मंडल आंदोलन की धरती से एक बार फिर सामाजिक न्याय की आवाज बुलंद करने की उद्घोषणा हुई है. बिहार (Bihar) के इतिहास में दो तारीखें स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गयीं, जो देश की साम्प्रदायिक सोच में पलीता लगाने, छद्म हिंदुत्व व कथित सांस्कृतिक राष्टवाद की सियासत के सामने चुनौती पेश करने को आकुल हैं. ये ऐतिहासिक तारीखें हैं- 2 अक्टूबर और 7 नवंबर. 2023 का साल बिहार ही नहीं, बल्कि पूरे मुल्क के लिए समतावादी, न्यायवादी, समाजवादी, लोकतांत्रिक देश के नवनिर्माण की दिशा में एक अहम वर्ष साबित हो सकता है और इस परिवर्तनकारी राजनीति की पटकथा लिखने का काम किया है क्रांति की उपजाऊ भूमि रही बिहार ने.
जाति गणना रिपोर्ट का विश्लेषण जरूरी
सियासत अपनी जगह है, लेकिन समाजशास्त्रीय दृष्टि से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के जाति आधारित गणना के इस साहसिक फैसले एवं उसकी रिपोर्ट का गहन विश्लेषण करने की जरूरत है.
केंद्र की तमाम अदालती एवं सियासी अड़चनों के बाद भी नीतीश-तेजस्वी की जोड़ी सभी बाधांओं को पार करते हुए पहले जाति आधारित सर्वे की रिपोर्ट को सार्वजनिक करती है और फिर अगले ही महीने सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक सर्वे को बिहार विधानमंडल के पटल पर रखकर इतिहास रच देती है.
आजाद भारत की ये ऐसी घटना है, जिसे अंजाम तक पहुंचाने का साहस न आज तक कांग्रेस और न बीजेपी सरकारों ने दिखाया. कई राज्यों ने जाति गणना तो करायी, लेकिन उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं कर सके.
यह नीतीश-तेजस्वी सरकार का एक ऐसा जादुई फैसला है, जिसकी फंतासी में कांग्रेस और बीजेपी दोनों फंस गए. अपनी चुनावी रणनीति को बदलते हुए राहुल गांधी को दलित-आदिवासी और ओबीसी का राग अलापना पड़ रहा है. वहीं, मोदी-शाह को भी हिंदुत्व की पिच से पलायन कर गाहे-बगाहे ओबीसी पीएम-मंत्रियों और राष्ट्रीय सूचना आयुक्त की गिनती करवानी पड़ रही है, तो कभी आदिवासी महिला राष्ट्रपति को आगे करना पड़ रहा है.
जाति गणना की रिपोर्ट की यह कील हिंदुत्व के गुब्बारे की कितनी हवा निकालेगी यह आगे पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि साम्प्रदायिक राजनीति के 2024 के चुनावी एजेंडे को क्षत-विक्षत जरूर करेगी, ऐसा राजनीति के जानकार बताते हैं.
हालांकि, बीजेपी भी कहां चूकने वाली है गरीबी, पलायन और शैक्षणिक पिछड़ेपन के सवाल पर सूबे की सरकार को घेरने से. लेकिन बीजेपी को इस मसले पर भी बैकफुट पर आना पड़ेगा, क्योंकि 80 करोड़ गरीबों को और अगले पांच साल तक मुफ्त राशन मुहैया कराने की बात करके एक तरह से स्वीकार किया गया है कि मोदी के 10 साल के ‘सबका साथ सबका विकास’ वाले राज में करीब 55-60 फीसदी लोग आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं.
आरक्षण का दायरा 75 फीसदी तक बढ़ाने का प्रस्ताव
बहरहाल, शीतकालीन सत्र के दूसरे दिने सीएम नीतीश कुमार ने जाति गणना की सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक रिपोर्ट को जारी करते हुए कई बड़ी घोषणाएं कीं. उनमें सबसे अहम है आरक्षण का दायरा बढ़ाकर 75 फीसदी तक करने का प्रस्ताव. आबादी के अनुसार हिस्सेदारी के फार्मूले पर अपनी बातें रखते हुए नीतीश कुमार ने साफ-साफ कहा कि अनुसूचित जाति की आबादी 16 से बढ़ कर 19.65 फीसदी, अनुसूचित जनजाति की 1 से बढ़कर 1.68 फीसदी हो गयी है. इसलिए आरक्षण की सीमा बढ़ाकर क्रमशः 20 फीसदी और 2 फीसदी करना ही होगा.
