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JDU-BJP और वो:‘बेवफाई’ के बाद भी नीतीश की चुप्पी का राज क्या है  

बिहार में BJP-LJ​P के ‘अफेयर’ को नीतीश चुपचाप देखते रहेंगे, ये मुश्किल है

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निश्चित तौर पर तीन बातें हैं, जो बिहार में चुनाव को लेकर स्पष्ट रूप से कही जा सकती हैं.पहली यह कि जो राजनीतिक स्थिति बन गयी है कि वह न तो स्पष्ट है और न ही संतुलित. अभी से लेकर 10 नवंबर के बीच जब वोट गिने जाएंगे और शायद उसके बाद भी ऐसी बातें हो सकती हैं जो पहले न हुई हों.

दूसरी, डबल डीलिंग का मौसम आने वाला है.पार्टियां मानेंगी कुछ और करेंगी ठीक उससे अलग. आधिकारिक रूप से गठबंधन बनेंगे, लेकिन केवल उसका उल्लंघन होगा. छिपे हुए झूठ और छिपे हुए इरादे ही इस चुनाव मौसम के पैमाने होंगे.

तीसरी बात, षडयंत्र थ्योरी को चलाने वाले बाजार अचानक खुल गये हैं- अचानक ऐसी स्थिति बनी है कि हर संभावना सराहनीय हो गयी हैं. हिन्दी में लोकप्रिय मुहावरा है- ‘मुंह में राम-राम बगल में छुरी’. यह तकरीबन सभी दलों और खासकर सत्ताधारी दलों के गठबंधन के लिए सही होने जा रहा है.

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क्या सचमुच महागठबंधन में दरारें बढ़ी हैं? भारत के निर्वाचन आयोग ने कोविड-19 के बाद पहले विधानसभा चुनावों के लिए बमुश्किल 10 दिन पहले चुनाव का बिगुल फूंका था और तब से जबरदस्त बदलाव आ चुका है.

क्या सरकार से नाराज हैं लोग

तब सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) न सिर्फ व्यवस्थित दिख रहा था, बल्कि वह विपरीत परिस्थितियों से लड़ने में सक्षम भी दिख रहा था. कई महीनों से बीजेपी लगातार जोर देकर कहती रही थी कि वह नीतीश कुमार को अपने मुख्यमंत्री के तौर पर आगे करेगी और सीटों के बंटवारे को लेकर गठबंधन सौहार्दपूर्ण सहमति की ओर बढ़ रहा है. इनमें मुख्य पार्टियां भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यू के साथ-साथ छोटे सहयोगी जीतन राम मांझी की पार्टी हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा थी.

विपक्षी खेमा महागठबंधन के लिए यह बहुत मुश्किल काम था, फिर भी ऐसा लगता है कि उसने इन बाधाओं को दूर कर एक मोर्चा तैयार कर लिया है.

पूरे कुनबे को लालू प्रसाद की कमी स्पष्ट रूप से खल रही है, लेकिन उसे उम्मीद है कि मुख्यमंत्री के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी और तेजी से फैलती कोविड महामारी से निपटने में राज्य सरकार की नाकामी का फायदा उसे मिलेगा. हालांकि एक बड़े चुनाव एजेंसी ने सत्ताधारी दल के लिए बिहार में जीत की संभावना देखी और नीतीश कुमार को अपने प्रतिद्वंद्वी तेजस्वी यादव से बहुत आगे आंका है. इसमें एक और बात नजर आती है- ज्यादातर जवाब देने वाले लोग सरकार से नाराज हैं और ‘बदलाव’ चाहते हैं. बहरहाल एक बाहरी एजेंसी भी, जिसे उसके ट्रैक रिकॉर्ड के कारण खारिज नहीं किया जा सकता, बदलाव की संभावना को लेकर अधिक निश्चिंत दिखी और तेजस्वी यादव को लोकप्रियता की रेटिंग में मुख्यमंत्री से आगे दिखाया.

पासवान को बीजेपी का मौन समर्थन

बीजेपी ओर लोकजनशक्ति पार्टी ने हवा का रुख भांपा था, जिसे अब चिराग पासवान दिशा दे रहे हैं. राजनीतिक वास्तविकता के बारे में बीजेपी की जो समझ है वही उस मौन समर्थन का आधार है जो पासवान के साथ दिखता है. नीतीश कुमार के खिलाफ और बीजेपी के समर्थन में पासवान बैनर-पोस्टर उछाल रहे हैं.

बहरहाल, पैंतरेबाजी भी इसका सबूत है. युवा एलजेपी नेता कह रहे हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में ‘पूर्ण विश्वास’ है और “वह सोच जिसके साथ प्रधानमंत्री ने ‘डबल इंजन की सरकार’ का जिक्र किया था, अगर उस पर सही तरीके से अमल होता तो उनका विजन जमीन पर लागू हो चुका होता.” उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार की जरूरत है. निश्चित रूप से उनका तर्क है कि नीतीश कुमार का वक्त खत्म हो चुका है. इससे जेडीयू स्वाभाविक रूप से गुस्से में है.

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ऐसा लगता है कि जूनियर पासवान ने जोरदार तरीके से अपना कार्ड खेला है और ऐसी संभावना बनायी है कि बीजेपी उनकी पहल को मौन समर्थन दे.बीजेपी ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह जेडीयू के साथ साझेदारी से पूरी तरह से हट जाए. संभव है कि बातचीत के कई और राउंड देखने को मिले, क्योंकि अब नीतीश कुमार की बारी है कि वह बीजेपी की धज्जियां उड़ाएं.

