2022 की बेस्ट फेमिनिस्ट फिल्में (Best Feminist Films) जिन्हें हमने चुना है, समाज से सवाल करती रहीं. पांच फिल्में, पांच सवाल. मुक्तिकामी सवाल. इस साल जब ईरान (Iran) से लेकर हिंदुस्तान तक में हुकूमतें औरतों को अपने कायदों में कैद करने की कोशिश करती रहीं, सिनेमा ने उन्हें मुखालिफत करने का मौका दिया है.
जलसा (Jalsa)
सवाल नंबर एक - क्या पब्लिक स्पेस पर हमारा दावा रहेगा?
सुरेश त्रिवेणी की जलसा (हिंदी), इस साल की हमारी पहली पसंद है. यह फिल्म औरतों के आपसी रिश्तों, और औरतों और बच्चों के आपसी रिश्तों की कहानी है. एक मीडिया पत्रकार है माया (विद्या बालन), दूसरी उसकी घरेलू कामगार रुखसाना (शेफाली शाह). एक की कार, दूसरी की बेटी को लहूलुहान कर देती है. फिर कशमकश शुरू होती है.
वर्ग, महजब और सत्ता का बंटवारा साफ दिखने लगता है. बेशक, दोनों औरतें हैं, लेकिन वर्ग और धर्म, उन्हें अलग करता है. हां, दोनों कामकाजी औरतें हैं, लेकिन माया के पास यह गुंजाइश है कि वह अपने दफ्तर में बैठकर कैमरे से अपने बेटे की घर पर निगरानी कर सके. पर रुखसाना के पास यह विकल्प नहीं है. बेशक, फिल्म माया और रुखसाना की अलग दुनिया, अलग हालात पर नहीं है. यह उनके इंटरसेक्शंस है. जिसे अस्सी के दशक में सिविल राइट्स एक्टिविस्ट किंबरले क्रेनशॉ ने इंटरसेक्शनल फेमिनिज्म कहा था. यानी जब दमन और भेदभाव औरत की जाति, धर्म, आर्थिक हालात के साथ गाढ़े होते जाएं- बदलते जाएं.
इसीलिए जब माया की कार से रुखसाना की बेटी आलिया का एक्सीडेंट होता है तो सारा दोष उस पर जाता है. सवाल उठाया जाता है कि उसकी बेटी इतनी रात को सड़क पर क्यों घूम रही थी. जिसने शिल्पा फड़के, समीरा खान और शिल्पा रानाडे की वाय लॉयटर नाम की मशहूर किताब पढ़ी है, वह जान सकता है कि शहरों में पब्लिक स्पेस में आलिया का वह क्लेम कभी नहीं हो सकता, जो किसी लड़के का होता है.
अंजली आरोंडेकर जैसी फेमिनिस्ट भले ही मटरगश्ती को महिलाओं का हक बोलती रहें, लेकिन आलिया से सवाल किए जाते रहेंगे कि रात को वह कहां घूम रही थी. ठीक जैसे, मृणाल सेन की फिल्म एक दिन प्रति दिन (1979) में चीनू (ममता शंकर) से बार बार पूछा जाता है. चीनू नहीं बताती, न ही आलिया को इसका जवाब देने की जरूरत है. यह फिल्म का सबसे सुंदर पहलू है.
गार्गी (Gargi)
सवाल नंबर दो- क्या इंटरसेक्शंस पर खड़ी औरतें, एक दूसरे पर भरोसा करेंगी?
गौतम रामचंद्रन की गार्गी (तमिल) हमारी सूची की दूसरी फिल्म है. यह एक बाल यौन अपराध के इर्द गिर्द घूमती है. फिल्म में दो पिता-बेटी हैं. गार्गी यौन शोषण के अभियुक्त अपने पिता को बचाने में लगी है. दूसरी तरफ सर्वाइवर बच्ची और उसका पिता हैं. यानी फिल्म में दो पिता हैं, और दो बेटियां भी. दोनों के हालत बहुत जटिल हैं. दोनों को इंसाफ चाहिए. गार्गी को एहसास होता है कि उसका पिता शायद अपराधी ही है. ऐसे में वह इंसाफ के साथ ही खड़ी होती है. बेशक, गार्गी एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके कंधों पर दुनिया का बोझ रखा हुआ है, लेकिन अपना बोझ उतारना वह सीख चुकी है.