इसी तरह पिछड़ी जातियों की आबादी 63 फीसदी है. ऐसे में ओबीसी के हिस्से में 50 फीसदी में सिर्फ 28 फीसदी आता है. इसलिए 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 65 फीसदी करने का प्रस्ताव रखते हैं. आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के सवर्णों का 10 फीसदी मिलाकर कुल 75 फीसदी हो जाता है. शेष 25 फीसदी, जो पहले 40 फीसदी थी वह सामान्य वर्ग के लिए होगी.
नीतीश कुमार का आरक्षण का दायरा बढ़ाने वाला यह ऐसा मास्टरस्ट्रोक है, जिसका विरोध करने का किसी ने जोखिम नहीं उठाया. नीतीश-तेजस्वी सरकार की यह लकीर अब इतनी लंबी हो गयी है कि यह देशभर में खींचने वाली है, जो बहुजन समाज के एक बड़े वर्ग की सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक हैसियत को भी बढ़ाने में मददगार साबित हो सकती है.
लेकिन कैसे? इसे समझने के लिए शाहूजी महाराज, फुले-पेरियार, डाॅ अंबेडकर, जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर, बीपी मंडल, वीपी सिंह, लोहिया, कांशीराम से लेकर लालू-शरद-मुलायम तक के वैचारिक-राजनीतिक संघर्षों एवं उससे निकलीं सामाजिक न्याय की धाराओं को गहराई तक समझना होगा.
यह मांग लंबे समय से उठती रही है कि जिसकी जितनी आबादी है उसे नौकरियों से लेकर सत्ता तक में उतनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए, जो नीतीश सरकार के इस कदम से फलीभूत होने की उम्मीदें दलित-पिछड़ों में जगी हैं. निःसंदेह नीतीश कुमार ने बहुजन महापुरुषों के सपनों का भारत बनाने की दिशा में एक मजबूत कदम रखा है. लेकिन सवाल उठता है कि आरक्षण का दायरा बढ़ाने के बावजूद क्या कोटिवार आरक्षित सभी सीटों पर दावेदार मिल जाएंगे?
अभी 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को ही एससी, एसटी और ईबीसी कवर नहीं कर पा रहे हैं. सामाजिक न्याय वालों के लिए यह जरूर आदर्श स्थिति प्रतीत होती है कि जब गरीब से गरीब लोग भी कमोबेश टैक्स अदा करते हैं, तो राष्ट्र के नवनिर्माण में सभी को समान हिस्सेदारी क्यों नहीं मिलनी चाहिए? लेकिन यह हिस्सेदारी भला कैसे पूरी होगी, जब राज्य की शैक्षणिक स्थिति ही चिंताजनक बनी हुई है. जब तक शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव नहीं आएंगे, जब तक रिजर्व सीटों को भर पाना फिलहाल मुमकिन नहीं दिखता है.
क्या कहते हैं आंकड़े?
जाति गणना रिपोर्ट के मुताबिक, एससी वर्ग के रविदास 3.62 फीसदी और मुसहर मात्र 0.18 फीसदी स्नातक पास हैं. इसी तरह अत्यंत पिछड़े वर्ग के धानुक जाति के सिर्फ 4.46 फीसदी और चंद्रवंशी जाति के 6.09 फीसदी लोग ही उत्तीर्ण हैं. ओबीसी कैटेगरी के यादव 5.46 फीसदी, कुशवाहा 8.80 फीसदी स्नातक पास लोग हैं. ये डेटा इंगित करते हैं कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद आज भी दलित-पिछड़ा समाज शैक्षणिक रूप से काफी पीछे है. दलित-पिछड़ा और आदिवासी समाज के काफी बच्चे 10वीं-12वीं तक भी नहीं पहुंच पाते हैं. बहुत सारे लोग काॅलेज का मुंह तक नहीं देख पाते हैं.
ओवरऑल देखें, तो बिहार में ग्रेजुएट की आबादी मात्र 7 फीसदी है और पोस्ट ग्रेजुएट की आबादी महज 0.82 फीसदी है. सामान्य वर्ग के 14.53 फीसदी, ओबीसी के 7.14 फीसदी, ईबीसी के 4.4 फीसदी, एससी के 3.1 फीसदी एवं एसटी के 3.53 फीसदी लोग ही स्नातक हैं.
