पिछले छह महीने से फिल्म पद्मावत को लेकर इतना कोहराम मचा है कि बड़ी बेसब्री से मैं फिल्म का इंतजार कर रहा था . देखना चाहता था कि आखिर वो क्या करिश्मा है कि राजपूत खून उबाल पर है, मरने-मारने पर उतारू हैं, बसें जला रहें हैं, गाड़ियां फूंक रहे हैं, सिनेमा हॅाल्स में तोड़फोड़ कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी नहीं मान रहे.
चार-चार राज्यों की सरकारें इस फिल्म को अपने यहां रिलीज करने से हिचक रही हैं. कहा गया कि इतिहास से खिलवाड़ किया गया है, सृजनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर राजपूती आन-बान और शान को धता बताया गया. रानी पद्मावती को गलत नजरिये से पेश किया गया. यकीन मानिये मुझे कभी भी इन बातों पर विश्वास नहीं हुआ.
मैं संजय लीला भंसाली की फिल्मों का प्रशंसक रहा हूं. खामोशी, हम दिल दे चुके सनम, ब्लैक, देवदास, गुज़ारिश, सांवरिया, रामलीला, बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्में बनाने वाले भंसाली के लाखों आलोचक हो सकते हैं पर मैं उनका मुरीद था.
भंसाली की फिल्में भारतीय गरीबी का आइना नहीं है. उनमे गरीबी नहीं है. वैभव है. ऐश्वर्य है. अभिजात्यवर्गीय है. खानदान ऊंचे घरानों के हैं, परिवेश भव्य है, महिलायें आभूषणों से लदी हैं, साड़ियां भारी-भरकम और मंहगी हैं, पुरूष भी पारंपरिक पहनावों से ढके हैं, घर महल जैसे हैं, पात्र असाधारण. सामान्य कुछ भी नहीं. सबकुछ सामान्य से कई गुना बड़ा.
उनकी ‘ब्लैक’ भी भव्य है और ‘गुज़ारिश’ भी . जबकि दोनों के पात्र अधूरे हैं. कथानक तकलीफ देने वाले हैं. करुणा उनका मूल कथ्य होना चाहिये पर भव्यता करूणा को सुंदर बना देती है. पात्रों से मुहब्बत हो जाती है.
‘गुज़ारिश’ का पैरालाइज्ड ऋतिक रोशन कहीं से सहानुभूति का पात्र नहीं लगता, वो जीवंतता से भरा है. देवकांत बरुआ की देवदास पीड़ा उत्पन्न करती है. पर भंसाली के ‘देवदास’ से ईर्ष्या होती है कि कैसे कोई ऐश्वर्य की धनी महिलाओं का देवता हो सकता है. ‘राम लीला’ में मृत्यु भी आकर्षित करती है. जैसे टैरेंटीनों की फिल्मों में हिंसा किसी पन्ने पर लिखी गई कविता होती है. वो विभत्स नहीं, खूबसूरत है.
“फिल्म इतनी थक जाती है कि वो बैठ जाती है”
भंसाली की खासियत ये है कि वो हर चीज में सौंदर्य तलाशते हैं. प्रेम उनकी फिल्मों की मूल कथा है. वो अपनी हर फिल्म में प्रेम की बारीकियों को पकड़ना चाहते हैं. उसे नये-नये रूप में समझना चाहते हैं. प्रेम को परिभाषित करने के लिये कैनवास काफी छोटा पड़ जाता है. बड़े कैनवास में ही वो अपने को सार्थक पाते हैं. वो संस्कृति की परतें उधेड़ते चलते हैं.
गुज़ारिश में पारसी-पन है तो बाजीराव मस्तानी में मराठा संस्कृति जी उठती है. देवदास बंगाल को जीवित कर देता है. ऐसे में मुझे उम्मीद थी कि ‘पद्मावत’ राजस्थान को जस का तस हमारे सामने रख देगा. जिसमें अलाउद्दीन खिलजी भी होगा, राजपूती शान भी.
