''पुल पार करने से, पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती''
----------------------------
नरेश सक्सेना
कन्याकुमारी से शुरू हुई कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा (Bharat Jodo Yatra) जारी है, जिसे कुल 3,570 किमी. का सफर तय करना है. हमारे देश में पदयात्राओं का एक इतिहास रहा है. गांधी जी ने 1930 में नमक आन्दोलन के नाम से सावरमती आश्रम से दांडी के लिए पदयात्रा शुरू की थी. करीब 240 मील चलकर दांडी पहुंचे थे. इसके बाद 1933-34 में उन्होंने छुआछूत के खिलाफ पदयात्रा की. 1951 में गांधीवादी विचारों के अनुयायी विनोबा भावे ने भूदान आन्दोलन के लिए पदयात्रा की.
तेलंगाना से शुरू करते हुने आचार्य विनोबा भावे बोध गया पहुंचे थे. 6 जनवरी 1983 में चन्द्र शेखर ने कन्याकुमारी से अपनी पदयात्रा धुरु की और 25 जून 1983 को दिल्ली के राजघाट पहुंचे थे. उनकी यात्रा 4260 किमी. लंबी थी.
इसके अलावा समय-समय पर गांधीवादी विचारों से प्रभावित राजनेता और समाजसेवी पदयात्रा करते आए हैं. अन्य प्रदेशों के नेता भी अपने राजनीतिक और सामाजिक फायदों के लिए समय-समय पर लंबी दूरी तक पैदल यात्राएं करते आए हैं. इसकी एक परम्परा सी बन गई है.
पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्रशेखर को अपनी यात्रा शुरू करते समय इस बात की फ़िक्र थी कि लोग इसे सियासी नाटक समझेंगे. फ़िक्र सही भी थी. उनको अहसास था कि भाषा की दिक्कतें सामने आएंगी. पर बाद में उन्हें अहसास हुआ कि ‘ह्रदय की भाषा’ सभी समझते हैं. हृदयहीन राजनीति की दुनिया में एक राजनेता ‘ह्रदय की भाषा’ बोलता भी है, और लोग समझते भी हैं, यह एक दिलचस्प सवाल है. एन टी रामाराव ने भी आन्ध्र प्रदेश में करीब 1500 कि.मी. की यात्रा की थी. इसका उन्हें राजनीतिक लाभ भी मिला था. मौजूदा समय में इस तरह की यात्राओं में सबसे अधिक चर्चित रही है, लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा जिसने अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण की मांग को एक नई दिशा दे डाली.
गांधी को मिली थी सलाह ''पदयात्रा में आंख-कान खुले, मुंह बंद रखें''
गांधी जी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उनको सलाह दी थी कि पदयात्राओं के दौरान वह अपनी आँखें और कान खुले रखें पर अपना मुंह बंद रखें. उनकी सलाह थी कि देश दुनिया को समझना है तो देखना और सुनना ही दो ऐसे तरीके हैं जिनके द्वारा लोगों को, उनकी समस्याओं को समझा जा सकता है. मुंह बंद रखने की सलाह का अर्थ था कि लोगों के सामने अपनी बातें न रखें, बस उनको सुनें. आपके पास सारे जवाब नहीं और उनके पास बहुत कुछ है आपसे कहने के लिए. गांधी जी ने उनकी बात मानी और राजनीतिक दुनिया में एक नई तहजीब सिखाई.
राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से ये पद यात्राएं लाभकारी होती हैं. हां, विदेशों में इस तरह की यात्राओं की परंपरा नहीं. वहां लोग अपनी कार और हवाईजहाजों पर यात्रायें करते हैं; लोगों से मुलाकात करते हैं. पर राजनीतिक और सामाजिक समर्थन जुटाने के लिए पदयात्राएं हैं उपयोगी.