अगर एससी-ओबीसी को मिला दें तो यह आंकड़ा सामान्य वर्ग के करीब ठहरती है, जबकि आबादी में करीब 63:15 का रेशियो है. इतना बड़ा अंतर आबादी एवं स्नातक पास के बीच है. यहां हम सिर्फ सामान्य यूजी-पीजी की बात कर रहे हैं. मेडिकल, इंजीनियरिंग और तकनीकी कोर्स के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे, तो और चैंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे. एक लेख में सभी बिंदुओं का विश्लेषण करना संभव नहीं है, इसलिए बानगी के तौर पर सामान्य कोर्स की ही बात कर रहे हैं.
ध्यान रहे कि मेडिकल-इंजीनियरिंग समेत कुछेक जाॅब को छोड़कर केंद्र और राज्य सरकारों की अधिकतर नौकरियों के लिए स्नातक उत्तीर्ण होना जरूरी है. उक्त आंकड़े सामने रखकर देखें तो साफ हो जाता है कि सिर्फ आरक्षण का दायरा बढ़ा देने से कोटिवार आवेदक मिल जाएंगे, यह संभव नहीं दिखता है. इसके लिए सरकार को एससी-एसटी/ओबीसी को उच्च शिक्षा से जोड़ने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने पड़ेंगे.
शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की जरूरत
आरक्षण का दायरा बढ़ाने के साथ ही शिक्षा के बजट में भी बढ़ोतरी करनी होगी. एक सच यह भी है कि बिहार के सरकारी काॅलेजों में पिछले चार-पांच सालों में नामांकन फीस एवं परीक्षा शुल्क में कई गुणा की वृद्धि की गयी है. 2018 से पहले बिहार विश्वविद्यालय के काॅलेजों में अलग-अलग कोटि के छात्रों के लिए स्नातक में नामांकन का शुल्क करीब 200 से 700 रुपए तक था, जो आज की तारीख में यह फीस बढ़कर करीब 2800 से लेकर 3700 तक पहुंच गयी है. छात्रों को हर पार्ट/सेमेस्टर में परीक्षा शुल्क की राशि अलग से देनी पड़ती है. हालांकि, राज्य सरकार बालिका शिक्षा एवं एससी-एसटी/ईबीसी छात्र-छात्राओं की पढ़ाई के लिए कुछेक प्रोत्साहन योजनाएं भी चला रही हैं, जो नाकाफी हैं. सरकार जबतक आर्थिक रूप से कमजोर और गरीब छात्रों की काॅलेज फीस माफ नहीं करेगी, हिस्सेदारी का लाभ इस वर्ग को शत-प्रतिशत मिलना असंभव-सा दिखता है.
बिहार विश्वविद्यालय से संबद्ध आरडीएस काॅलेज के प्रोफेसर डाॅ. संजय कुमार सुमन कहते हैं कि सरकार का वंचित समाज के लिए यह क्रांतिकारी फैसला है, लेकिन इसके लिए शैक्षणिक हालातों में मुकम्मल सुधार लाना होगा. अभी राज्य में बीपीएससी ने सरकारी शिक्षकों को बहाल किया है और अगले चरण की बहाली प्रक्रिया भी चल रही है. शिक्षक बनने के लिए अभ्यर्थी को बीएड या डीएलएड पास करना जरूरी होता है. इस कोर्स को पूरा करने के लिए एक से डेढ़ लाख रुपए कमजोर वर्ग का एक छात्र कहां से लाएगा? ऐसे छात्रों के लिए सरकार अलग से कुछ प्रावधान करे, ताकि गरीब छात्र भी बीएड-डीएलएड जैसे कोर्स करके नौकरी में आ सके.
डाॅ. सुमन आगे कहते हैं कि अबतक का अनुभव है कि भ्रष्ट व्यवस्था के कारण रोस्टर में गड़बड़ी करके आरक्षित सीटों को या तो भर दिया जाता है या पद को ही समाप्त कर दिया जाता है. सरकार को पारदर्शी और सख्त व्यवस्था बनानी होगी कि हर हालत में जो रिजर्व सीटें खाली रह जाती हैं, उसे उसी वर्ग के अभ्यर्थी से भरा जाएगा; भले ही उसमें समय लगे. ऐसे खाली रह गये पदों के लिए सरकार स्पेशल वैकेंसी निकाल कर क्वालिफिकेशन में कुछ और रिलैक्सेशन देकर उसे भर सकती है और बाद में सरकार अपने खर्च पर उसे प्रशिक्षित कर सकती है. आरक्षण का दायरा बढ़ाने के साथ-साथ राज्य सरकार को इन सब चीजों की भी समीक्षा करनी होगी.
