ADVERTISEMENTREMOVE AD

BR अंबेडकर के नाम पर राजनीति करने वाले दलितों को सही हिस्सेदारी क्यों नहीं देते?

बीआर अम्बेडकर की 66वीं पुण्यतिथि पर उनकी सुधारवादी और बंधन मुक्त राजनीतिक विरासत का पुनर्मूल्यांकन करना उचित होगा.

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

(इस आर्टिकल को भीम राव अंबेडकर की जयंती पर फिर से पब्लिश किया जा रहा है. इससे पहले ये खबर 6 दिसंबर 2022 को पब्लिश की गई थी)

जब भी भारत में सामाजिक न्याय यानी सोशल जस्टिस पर चर्चा होती है, तब बड़े ही सम्मान से डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर (Dr Babasaheb Ambedkar) के नाम के साथ उसकी शुरुआत की जाती है. डॉ. अम्बेडकर ने सामाजिक रूप से उत्पीड़ित आबादी की आजादी के लिए बहादुरी से लड़ाई लड़ी और उनकी वजह से देश की सामाजिक-राजनीतिक मानसिकता में महत्वपूर्ण बदलाव आया.

सरकार के संस्थानों में सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े समूहों के लिए न्यायसंगत स्थान की मांग वाली उनकी उत्साही वकालत ने भारतीय लोकतंत्र को अधिक समावेशी और मौलिक बना दिया है.

डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर 'सबऑल्टर्न' पॉलिटिकल लीडरशिप के एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में उभरे हैं, जिन्होंने न केवल कांग्रेस पार्टी के शक्तिशाली राष्ट्रवादी नेतृत्व का मुकाबला किया बल्कि वंचित वर्गों के लिए एक अलग संस्थागत पहचान बनाई और एक बंधन-मुक्त राजनीतिक विचारधारा को प्रस्तुत किया.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

अंबेडकर के राजनीतिक रास्ते पर क्या केंद्र सरकार चल सकती है?

मौजूदा केंद्र सरकार भी यह दावा करती है कि वह अम्बेडकर के सामाजिक न्याय एजेंडे का समर्थन और उसका पालन करती है. हालांकि सरकार के लिए अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाना मुश्किल होगा, क्योंकि उनकी राजनीति का मतलब था दलित-बहुजन समुदायों को सामाजिक अभिजात वर्ग के आधिपत्य के खिलाफ सत्ता के लिए स्वायत्त मध्यस्थ के रूप में स्थापित करना.

हालांकि सामाजिक न्याय के एजेंडे के कुछ पहलुओं (जैसे सांकेतिक प्रतिनिधित्व) को साकार किया जा सकता है, लेकिन इसके तथ्य के बावजूद भी देश की सत्ता के शीर्ष पर एक संगठित दलित-बहुजन नेतृत्व की कल्पना करना, अभी भी एक दूर का सपना है.

अम्बेडकर ने अपने जीवन काल में तीन राजनीतिक दलों को स्थापित किया. सबसे पहले उन्होंने 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की, यह पार्टी वामपंथी-समाजवादी विचाधारा की पृष्ठभूमि वाली थी. इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने गरीब काश्तकारों, खेतिहर मजदूरों और कंपनियों में काम करने वाले श्रमिकों के मुद्दों को उठाया. इस पार्टी का प्रदर्शन काफी प्रभावशाली था, क्योंकि पार्टी ने 13 आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में से 11 सीटें जीती थीं और 1937 के बॉम्बे प्रेसीडेंसी के विधानसभा चुनावों में तीन सामान्य (जनरल) सीटें भी जीती थीं. हालांकि अन्य क्षेत्रों पर इस पार्टी का कम प्रभाव था और गैर-महार समुदाय इस पार्टी से दूरी बनाए रखते थे.

1942 में, जब संविधान लेखन की प्रक्रिया की घोषणा की गई, तब अम्बेडकर ने महसूस किया कि 'अछूत जातियों' को अन्य अल्पसंख्यक समूहों के समान अपने सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों पर जोर देने की आवश्यकता है.

अम्बेडकर ने दलित वर्गों को एक बैनर के तहत एकजुट करने की आवश्यकता को स्वीकारा और विशेष मांगों को उठाने के लिए अपनी दूसरी पार्टी 'ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन (AISCF)' की स्थापना की. यह पार्टी अन्य प्रांतों (विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और पंजाब) तक फैल गयी, लेकिन इसका प्रमुख ध्यान अछूतों के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों की मांग पर रहा.

अम्बेडकर की बंधन मुक्त राजनीति ने वंचितों को सशक्त बनाया

आखिरकार, 1956 में, अपने निधन के कुछ महीने पहले अम्बेडकर ने AISCF को रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI) के रूप में पुनर्गठित किया. उनका मानना था कि नई पार्टी को आधुनिक और उदार सिद्धांतों को अपनाना चाहिए और कांग्रेस पार्टी के वर्चस्व के खिलाफ समान विचारधारा वाले संगठनों के साथ गठबंधन करना चाहिए. अम्बेडकर दलित-पिछड़े वर्ग का गठबंधन बनाने के लिए आशान्वित थे इसलिए उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी (मुख्य रूप से जय प्रकाश नारायण के साथ) के साथ संपर्क बनाने की कोशिश की थी.

अपने राजनीतिक सफर में अम्बेडकर ने राष्ट्रवादी सामाजिक अभिजात वर्ग के उद्देश्यों और सामाजिक विचारों से स्पष्ट रूप से दूरी बनाए रखी, प्राचीन भारत के एक अलग विचार के आधार पर उन्होंने एक स्वायत्त सामाजिक-राजनीतिक विकल्प तैयार किया. उन्होंने जोर देकर कहा कि दलित-बहुजन अतीत महान सभ्यतागत योगदान के बारे में है, जिसे ब्राह्मणवादी "प्रतिक्रांति" (क्रांति-विरोध) द्वारा बर्बाद और बिगाड़ा गया है.