फिल्म एक पॉजिटिव बदलाव के साथ खत्म होती है- गार्गी ने वह बोझ छोड़ दिया है. वह मुस्कुराती है. शर्म और अपमान की चादर उतार देती है. उसे सबसे सहानुभूति है. वह खुद लड़की होकर, लड़कियों की मॉरल पुलिसिंग करना छोड़ देती है. अपनी छोटी बहन से नहीं कहती कि वह फलां कपड़े पहनकर पार्क में न जाए. वह समझ जाती है कि जैसा हम अनुमान लगाते हैं, वैसा कुछ भी नहीं है. और हमें महफूज रखने के लिए किसी पुरुष की जरूरत भी नहीं है.
फिल्म का अंत खूबसूरत है, जब अदालत से निकलती गार्गी की छाया में रेप सर्वाइवर मैत्रेयी चल रही है. दोनों लड़कियां एक सी हैं. एक से हालात से जूझती हुई. सिस्टरहुड की खूबसूरती फिल्म में नजर आती है. यह जलसा के इंटरसेक्शन से आगे जाता है, जहां सभी सेक्शंस एक दूसरे के लिए सोचने लगें. गार्गी वह शख्स बने, जिस पर मैत्रेयी भरोसा करने लगे.
डार्लिंग्स (Darlings)
सवाल नंबर तीन- क्या नामुमकिन सी ललक- इज्जत की जिंदगी- पूरी होगी?
इन दो फिल्मों के अलहदा चरित्र जसमीत के रीन की निर्देशित फिल्म डार्लिंग्स (हिंदी) में भी नजर आते है. यहां भी दो औरतों की कहानी है. वो मां-बेटी हैं. बेटी बदरू को उम्मीद है कि एक दिन उसकी शादीशुदा जिंदगी खुशहाल होगी. मां शमसू, बेटी को अपने जुल्मी पति को छोड़ने को कहती रहती है. और जैसा कि शमसू फिल्म में पुलिस वाले को कहती भी है- ट्विटर वालों के लिए दुनिया बदल गई है, हमारे लिए नहीं. जैसा कि 2014 में दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि हत्या की हर दसवीं सुनवाई में पति दोषी अभियुक्त है और पत्नी पीड़ित है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-21) कह चुका है कि 18-49 वर्ष की उम्र के बीच की 32% विवाहित महिलाओं ने शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा का अनुभव किया है.
हां, दुनिया बदरू जैसों के लिए नहीं बदली. उसके पति के पास दुनिया में खुद को सुपिरियर दिखाने का, पौरुष दर्शाने का एक ही मौका है, उसकी बीवी बदरू. लेकिन घरेलू हिंसा पर केंद्रित इस फिल्म में बदरू खुद दुनिया बदलने की इच्छा रखती है. वह जिस नामुमकिन के लिए ललकती रहती है, वह है- सिर्फ उसकी इज्जत.
डार्लिंग्स एक रिएक्टिव फिल्म है. फिल्म प्यार और एब्यूस के तनावभरे रिश्ते पर टिप्पणी करती है और इस बात पर भी कि कैसे हम इस रिश्ते को ग्लोरिफाई करते रहते हैं. लेकिन दोनों के बीच फर्क होता है. फिल्म में मां बेटी, दो औरतों के रिश्तों की जुगलबंदी है. इसीलिए फिल्म के शीर्षक मे एकवचन शब्द डार्लिंग को बहुवचन डार्लिंग्स किया गया है. जैसे यह दो किरदारों को सामूहिक धन्यवाद दिया जा रहा हो. दो महिला किरदार, जो अपने आस-पास के माहौल से वाकिफ हैं, और उसे बदलने की जद्दोजेहद भी करते हैं.
कला (Qala)
सवाल नंबर चार- पेशे के प्राकृतिक हक के लिए कब तक कटघरे में खड़ा किया जाएगा?