शिक्षा का गरीबी, बेरोजगारी, पलायन आदि से भी गहरा नाता
जाति गणना रिपोर्ट एक तरह से बिहार की संपूर्ण आबादी की समाजार्थिक स्थिति का प्रतिबिंबन करती है. शिक्षा का गरीबी, बेरोजगारी, पलायन आदि से भी गहरा रिश्ता है. यह कटु सच्चाई है कि गरीब परिवार में पैदा होनेवाला एक बच्चा निकट के सरकारी स्कूल में भी इसलिए नियमित नहीं पढ़ने जाता है कि उसे कम उम्र में ही होटलों में, घरों में, खेतों में काम करना पड़ता है. ऐसे निर्धन परिवारों के बहुत सारे बच्चे 15-17 की उम्र तक आते-आते दिल्ली, पंजाब, गुजरात आदि प्रदेशों में अपने पिता, भाई के साथ कमाने चला जाना होता है. बिहार से पलायन की समस्या जगजाहिर है, जो इस रिपोर्ट के आंकड़े भी तस्दीक करते हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, साढ़े तीन फीसदी लोग दूसरे राज्यों में नौकरी व रोजगार करने गये हैं, जिनमें सबसे अधिक अतिपिछड़े वर्ग के लोगों ने पलायन किया है. एससी-एसटी/ओबीसी की अच्छी-खासी आबादी भी दूसरे प्रदेशों में कमाने के लिए रहती है. संख्या के हिसाब से देखें तो सूबे के 15.89 लाख से अधिक लोग दूसरे प्रदेशों में नौकरी या रोजगार कर रहे हैं.
इस रिपोर्ट से एक चैंकाने वाला तथ्य सामने आया है, राज्य से बाहर जाने वालों में सिर्फ प्रवासी मजदूर ही नहीं हैं, बल्कि दलित-पिछड़े समाज की एक बड़ी संख्या अन्य प्रदेशों में शिक्षा ग्रहण भी कर रही है. इसमें भी अत्यंत पिछड़े समाज के लोग ओबीसी से थोड़े आगे हैं. ईबीसी करीब 1.51 लाख, ओबीसी 1.45 लाख, सामान्य वर्ग 1.45 लाख लोग दूसरे प्रदेशों में शिक्षा पा रहे हैं. ये आंकड़े पिछले कई दशकों के सामाजिक बदलाव के परिणाम दिखाते हैं.
लिहाजा, यह भी हकीकत है कि बहुत सारे छात्र, जो पहले दूसरे प्रदेशों में कमाने के साथ-साथ बिहार के काॅलेजों से स्नातक-स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल कर लेते थे, उनके लिए शिक्षा विभाग की 75 फीसदी हाजिरी वाली सख्ती के बाद अब ऐसा कर पाना संभव नहीं हो पाएगा. ऐसे बहुत से छात्रों को इन पंक्तियों के लेखक जानते हैं, जो बिहार के काॅलेजों में नामांकन करा कर पासपोर्ट/गाइड खरीद कर दूसरे प्रदेशों में ले जाते थे और वहां मजदूरी के साथ-साथ स्वाध्याय भी करते थे. परीक्षा के समय आकर वे छात्र पेपर देकर फिर काम पर लौट जाते थे. ऐसे गरीब मजबूर व मजबूर छात्रों का पढ़ाई का सपना शायद अधूरा रह जाएगा.
