तीन दिनों पहले तक बिहार में आत्म-विश्वास से लबरेज एनडीए खेमे को गुरुवार को जोर का झटका लगा. बिहार में विधानसभा उप-चुनाव में सत्तारुढ़ गठबंधन को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी. सबसे खराब हालत तो जेडीयू की रही, जिसे अपनी तीन सीटों से हाथ धोना पड़ा. इस उप-चुनाव के जरिए असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम की भी बिहार में इंट्री हो गई.
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए एकमात्र अच्छी खबर समस्तीपुर से मिली, जहां लोकसभा उप-चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी को 1 लाख से ज्यादा वोटों से जीत मिली है. यहां एलजेपी के प्रिंस राज ने कांग्रेस के डा. अशोक कुमार को आसानी से हरा दिया. यह सीट एलजेपी सुप्रीमो रामविलास पासवान के भाई रामचंद्र पासवान की मृत्यु की वजह से खाली हुई थी. प्रिंस राज उन्हीं के बेटे हैं.
वहीं, विधानसभा की पांच सीटों के लिए हुए उप-चुनाव में सत्तारुढ़ जेडीयू और बीजेपी बुरी तरह से हारी. इस वर्ष मई तक इनमें चार पर जेडीयू, जबकि एक पर कांग्रेस का कब्जा था.
उप-चुनाव में जेडीयू को बेलहर (बांका), दरौंदा (सीवान) और सिमरी-बख्तियारपुर (सहरसा) में हार का मुंह देखना पड़ा. बेलहर और सिमरी बख्तियारपुर में पार्टी को राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने धूल चटाई, तो वहीं दरौंदा मे पार्टी के बाहुबली नेता अजय सिंह को बीजेपी के बागी कर्णजीत सिंह के सामने घुटने टेकने पड़े. जेडीयू सिर्फ नाथनगर (भागलपुर) सीट को ही बचा पाने मे कामयाब रही. इसके लिए भी पार्टी को भारी मशक्कत करनी पड़ी.
इस उप-चुनाव में सबसे दिलचस्प लड़ाई अल्पसंख्यकों के दबदबे वाली किशनगंज सीट की रही. यहां AIMIM के कमरुल होदा ने परचम लहराया. उन्होंने बीजेपी की स्वीटी सिंह को 10 हजार से ज्यादा मतों से पराजित किया. AIMIM बीते कई वर्षों से बिहार की राजनीति में अपनी जमीन तलाश रही थी. पार्टी ने बीते छह वर्षों में सीमांचल के इलाकों मे अच्छी पैठ बना ली है. बीते लोकसभा चुनाव में भी इस इलाके में AIMIM के उम्मीदवार ने 2.5 लाख से ज्यादा वोट जुटाए थे.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इन नतीजों की अहमियत को नकारा दिया. उन्होंने कहा,
“लोकतंत्र में जनता मालिक है. वैसे हम उप-चुनाव में हारते हैं, तो अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में हमें जबरदस्त जीत मिलती है. इस बार भी यही होगा.”
उनका इशारा 2009 में उप-चुनाव में एनडीए की हार की ओर था, जब 18 सीटों में से 12 सीटों पर जेडीयू और बीजेपी हारी थी. हालांकि, 2010 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को 243 में से 216 सीटें मिली थीं.
हार के कारण
हालांकि, शुरुआती समीक्षा के आधार पर सभी दलों के नेता मौटे तौर पर तीन बातों पर एकराय रखते हैं. पहला तो इस उप-चुनाव में नाते-रिश्तेदारों को टिकट देने की रणनीति "बैक-फायर" कर गई. इसीलिए तो महज चार महीने पहले जिस जनता ने तीन-तीन विधायकों को सांसद बनाया था, आज उन्हीं के मां, भाई और पति को नकार दिया.
किशनगंज में कांग्रेसी सांसद मोहम्मद जावेद की मां साइदा बानो तो तीसरे नंबर पर खिसक गईं. गिरिधारी यादव के संसद जाने के बाद बेलहर से जेडीयू ने उनके भाई लालधारी यादव को उतारा, लेकिन आरजेडी के रामधारी यादव ने उन्हें आसानी से पटखानी दे दी. सीवान के रास्ते नई दिल्ली का रास्ता तय करने वाली कविता सिंह के पति और बाहुबली अजय सिंह को भी जनता ने हरा दिया.
