेण चलती ही रहती है.” 

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