उल्टा पड़ सकती है ‘अंदर से’ विरोधी पैदा करने की बीजेपी की कोशिश

जब बीजेपी एलजेपी से ‘साठगांठ’ कर उसके पैरों तले कालीन खींचने की कोशिश कर रही थी, तब किसी भी नेता की जुबान खुलती नहीं दिखी. चौथी बार जीत का मकसद लेकर आगे बढ़ रहे व्यक्ति से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि वह पौराणिक अभिमन्यु की तरह लड़ाई लड़कर दिखलाए जो चक्रव्यूह से निकलने में नाकाम रहा था.

नीतीश कुमार के पास निश्चित रूप से आस्तीनें उठाने के कई तरीके हैं और वे बिना लड़े हथियार नहीं डालेंगे. बीजेपी की ओर से जारी होने वाली उम्मीदवारों की सूची की घोषणा होने तक उनका जवाबी हमला रुका हुआ है.

ऐसा लगता है कि उन्हें गठबंधन की व्यवस्था के बारे में पता नहीं है.  एलजेपी और बीजेपी के साथ साझी सरकार की बात पर जो रुख नीतीश कुमार ने अपनाया है उसे समझने की जरूरत है.

संभवत: बीजेपी को यह समझाया गया कि कमजोर विपक्ष की ओर से कोई चुनौती नहीं है. लेकिन अपने गठबंधन में विपक्ष खोजने की कोशिश उल्टी पड़ सकती है.
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2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले के वर्षों के मुकाबले स्थिति बदल चुकी है. 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू ने एक साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था. तब बिहार में मोदी को चुनाव अभियान से रोकने में नीतीश कुमार सफल रहे थे. 2017 में जब नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनता दल के साथ राजनीतिक गठबंधन से बाहर हो गये और बीजेपी के साथ नाता जोड़ लिया, तो यह बात साफ थी कि कम से कम मोदी के साथ संबंध सामान्य नहीं रहेंगे. लेकिन, जरूरत की वजह से दोनों के बीच संबंध बना रहा.

बीते समय की शत्रुता निश्चित रूप से सामने आयी है हालांकि दोनों पक्ष के किसी भी नेता ने ऐसा साफ तौर पर कुछ कहा नहीं है. नीतीश कुमार से अलग जेडीयू का शायद ही कोई अस्तित्व हो लेकिन बीजेपी ने अपने नेताओं को खुली छूट दे दी है जो मोदी के प्रभुत्व के दौरान कुछ हासिल हो जाने की उम्मीद में ऐसा रुख ले रहे हैं.

बीजेपी की चाहत क्या ‘सीनियर पार्टनर’ का तमगा है?

बिहार के मुख्यमंत्री 2018 के बाद से ही कठघरे में हैं और जब से उनके विकल्प सीमित होने लगे थे. वास्तव में 2019 के संसदीय चुनाव में बीजेपी ने जेडीयू के साथ सीटों पर बराबरी का समझौता किया था क्योंकि वह शुरू में आश्वस्त नहीं थी कि पुलवामा के बाद मोदी के पक्ष में लहर थी.

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बीजेपी की चाहत अब यह है कि वह सीनियर पार्टनर का तमगा दोबारा हासिल करे जो स्थिति 2004 से पहले थी.

नीतीश कुमार के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने की पुष्टि करते हुए बीजेपी ने उन्हें शालीनता से ललकारा और उन्होंने कोई और ठिकाना नहीं खोजा. जैसा कि 2019 में महाराष्ट्र की घटनाओं ने दिखाया कि चुनाव पूर्व समझौता भी चुनाव नतीजे के बाद बदल जाते हैं. इसे देखते हुए अभी बहुत वक्त है और किसी भी बात से इनकार नहीं किया जा सकता.

बहरहाल ऐसा लगता है कि बिहार खंडित जनादेश की ओर बढ़ रहा है. यहां तक कि गठबंधन होने की स्थिति में भी जिसे बुना जा रहा है और बीजेपी-एलजेपी के बीच अंदरखाने की डील से एक ऐसी स्थिति बनी है जिसकी शुरुआत होनी बाकी है. बीजेपी और जेडीयू के कार्यकर्ताओं की मुश्किलों की कल्पना कर पाना मुश्किल है जो एक-दूसरे के लिए काम कर रहे हैं.

नतीजा यह है कि चुनाव पूर्व समीकरणों की तरह चुनाव बाद भी परिस्थिति ठोस नहीं रहने वाली है. जेडीयू के लिए जबरदस्त लाभ की स्थिति यह है कि प्रदेश की नौकरशाही पर उसका नियंत्रण है.
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क्या नीतीश कुमार जेडीयू के पक्ष में राज्य मशीनरी का लाभ उठा पाएंगे?

हालांकि बीजेपी सरकार में सहयोगी है मगर बिहार के मुख्यमंत्री इस बात में दक्ष हैं कि वह राज्य की मशीनरी का अपने पक्ष में फायदा उठा सकें.

नीतीश की टीम में ऐसे नेता हैं जिनमें नौकरशाही का इस्तेमाल करने और पार्टी उम्मीदवारों को इसका लाभ पहुंचाने एवं सहयोगी उम्मीदवारों के लिए बाधा बनने की क्षमता है.

बाकी दूसरे फैक्टर पर भी गौर करें तो मोदी की समग्र छवि उसके मुकाबले अब भी बहुत बड़ी है. लेकिन उनकी लोकप्रियता तभी बड़ा फैक्टर बनेगी जब उसी दिशा में खींचने वाली उसकी पूरक ईंजन होगी.

तीसरे फ्रंट के गठन से खेल और बिगड़ेगा. महामारी के साये में देश का पहला चुनाव संभवत: सुरक्षा के मानदंडों के दबाव में होगा लेकिन कुछ भी बदला नहीं है- और खेल के गला काट नियम वहीं हैं हमेशा की तरह.

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