राज्य की 16.73 फीसदी आबादी मजदूर
रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य की 16.73 फीसदी आबादी मजदूर है, जबकि 2.14 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में प्राइवेट नौकरी करते हैं. बिहार की कुल जनसंख्या का 14 फीसदी लोग अब भी झोपड़ी में रहते हैं. 34.13 फीसदी परिवारों की कमाई बस छह हजार रुपए प्रति महीना है और 6 से 10 हजार रुपए के बीच कमाई वाले 29.61 प्रतिशत लोग हैं. कुल मिलाकर बिहार में 33.5 फीसदी गरीब परिवार हैं. ये आंकड़े बिहार के पिछड़ेपन की कहानी कहते हैं, जो एक बहुत बड़ी आबादी को शिक्षा से दूर करते हैं. जब शिक्षा ही नहीं होगी, तो आरक्षण का लाभ क्या मिलेगा और सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी क्या मिलेगी?
राज्य की 20.49 लाख सरकारी नौकरियों में सामान्य वर्ग के लोगों की संख्या 6.41 लाख से अधिक है, जबकि आरक्षित वर्ग के पास 14 लाख से थोड़ी अधिक है. यानी 15 फीसदी आबादी के पास करीब एक तिहाई नौकरियां, जबकि 85 फीसदी के पास मात्र दो-तिहाई नौकरियां.
इसी अंतर को पाटने में नीतीश कुमार का यह कदम कारगर सिद्ध हो सकता है, जिसका असर आनेवाले सालों में दिखाई देगा; जिस तरह आरक्षण आंदोलन का असर आज देशभर में देखा जा रहा है.
यह आग पूरे देश में फैलेगी और ओबीसी राजनीति का नया उफान देखने को मिल सकता है. साथ ही, कुंद हो गयी सामाजिक न्याय की धार और मंद पड़ी बहुजन चेतना को एक बार फिर जाग्रत होने अवसर मिल जाएगा. कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने सही समय पर सही शाॅट लगाया है. मंडल के दौर में ओबीसी आरक्षण का जिस तरह से देशभर की अगड़ी जातियों ने विरोध किया था, इस बार आरक्षण का दायरा बढ़ाने का वैसा विरोध नहीं कर पाएंगे, क्योंकि नीतीश के पास EWS का वह कवच है, जिसका जिक्र उन्होंने चर्चा के दौरान कर दी है.
सीएम ने बताया समस्या का समाधान
विधानमंडल में चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इन आंकड़ों से परिलक्षित बीमारियों के इलाज के कुछ उपाए भी सुझाए हैं. जैसे- 94 लाख गरीब परिवारों को 2-2 लाख रुपए निःशुल्क सहायत राशि देने का एलान, ताकि वे इस राशि से अपना रोजगार खड़ा कर सकें. इसी तरह जमीन खरीदने और मकान बनाने के लिए क्रमशः एक लाख और एक लाख बीस हजार रुपए देने की घोषणा की गयी. महिला सशक्तीकरण की दिशा में कार्यरत करीब 10 लाख जीविका समूहों का विस्तार एवं जीविका दीदियों को और समृद्ध-सशक्त करने की बातें, नीतीश सरकार की गंभीरता को तो दर्शाती है, लेकिन सरकारी खजाने पर आने वाले वित्तीय बोझ को कैसे संभालेगी, इस सवाल का जवाब आने वाले दिनों में ही मिल सकेगा.
बहरहाल, चुनावी राजनीति की दृष्टि से देखें तो जाति गणना की रिपोर्ट से पूरा राजनीतिक परिदृश्य बदल जाएगा, यह अभी कहना जल्दीबाजी होगी, क्योंकि आगे कई और चुनौतियों को नीतीश-तेजस्वी की जोड़ी को सुलझाना है.
एक तो मीडिया का विपक्ष विरोधी चेहरा, मजबूत प्रचार-तंत्र और ऊपर से बीजेपी का बूथ स्तर तक का मजबूत संगठन. ये दोनों फैक्टर ऐसे हैं, जो झूठे तथ्यों को भी आम जनमानस में बीजेपी लाॅबी भर देती है. राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले डाॅ. सुशांत कुमार कहते हैं कि JDU-RJD को इस ऐतिहासिक काम को लेकर जिला से लेकर पंचायत स्तर तक प्रचारित करना होगा. दलित-पिछड़ी जातियों को समझाना होगा कि यह रिपोर्ट कैसे आपके जीवन में बदलाव ला सकती है. अगर ये पार्टियां ऐसा करने में पीछे रह गयीं, तो इन आंकड़ों से ही कुछ तथ्य निकाल कर NDA ठबंधन के नेता आमलोगों को भरमा देंगे. इसलिए काम के साथ-साथ काम का प्रचार भी करना जरूरी होगा.
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