बाबा साहेब की जयंती पर एक सवाल पूछा गया- “मुख्यधारा के जन संवाद यानी पब्लिक डिसकोर्स में दलित विमर्श गायब क्यों है?” लेकिन इस सवाल के जवाब से पहले कुछ और बुनियादी सवाल हैं, जिनके जवाब तलाशने की जरूरत है. इस सिलसिले में पहला सवाल यह है कि यह मुख्यधारा किसकी है, और इसकी कमान किसके हाथ में है. हम लोग मुख्यधारा को किस तरह परिभाषित करते हैं? क्योंकि मुख्यधारा की कमान जिसके पास होगी, वही उसे परिभाषित भी करता रहेगा.
इस सवाल के जवाब में हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि पब्लिक डिसकोर्स को तैयार करने वाली जगहों पर सवर्ण काबिज हैं- बहुत बड़ी संख्या में. पब्लिक डिसकोर्स तैयार करने में मीडिया से लेकर एकैडमिया और पापुलर कल्चर बड़ी भूमिका निभाते हैं. मीडिया में अखबार से लेकर इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया, एकैडमिया में यूनिवर्सिटी, कॉलेज और पॉपुलर कल्चर में फिल्म और आर्ट शामिल है.
चूंकि इन सभी जगहों पर अपर कास्ट का ओवर रिप्रेजेंटेशन है, इसीलिए वे ही तय करते हैं कि जन विमर्श क्या होगा. किन मुद्दों पर बातचीत होगी. बातचीत की दिशा क्या होगी.
पब्लिक डिसकोर्स तैयार करने वाली जगहों पर कौन बैठा हुआ है?
2019 में ऑक्सफैम इंडिया की पार्टनरशिप के साथ द मीडिया रंबल ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसका नाम था, हू टेल्स आवर स्टोरीज मैटर. इसमें भारतीय मीडिया में जाति समूहों के प्रतिनिधित्व पर स्टडी की गई थी. इसमें कहा गया था कि न्यूजरूम्स में ‘ऊंची’ जातियों का ही वर्चस्व है. लीडरशिप वाले 121 पदों पर सिर्फ और सिर्फ अपरकास्ट हैं. यहां तक कि अखबारों में लेख लिखने वाले भी 95% लोग अपरकास्ट के हैं.
इसी तरह 2014 के ऑल इंडिया ऑन हायर एजुकेशन के आंकड़े कहते हैं कि उच्च शिक्षण संस्थानों की फैकेल्टी में अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व 6.95% और अनुसूचित जनजातियों का 1.99% है. यही वजह है कि इन जातियों के विद्यार्थियों के साथ लगातार भेदभाव होता है. 2015-16 में यूजीसी ने एक आरटीआई के जवाब में बताया था कि देश के 53% से भी ज्यादा विश्वविद्यालयों में ऐसी कोई व्यवस्था कायम नहीं की गई है कि दलित-आदिवासी विद्यार्थी किसी भेदभाव की शिकायत तक दर्ज करा सकें.
देश में लगभग 800 विश्वविद्यालय हैं. जिन विश्वविद्यालयों में ऐसी व्यवस्था है उनमें से 87% ऐसी शिकायतों से साफ इनकार करते हैं. पॉपुलर कल्चर का भी यही हाल है.
द हिंदू में छपी एक स्टडी में बताया गया था कि 2013 और 2014 की बॉलिवुड फिल्मों में लीड कैरेक्टर्स के नाम अपर कास्ट थे. 2014 की सिर्फ दो फिल्मों में लीड कैरेक्टर्स साफ तौर से पिछड़ी जातियों के नाम वाले थे.
तो, उन्होंने अपनी मेज और कुर्सी ही लगा ली
ऐसे में बहुजन लोगों ने मुख्यधारा को ही अपनी तरह से परिभाषित कर लिया है. जिसे हम ऑल्टरनेटिव स्पेस कहते हैं. जैसा कि कभी अमेरिका में पहली बार राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार रही शर्ली चिजेम ने कहा था, वे लोग अगर आपको अपनी मेज पर बैठने के लिए कुर्सी न दें, तो अपनी फोल्डिंग कुर्सी ले आइए. यहां हुआ यह है कि बहुजन लोग अपने लिए सिर्फ कुर्सी नहीं, अलग से मेज भी लगा रहे हैं. ये मेजें पहले भी थीं- हां, बाकी लोग उसे नजरंदाज किए दे रहे थे.
पॉपुलर कल्चर में अपना स्पेस
इसकी मिसाल पिछले कई सालों में सिनेमा में देखने को मिल रही है. खास तौर से क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों में. तमिल सिनेमा में अनुसूचित जाति के लोगों ने बड़ा बदलाव किया है. कम से कम तीन फिल्मकारों ने- पा. रंजीत, (अट्टाकथी, मद्रास, कबाली और काला), गोपी नायनार (अराम्म) और मारी सेलवराज (पेरियेरुम पेरुमल). इन्होंने फिल्म उद्योग पर बहुत असर किया है. परदे पर दमित और अल्पसंख्यक जातियों के मौजूदगी से कई दशकों पुराने स्टीरियोटिपिकल प्रतिनिधित्व को चुनौती भी मिली है. इसके अलावा नागराज मंजुले ने मराठी फिल्मों को एक नई दिशा दी है. उनकी फैंड्री के बाद सैराट जैसी फिल्मों को जबरदस्त सफलता भी मिली.