पिछली तीनों फिल्मों में औरतों की खुदमुख्तारी की तड़प बहुत करीबी जान पड़ती है. चौथी फिल्म अन्विता दत्ता की कला है जिसमें कला के गाने-जीने के हक को कुचले जाने के खिलाफ गुस्से का इजहार है. कला की मां उसे संगीत का वरदान नहीं देना चाहती क्योंकि उसके लिए लड़के विरासत संभालते हैं, लड़कियां नहीं. कला का विरोध वहीं से शुरू होता है.
इसके बाद खुद को संगीत की दुनिया में जमाने के लिए वह जो भी करती है, वही उसकी बगावत कहलाएगी. जब पेशा चुनने का प्राकृतिक हक अपने आप नहीं मिलेगा, तो उसे छीनने का तरीका भी कला या उसकी जैसी लड़कियां खुद तय करेंगी. यह भी है कि सामाजिक बोध उसे बार-बार अपराध से ग्रस्त करता रहेगा.
बार-बार पुरुष समाज उसे यह याद दिलाता रहेगा, कि उसने यह हक किसी से छीना है. जैसा कि कला को उसका मुंहबोला मृत भाई याद दिलाता रहता है.
कला इस लिहाज से खूबसूरत है कि जब नुमाइंदिगी मिलेगी तो बहनापा भी पैदा होगा. कला प्रसिद्ध प्लेबैक सिंगर बन गई है. तो उसके इर्द-गिर्द काबिल औरतें भी नजर आने लगती हैं. सेक्रेटरी से लेकर संगीतकार और पत्रकार तक. अन्विता दत्ता जैसी महिला निर्देशक भी जब फिल्में बनाती हैं तो महिला चरित्रों को एक अलग ही कोण से रचती हैं. तब विरोध को नजरअंदाज करना हुकूमत के लिए मुमकिन नहीं होता.
फिल्म में गीतकार मजरू (जिसमें वरुण ग्रोवर नजर आते हैं) का एक कैरेक्टर है जिसका कला के साथ खास नाता है. मजरू के नाखून रंगे हुए हैं-अलग अलग रंगों में. ये रंग हर इंसान के भीतर की आजादी की इच्छा के प्रतीक हैं. उसे किसी तरह दबाया नहीं जा सकता.
वंडर विमेन
सवाल नंबर पांच- प्रसव और प्रजनन को कब मानवाधिकार माना जाएगा?
पांचवीं फिल्म, मलयालम फिल्म वंडर विमेन, मानो इन सभी औरतों की उसी आजादी का दर्पण है. मुद्दा, थोड़ा अलग है. कहानी छह प्रेग्नेंट औरतों की है. इनमें से एक घरेलू कामगार है, एक सिंगल-तलाकशुदा है, एक म्यूजीशियन है, कुछ होममेकर हैं. जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव के बीच वे सभी अपनी देह के उतार-चढ़ाव के साथ जी रही है. उन्हें दुनिया को न तो बदलना है, न ही कोई फेमिनिस्ट आंदोलन छेड़ना है. वे अपने शारीरिक बदलावों को समझ रही हैं और एक दूसरे को भी समझने की कोशिश कर रही हैं.
ये सामान्य औरतों की कहानी है, जो एक साथ चलती हैं, एक दूसरे के लिए खड़ी होती हैं तो असामान्य यानी वंडर विमेन बन जाती है. प्रेग्नेंसी सिर्फ वह लेंस है जिसके जरिए समानुभूति और बहनापे की कहानी कही गई है.
कहा जा सकता है कि प्रेग्नेंसी को ग्लोरिफाई करना कहां तक मुनासिब है, जैसा कि फिल्म कई बार करती नजर आती है? लेकिन इससे बड़ा सवाल यह भी है कि प्रसव और प्रजनन की आजादी को मानवाधिकार क्यों नहीं समझा जाता. इसकी मुख्य किरदार जो इन प्रेग्नेंट औरतों की क्लास लेती है, वह बायोलॉजिकल मदर नहीं है. लेकिन वही रास्ता दिखाती है. क्योंकि बायोलॉजिकल मदरहुड से वात्सल्य का कोई लेना-देना नहीं होता. इस लिहाज से क्वीर, सेरोगेट, एडॉप्टिव मदर्स सभी इसी सूत्र मे बंध जाती हैं.
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