पर फिल्म देखी तो मन निराशा से भर गया. पूरी फिल्म में मैं भंसाली को खोजता रहा वो नहीं मिला. ‘पद्मावत’ में न सौंदर्य दिखा, न प्रेम की तीखी अनुभूति. भव्यता भी आधी-अधूरी. फिल्म थ्री डी के चक्कर में निर्देशक की अति महत्वाकांक्षा का शिकार हो गई. पात्र बिखर से गये. कथानक को आगे बढ़ाना मुश्किल हो गया. अंत तक फिल्म इतनी थक जाती है कि वो बैठ जाती है. पद्मावती का जौहर भी उसे उठा नहीं पाता.
“फिल्म अलाउद्दीन खिलजी की बन जाती है”
जनता की नजर में फिल्म बनी पद्मावती को लेकर. लोगों को लगा था कि वो पद्मावती की कहानी देखने जा रहे हैं. पर फिल्म अलाउद्दीन खिलजी की बन जाती है. फिल्म शुरू होती है अलाउद्दीन से. उसके वहशीपन से. उसकी काम पिपासा से. वो क्रूर है. वो विद्रूप है. वो अहंकारी है. वो अत्यंत महत्वाकांक्षी है. उसको हर नायाब चीज से मुहब्बत है. उसे हर हाल में पाना उसका सबसे प्यारा शगल है. उसके बड़े-बड़े बाल, उसके चेहरे पर चोट के निशान, उसकी अजीबो-गरीब पोशाक, उसके हाव-भाव, बोलने, चलने, उठने-बैठने का अंदाज, उसे हिंदुस्तान का सुल्तान कम और किसी काॅमिक्स पत्रिका का खलनायक ज्यादा बना देते हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं कि मध्यकालीन बादशाहों की तरह अलाउद्दीन खिलजी ने भी सुल्तान बनने के लिये अपने सगे चाचा का कत्ल किया था. पर वो काॅमिक कैरेक्टर नहीं था जैसा भंसाली ने पूरे देश को बताने का प्रयास किया है.
वामपंथी इतिहासकारों की बातें वैसे तो आजकल फैशन में नहीं हैं जो उसे एक काबिल सुल्तान का दर्जा देते हैं. जिसके बारे में लिखा गया कि उसने शराबबंदी लागू की, वैश्यावृत्ति पर रोक लगाई, उसकी ओर से उठाये गये टैक्स रिफाॅर्म १९वी शताब्दी तक चले, उसके भूमि सुधारों पर आगे चलकर शेरशाह सूरी और अकबर तक ने अमल किया. ये सच है कि उसने हिंदू मंदिरों को ढहाया. लाखों हिन्दुओं का कत्ल भी किया पर अमीर खुसरों के मुताबिक कट्टर मुसलमान उससे नफरत करते थे और कहते थे कि वो हिंदुओं के प्रति नरम था.
उसके बारे में हिंदुत्ववादी ताकतों के आदि गुरू विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा है, “अलाउद्दीन खिलजी पहला और आखिरी मुस्लिम सुल्तान था जिसने चित्तौड़ और एकाध राज्यों को छोड़कर लगभग पूरे भारत पर शासन किया. अकबर और औरंगजेब उसकी जगह नहीं ले सकते हैं. वो इतने बड़ें भू-भाग पर कभी भी शासन नहीं कर पाये.”
इस लिहाज से अलाउद्दीन खिलजी को हिंदुस्तान का सबसे बड़ा शासक कह सकते हैं. उसी खिलजी को भंसाली एक सनकी के तौर पर पेश करते हैं. क्या फिल्म में दर्शाया खिलजी किसी भी कोने से इतने बड़े साम्राज्य का मालिक लगता है?
ये भी सच है कि अलाउद्दीन खिलजी को लड़कों का शौक था. मलिक कफूर और खुसरूखान, दो निहायत खूबसूरत मर्द, उसके “सेक्स स्लेव्ज” यानी उसके समलैंगिक पार्टनर थे. फिल्म में खुसरूखान का जिक्र नहीं है. मलिक कफूर को काफी जगह दी गई है. पर कफूर को भी अलाउद्दीन की ही तरह भंसाली की सनक ने किसी काॅमिक्स मैगजीन का पात्र बना दिया.