ऐसे ही म्यूजिक की दुनिया में अरिवु जैसे एंटी कास्ट आर्टिस्ट उभरे हैं जो समानता की आवाज के साथ रैप कर रहे हैं. उनका हाल का म्यूजिक वीडियो इंजॉय इनजामी खूब लोकप्रिय हो रहा है. वह कास्टलेस कलेक्टिव के मेंबर है और अब तक दर्जन भर से ज्यादा गाने लिख चुके हैं. इसके अलावा औरंगाबाद की कदुबाई देवदास खरात उर्फ भीमकन्या, पंजाब की रैप और हिपहॉप सिंगर गिनी माही, म्यूजिक बैंड कास्टलेस कलेक्टिव और योगेश मैत्रेया का पैंथर्स पॉ पब्लिकेशंस- सभी कला के जरिए जातिवाद पर चोट कर रहे हैं. मालविका राज जैसी मधुबनी आर्टिस्ट अंबेडकर, बुद्ध और दूसरे क्रांतिकारियों की कहानियां और जीवन के चित्र उकेर रही हैं.
स्टूडेंट्स भी कर रहे हैं विमर्श
जेएनयू में 2014 में बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन संगठन यानी बाप्सा का बनना, इस बात को साबित करता है कि शिक्षा के क्षेत्र में भी नया विमर्श खड़ा हो रहा है. इस संगठन पर अध्ययन किए जाने की जरूरत है कि इतने कम समय में इसे इतनी लोकप्रियता कैसे मिली. चूंकि लेफ्ट, सेंटर और राइट, सभी किस्म के विद्यार्थी संगठनों के सामाजिक प्रोफाइल में विविधता की कमी थी. वह आवाज सुनाई नहीं दे रही थी. इससे पहले 1993 में हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में अंबेडकर स्टूडेंट यूनियन्स भी बनाई गई थी. बाप्सा के अलावा रोहतक की महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी की डॉ. अंबेडकर स्टूडेंट्स फ्रंट ऑफ इंडिया, जेएनयू की ही यूनाइडेट दलित स्टूडेंट्स फोरम ऐसे ही दलित विमर्श खड़ा कर रही हैं. वहां वे आरक्षण के मुद्दों पर बात करते हैं, और इस बारे में भी कि कैसे उन्हें लगातार भेदभाव का शिकार बनाया जाता है.
वैकल्पिक मीडिया का सहारा
जन संवाद को आवाज देने में मीडिया का बड़ी भूमिका है. जिसे चौथा खंभा कहते हैं. लेकिन ये चौथा खंभा दलितों के दमन की नींव पर ही मजबूत किया जा रहा है. ऐसा नहीं है कि दलित विमर्श यहां मौजूद नहीं रहा है. 1920 में मूकनायक और फिर 1927 में बहिष्कृत भारत जैसे अखबार छप रहे थे. चूंकि बहुजन नेताओं को महसूस हो रहा था कि मुख्यधारा का मास मीडिया परंपरागत जाति व्यवस्था को भी दर्शाता रहेगा. इन दोनों अखबारों ने धर्म, समाज और राजनीति पर बराबर सवाल उठाए थे. लेकिन धीरे धीरे ऐसी आवाजें धीमी पड़ी. फिलहाल कई सालों से ये आवाजें तेज हुई हैं.
खास तौर से डिजिटल मीडिया के आने के बाद. दलित दस्तक जैसी वेबसाइट 2012 से रोजाना होने वाले भेदभावों को जाहिर कर रही है. जस्टिस न्यूज हाशिए पर धकेल दिए गए समूहों की खबरें छापती हैं. दलित कैमरा नाम का यूट्यूब चैनल विमर्श भी कर रहा है. मौखिक इतिहास और संगीत का सहारा भी लेता है. राउंट टेबल इंडिया न्यूज, फीचर और ओपिनियन पीस छापता है. ऑनलाइन मैगेजीन वेलवादा एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जो हाउसिंग सोसायटीज़, वर्कप्लेस और शिक्षण संस्थानों में फर्स्ट पर्सन में जाति आधारित भेदभाव को बयान करता है.
सोशल मीडिया पर कितने ही प्रोफाइल्स नए सिरे से पुराने सवाल उठा रहे हैं. दलित लाइव्स मैटर, दलित आर्ट आर्काइव जैसे इंटाग्राम प्रोफाइल्स जाति और कला के इंटरसेक्शंस पर इतिहास को दर्ज कर रहे हैं. दलित हिस्ट्री नामक प्रोफाइल में कहा गया है कि हर महीना दलित हिस्ट्री का महीना होता है. बेकरी प्रसाद यानी सिद्धेश गौतम, श्याम कार्टूनिस्ट, लोकेश पूजा उके चित्रों के जरिए अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं.
तो, जातीय श्रेष्ठता और उसके अधिकार का अहंकार सिर्फ संयोग नहीं होता. यह सभ्य समाज की बुनियाद पर ही चोट है. और इस चोट से आहत लोग अपने लिए नई दुनिया रच रहे हैं, तो इसकी वजह यही है कि मौजूदा दुनिया में उनके लिए जगह बनाई ही नहीं गई है. विमर्श तेज हो रहा है. अपनी अपनी कुर्सियां और मेज लेकर मंच सज गया है.
(माशा लगभग 22 साल तक प्रिंट मीडिया से जुड़ी रही हैं. सात साल से वह स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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