हिंदू धर्म को लेकर उनकी मुखर आलोचना इस मूल्यांकन पर आधारित है कि पदानुक्रमित जाति व्यवस्था पर आधारित यह धर्म खुले तौर पर एक विशाल बहुमत (महिलाओं सहित) के साथ भेदभाव करता है और एक महत्वपूर्ण वर्ग, विशेष रूप से अछूतों को जानवरों से भी बदतर मानता है. इस तरह की दृश्य सामाजिक त्रासदियों की उपेक्षा करने वाली कोई भी राजनीतिक व्यवस्था अम्बेडकर के लिए 'राष्ट्र-विरोधी' थी.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

"गैर-प्रतीकवाद और न्यायसंगत प्रतिनिधित्व"

दूसरा, संसदीय लोकतंत्र पर कट्टरपंथी-वामपंथी आलोचनात्मक धारणा से अम्बेडकर भिन्न थे. इसके बजाय, उन्होंने उत्पीड़ित समूहों को उदार-लोकतांत्रिक आदर्शों के पक्ष में एकजुट किया और संवैधानिक लोकतंत्र के समर्थक बने रहे. अम्बेडकर द्वारा अपने समुदाय से बौद्ध धर्म में धर्म परिवर्तन के लिए की गई अपील आधुनिक उदार सिद्धांतों का पूरक है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों पर समाज की परिकल्पना करता है.

तीसरा, अम्बेडकर ने ऐतिहासिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों के खिलाफ सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित वर्गों के हितों को ध्यान में रखते हुए उद्देश्यपूर्ण ढंग से अपने राजनीतिक दलों में सुधार किया. सरकार में समान हिस्सेदारी का दावा करते हुए अम्बेडकर की राजनीतिक सक्रियता ने राजनीतिक हलकों में सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े समूहों के पहले प्रवेश का प्रतिनिधित्व किया. उन्होंने यह तर्क दिया कि एक सार्थक लोकतंत्र के कामकाज के लिए, गरीबों की भागीदारी और सामाजिक रूप से उत्पीड़ित समूहों के प्रतिनिधित्व की अनुमति दी जानी चाहिए.

अंत में, सत्ता के हलकों में दलित-बहुजन समूहों के आवधिक 'सांकेतिक' प्रतिनिधित्व से भी अम्बेडकर संतुष्ट नहीं थे. अम्बेडकर के अधीन होने वाला राजनीतिक आंदोलन एक समतामूलक राजनीतिक संस्कृति के निर्माण का एक गंभीर प्रयास था, जिसमें दलित स्वतंत्र रूप से सत्ता और समान अधिकारों के वैध दावेदारों के रूप में हिस्सा ले सकें.

दलित-बहुजन राजनीति का क्या भविष्य है?

अम्बेडकर के बाद भारत में सामाजिक न्याय आंदोलन अम्बेडकरवादी विचार के प्रभाव में विकसित हुआ है. यह अपनी जीवंतता, बौद्धिक परंपरा और धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी मूल्यों के लिए जाना जाता है. उदाहरण के लिए, कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने वैचारिक उत्साह और जन समर्थन के साथ राजनीतिक प्रतिष्ठान का मुकाबला करने में प्रभावशाली छाप छोड़ी थी. बीएसपी ने लगातार राजनीतिक विचार-विमर्श में दलित निर्वाचन क्षेत्र को एक प्रमुख मध्यस्थ के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की.

हालांकि पार्टी ने 1990 के दशक के दौरान महत्वपूर्ण राजनीतिक संघर्षों पर दलित जनता को एकजुट किया और बाद में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक ऐतिहासिक जीत हासिल की, लेकिन दक्षिणपंथी दावे के खिलाफ एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था विकसित करने में इसका सीमित प्रभाव था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
दलित राजनीतिक आंदोलन पिछले एक दशक में नरम पड़ गया है, जिससे दक्षिणपंथी बीजेपी को दलित-बहुजन समूहों के नेतृत्व का दावा करने में गुंजाइश मिली है. अब हिंदुत्व को एक सर्व-समावेशी विचारधारा के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है जो सभी को उपयुक्त प्रतिनिधित्व प्रदान करने का दावा करती है.

अम्बेडकर के सामाजिक और राजनीतिक विचार सत्ता की होड़ में सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े समूहों के स्थान और स्थिति की जांच करने में हमारी मदद करते हैं. मुख्यधारा के राजनीतिक विमर्श में दलित-बहुजन समूहों का स्पष्ट तौर पर हाशिए में जाना और उनकी वैचारिक योग्यता में गिरावट केवल सामाजिक रूप से उत्पीड़ित समूहों की कमजोरियों और शक्तिहीनता को उजागर करता है.

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करने के लिए दलित-बहुजन राजनीतिक स्वायत्तता पर फिर से जोर देने और सामाजिक न्याय के लिए स्वतंत्र आंदोलनों की जरूरत है. अंबेडकर के राजनीतिक विचारों का पुनर्मूल्यांकन करने का यह उपयुक्त समय है ताकि भारतीय लोकतंत्र को वाकई में मौलिक और गणतंत्र बनाया जा सके.

(डॉ. हरीश एस वानखेड़े सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू, नई दिल्ली में पढ़ाते हैं. वे पहचान की राजनीति, दलित प्रश्न, हिंदी सिनेमा और न्यू मीडिया पर लिखते हैं. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×