हकीकत में वो एक निहायत काबिल इंसान था. तलवार और दिमाग दोनों से शातिर. इतना बड़ा साम्राज्य बनाने में उसकी भूमिका भी काफी अहम थी. उसे अलाउद्दीन खिलजी के बाद सबसे ताकतवर माना जाता था. अलाउद्दीन आखिरी दिनों में जब बीमार हो गया तो पूरा शासन कफूर चलाता था. पर फिल्म में वो जाॅनी लीवर के फिल्मी किरदार का कमजोर रूप लगता है.
इतिहास से लिबर्टी लेने को मैं बुरा नहीं मानता. रचनाधर्मियों को इतनी इजाजत मिलनी चाहिये पर खलनायक बनाने की फिराक में अत्यंत एकांगी चरित्र गढ़ना फिल्म को तो कमजोर करता ही है निर्देशक के इतिहासबोध पर भी सवाल खड़े करता है.
'बाजीराव मस्तानी' के किरदार भी इतिहास से उठाये गये थे. उसमे भी बाजीराव के चरित्र को नाटकीय बना दिया गया था. रणवीर सिंह किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाते. जबकि बाजीराव को विश्व इतिहास के सबसे बड़े सेनापतियों में गिना जाता है.
बाजीराव ने चालीस लड़ाइयों में हिस्सा लिया और कभी मात नहीं खाई. भंसाली ने बाजीराव को अंत में चूं-चूं का मुरब्बा साबित कर दिया. पर फिल्म इसलिये पसंद की गई क्योंकि वो कई स्तरों पर चलती है. उसमें प्रेम है, रिश्तों की जकड़न है, षड्यंत्र है, ब्राह्मणवाद है, हिंदू-मुस्लिम द्वंद्व है, स्टेटक्राफ्ट है, स्त्री जनित ईर्ष्या है. इसलिये बाजीराव का चरित्र उतना नहीं खटकता.
'पद्मावत' में सिर्फ एक सुल्तान का पागलपन है. पद्मावती का चरित्र भी पूरी तरह से नहीं उभारा गया है.'बाजीराव मस्तानी' में मस्तानी से ज्यादा बाजीराव की पहली पत्नी काशी के चरित्र पर मेहनत की गई. उसकी मां, बेटे और भाई के किरदार सशक्त हैं, फिल्म में लगातार तनाव बना रहता है. जबकि 'पद्मावत' में पद्मावती को आभूषणों से लादकर चरित्र की इतिश्री कर ली गई. आभूषण उसके सौंदर्य को निखारते नहीं. घिसे पिटे कमजोर संवादों ने फिल्म का भट्टा ही बैठा दिया. और तनाव के नाम पर बस भौंडी नौटंकी है.
ऐसा लगा कि भंसाली ने तय कर लिया था कि वो खिलजी को नाटकीय बना कर फिल्म को बाॅक्स आॅफिस पर हिट करा लेंगे. भंसाली को मेरी सलाह है कि इस फिल्म के बाद वो दुबारा फिल्म मेकिंग का कोर्स करें, डेविड लीन की फिल्में देखें, समझने की कोशिश करें कि किरदार बिना नाटकीय और सनकी हुये भी अपनी सहजता में फिल्म को अमर कर जाते हैं.
‘लाॅरेंस आॅफ अरेबिया’ में रेगिस्तान भी पीटर ओ टूल को बराबर की टक्कर देता है और ‘डा जिवागो’ में रात के समय बर्फ में भागती ट्रेन एक जिंदा किरदार बन फिल्म को नये आयाम देती है. ये लीन का क्राफ्ट था, क्राफ्ट पर पकड़ थी. भंसाली को ये सब क्या बताना? वो तो मान बैठे हैं कि वो हिंदुस्तान के सबसे बड़े फिल्मकार हैं वैसे ही जैसे कई साल पहले रामगोपाल वर्मा को भी ये गुमान हो गया था. तब उन्होंने एक फिल्म बनाई थी ‘राम गोपाल वर्मा की आग'. अब मैं आगे कुछ नहीं कहूंगा. बस. जय हिंद.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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