शीर्ष नेता इन यात्राओं के जरिये यह संदेश भी दे देते हैं कि वे देश की नब्ज़ पहचानते हैं.उन्होंने गांव, गली, मोहल्लों के लोगों से सीधे बातचीत की है, उनके साथ उठे-बैठे हैं.उनको समझा है, उन्हें अपनी बातें समझाई हैं. लोगों में उत्साह और उत्तेजना का संचार भी होता है. यह सिर्फ भावनात्मक प्रतिक्रिया है या फिर इसमें कोई देश हित भी होता है, यह बात दीगर है. यह सारी मेहनत मशक्कत वोटों में तब्दील हो पाती है या नहीं, यह तो चुनाव का समय ही बताता है. यह कहना गलत होगा कि इन यात्राओं का कोई राजनीतिक मकसद नहीं होता, हालाँकि वोटर मन में क्या ठाने बैठे हुए हैं, इसकी खबर तो मत गणना के दिन तक नहीं लग पाती!
पद यात्रा की आलोचना होना लोकतंत्र का दस्तूर है
उम्मीद है राहुल गांधी ने पदयात्राओं के इस इतिहास पर एक नजर डाली होगी. गांधी जी के राजनीतिक गुरु की हिदायत को ध्यान में रखेंगे. राहुल गांधी की भारत जोड़ो पदयात्रा की आलोचना होगी ही, और होनी शुरू भी हो गई है. लोकतंत्र के दस्तूर के मुताबिक यह तो होना ही है. एन डी ए की विराट आई टी सेल पूरी ताकत के साथ इस यात्रा का मखौल उड़ाने में लग चुकी है. गौरतलब है कि इस समय भारतीय विपक्ष कई तरह की तूफानी गतिविधियों में लगा हुआ है. एक तरफ नीतीश कुमार अलग अलग रंगों, चाल-चलन और विचारधाराओं वाले दलों को एक साथ लाने का काम पूरे जोर शोर से कर रहे हैं.
साथ ही यह दोहराते जा रहे हैं कि उनकी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं ये सब करने में. वे एक विरक्त, निर्लिप्त, निष्काम योगी की इमेज प्रस्तुत कर रहे हैं जो सिर्फ और सिर्फ इस देश को बचाने का काम करने के महान यज्ञ में अपनी निजी स्वार्थ की आहुति देकर देश का हित कर रहा है. कांग्रेस ने भी अलग तरह का भ्रम रच दिया है.
पदयात्रा के जरिए सबसे लोकप्रिय चेहरा बनने की कोशिश में राहुल ?
एक ओर तो राहुल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से दूर रहने का ऐलान कर चुके हैं, और दूसरी तरफ समूचे देश में घूम-घूम कर लोकप्रियता बटोर रहे हैं.ऐसे में पार्टी का अध्यक्ष बनने लायक बचा ही कौन रहेगा? सबसे लोकप्रिय नेता के अलावा पार्टी और किसे संगठन का दायित्व सौंपेगा?
आखिरकार हो सकता है पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी उन पर ही आये, या फिर ऐसे किसी नेता पर जो उनके खेमे का हो. फिलहाल तो अशोक गहलोत इसमें सबसे आगे दिख रहे हैं, पर राष्ट्रीय स्तर पर गहलोत को कौन महत्त्व देता है, यह सवाल तो बना रहता है? यदि विपक्ष का महागठबंधन बन भी गया तो यह एक चमत्कार ही होगा. केजरीवाल और कांग्रेस, ममता और वामपंथियों को साथ-साथ देखना फिलहाल तो एक अजीबोगरीब स्वप्न की तरह ही लगता है. सबकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं, इन्होंने मिलकर बीजेपी को हरा भी दिया तो कितने दिन साथ रहेंगे,कह नहीं सकते. तमाम उठापटक का फायदा आखिरकार भाजपा को ही मिल जाएगा. उसे वही लोग कामयाबी दिला जायेंगे जो उनके खिलाफ एकजुट होने की कोशिश में लगे हुए हैं. ऐसा ही प्रतीत होता है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)