एनडीए की हार के पीछे जमीनी नेताओं के दबदबे ने भी अहम भूमिका निभाई. मिसाल के तौर पर अजय सिंह को दरौंदा से उतारने के लिए जेडीयू ने बीजेपी के कर्णजीत सिंह को नजरअंदाज किया. अंजाम यह हुआ कि स्थानीय स्तर पर मजबूत कर्णजीत सिंह निर्दलीय खड़े हुए और अजय सिंह को हारा दिया. अजय सिंह की हालत ऐसी थी कि वे पहले राउंड की मतगणना से ही लगातार पीछे रहे.
इसके अलावा, इस उप-चुनाव में सहयोगियों के बीच किसी प्रकार का "सहयोग" नहीं देखने का मिला. यह बात महागठबंधन और एनडीए दोनों पर बराबर लागू होती. दरौंदा में जहां बीजेपी कार्यकर्ता उदासीन दिखे, तो किशनगंज में नीतीश कुमार की धारा 370, राम मंदिर और दूसरे मुद्दों पर चुप्पी ने बीजेपी का खेल बिगाड़ दिया.
वहीं, महागठबंधन में भी नाथनगर और सिमरी बख्तियारपुर में आरजेडी को जीतन राम मांझी की हम और मुकेश सहनी की वीआईपी से कड़ी टक्कर मिली. आरजेडी ने सिमरी बख्तियारपुर का किला तो फतेह कर लिया, लेकिन जेडीयू से नाथनगर हासिल करने में नाकाम रही. विश्लेषकों की मानें तो अगर मांझी और सहनी ने अपने-अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए होते, तो इस सीट पर भी महागठबंधन की जीत तय थी.
हार से सीख
विश्लेषकों के मुताबिक, इस हार का नीतीश सरकार के गणित पर कोई असर नहीं होगा. अब भी विधानसभा में नीतीश सरकार बहुमत में ही रहेगी. हालांकि, इससे अगले वर्ष के विधानसभा चुनाव को लेकर संदेश देने की कोशिश जरूर की गई है. इस हार का पहला संदेश तो यह है कि एनडीए के लिए अति-विश्वास खतरनाक साबित होगा. लोकसभा चुनाव के बाद जेडीयू और बीजेपी अति-विश्वास में आ गए थे. वे अगले वर्ष की जीत के लिए जरूरत से ज्यादा निश्चिंत हो चले थे.
वहीं, दोनों दलों के बीच सामंजस्य का भी भारी अभाव देखने को मिला. इस बाबत दोनों दलों को काम करने की जरूरत है. लोकसभा चुनाव मे भी दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता के कई मामले सामने आए थे. सीवान में ही बीजेपी कार्यकर्ताओं ने कविता सिंह को टिकट देने का भारी विरोध किया था.
हालांकि मोहम्मद शाहाबुद्दीन के साझा विरोध ने दोनों दलों को एकजुट किया और कविता सिंह ने भारी अंतर ये सीट निकाल ली. हालांकि, इस बार स्थानीय कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज करना एनडीए के लिए भारी पड़ा. इसीलिए इन दोनों दलों को स्थानीय नेताओं को भी तरजीह देनी होगी.
(निहारिका पटना की जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
हालांकि, ये उप-चुनाव आरजेडी के संकटग्रस्त नेतृत्व के लिए राहत का सबब बनकर आया है, लेकिन यह अपने साथ कई चेतावनी भी लाया है. पहला तो महागठबंधन के लिए एकता बड़ी चुनौती होगी. उपेंद्र कुशवाहा, मांझी और सहनी की महत्वाकांक्षाओं के बीच संतुलन बनाए रखना टेढ़ी खीर साबित होने वाली है. वहीं, औवैसी की एंट्री के बाद आरजेडी और कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती अपने मुस्लिम-यादव (माई) समीकरण को बनाए रखने की होगी. किशनगंज के बाद एआईएमआईएम की नजर अब अररिया और कटिहार जिले की सीटों पर भी है, जहां अल्पसंख्यक आबादी के पास सत्ता की चाभी रहती है.
(निहारिका पटना की जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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