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बिहार चुनाव 2020 : सिर्फ 30% जनता चुनाव प्रक्रिया में शामिल

अबकी बार बिहार चुनाव में नहीं वो बहार, स्मार्टफोन नहीं तो आप वोटर नहीं!

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अब्राहम लिंकन ने प्रजातंत्र को सबसे बेहतरीन तरीके से समझाया है. उनके अनुसार, "प्रजातंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा शासन है". मतलब साफ है कि आम जनता की व्यापक भागीदारी ही प्रजातंत्र की नींव है. लेकिन, कोरोना (COVID-19) काल में बिहार (Bihar) में कराया जा रहा विधानसभा का चुनाव कुछ और ही कहानी कह रहा है. यकीन करना मुश्किल है लेकिन 100% बिहार का फैसला करने की चुनावी प्रक्रिया में मुश्किल से 30% बिहार ही हिस्सा ले रहा है.

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रैली, सभा, प्रचार नहीं

चुनाव आयोग की गाइडलाइन्स के अनुसार कोरोना को लेकर इस बार बिहार में बड़ी-बड़ी जनसभाएं नहीं की जा सकतीं. यदि सभा होती भी है तो उसमे 100 से ज्यादा लोगों को जाने की अनुमति नहीं दी सकती. वहीं, राजनितिक दल और प्रत्याशी को सुनिश्चित करना होगा इनकी गतिविधियों में मास्क, सैनेटाइजर, थर्मल स्कैनिंग आदि की व्यवस्था हो. जरा बताइए 100 लोगों के लिए इतना सरदर्द कौन मोल लेगा? इसका सीधा मतलब है चुनाव प्रचार मुख्य रूप से वर्चुअल तरीके से ही होंगे.

दूसरे, पांच से ज्यादा लोग एक साथ किसी के घर जाकर प्रचार नहीं करेंगे. रोड शो में सिर्फ पांच वाहन होंगे और जनता से मिलते समय भी सोशल डिस्टेंसिंग का पूरी तरह से पालन करना होगा. इसका मतलब है जो लोग अपने नेता को चुनने जा रहे हैं उनसे न ही वो पूरी तरफ वाकिफ होंगे न ही उनकी घोषणाओं और नीतियों को जान पाएंगे क्योंकि बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां होंगी ही नहीं.

बिन इंटरनेट, टीवी नेताजी को कैसे सुनें?

उनका नेता कौन है, कैसा है, क्या करता है और चुनाव जितने के बाद उनके लिए क्या करेगा यह सब जानने के लिए मतदाताओं के पास मात्र तीन साधन हैं-उनके मोबाइल फोन पर इंटरनेट की सुविधा, घर में टीवी सेट और तीसरा अखबार. लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही है.

अमेरिका के प्रसिद्ध मैनेजमेंट कंसल्टिंग फर्म "मक्कीनसे ग्लोबल इंस्टिट्यूट" के हालिया रिसर्च (मार्च 2019) के अनुसार प्रति व्यक्ति जीडीपी और डिजिटल पहुंच में काफी गहरे संबंद हैं. रिपोर्ट के अनुसार प्रति व्यक्ति जीडीपी के शीर्ष तीन राज्यों हरियाणा, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के अलावा अत्यधिक शहरीकृत राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों  में इंटरनेट की सबसे ज्यादा पैठ है. उत्तराखंड में 28 प्रतिशत है, तो दिल्ली में 170 प्रतिशत से अधिक है. वहीं, प्रति जीडीपी में सबसे नीचे के तीन राज्यों बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में इंटरनेट की पहुंच सबसे कम है. बिहार में तो इंटरनेट की पहुंच की दर मात्र 22 प्रतिशत है.

अबकी बार बिहार चुनाव में नहीं वो बहार, स्मार्टफोन नहीं तो आप वोटर नहीं!
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इसी तरह, ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल, इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण के पांच राज्यों-तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना,  केरल और कर्नाटक में टीवी की पहुंच 90 प्रतिशत से ज्यादा घरों में है. इसके विपरीत, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में टीवी की पहुंच मात्र 30 प्रतिशत घरों तक ही सीमित है. वैसे हाल के दिनों में बिजली की आपूर्ति में काफी सुधार हुआ है. आजकल लोगों में अखबार पढ़ने की एक आदत तो बनी है लेकिन इनका प्रसार मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है. अब आप खुद ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि नेताओं के वादों, तकरीरों की पहुंच कितने लोगों तक होगी?

जनता बोल नहीं सकती, सिर्फ नेताजी को सुन सकती है

दूसरे यदि मतदाता किसी तरह से नेताओं के भाषण से कनेक्ट भी हो गए तो उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं. अर्थात, वो दूसरे की भाषण तो सुन सकते हैं लेकिन अपनी बात किसी को नहीं कह सकते. दूसरे अर्थों में कहें तो लोग आज मात्र "वोटर" बनकर रह चुके हैं. पूर्व में चुनाव प्रचार के दौरान उन्हें नेताओं के सामने अपने गीले-शिकवे सुनाने का तो मौका भी मिलता था.

दिल्ली स्थित "सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज" के डायरेक्टर प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं कि ये सारा कुछ लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है. संजय कुमार कहते हैं, "जनता को अक्सर शिकायत रहती है कि चुनाव जीतने के बाद उनके प्रतिनिधि वापस नहीं आते लेकिन उनके पास उनसे मिलने का एक अवसर जरूर होता था और वो था चुनाव का मौका. नेताओं के घर पर आने पर वो अपनी चिंता, खुशी, नाराजगी सब जाहिर करते थे लेकिन जब यह सब वर्चुअल हो रहा है तो यह एकमात्र मौका भी उनके हाथ से अब निकल जाएगा. अब 'वन-वे कम्युनिकेशन' हो जाएगा."

नेताओं के घर पर आने पर वो अपनी चिंता, खुशी, नाराजगी सब जाहिर करते थे लेकिन जब यह सब वर्चुअल हो रहा है तो यह एकमात्र मौका भी उनके हाथ से अब निकल जाएगा. अब ‘वन-वे कम्युनिकेशन’ हो जाएगा.
संजय कुमार, डायरेक्टर सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज

वो फिर कहते हैं, "पहले जनता का पार्टिसिपेशन कई चीजों में होता था. रैली, पदयात्रा, चुनाव प्रचार में जनता जाती थी. जब रैली होती थी तो अपने नेताओं को सुनने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. लोग उनकी बात ध्यान से सुनते थे और वोट का निर्णय लेते थे लेकिन डिजिटल प्लेटफार्म में ये सारी बातें अब ख़त्म हो जाएंगी. अब जनता सिर्फ एक 'वोटर' बनकर रह जाएगी." फिर कॉमन मैन के पास स्मार्टफोन और इंटरनेट कि सुविधा हर व्यक्ति के पास नहीं है.

पटना स्थित अनुग्रह नारायण सिंह समाज अध्ययन संस्थान के पूर्व प्रोफेसर सचिन्द्र नारायण कहते हैं, "अब लोकतंत्र के साथ मजाक हो रहा है. जिनको वोट डालना है उनको कोई पूछ ही नहीं रहा. तो इस चुनाव का क्या मतलब?" वो कहते हैं, "चुनाव छह महीने-साल भर के बाद ही होता तो कौन सा पहाड़ टूट जाता! हजारों लोग जो नौकरी छूटने के बाद 1500-2000 किलोमीटर पैदल चलकर घर लौटे, खाली पेट सड़कों पर रात गुजारी और अभी भी अपने गावों में भुखमरी से लड़ रहे हैं, आप उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो नेताओं के भाषण सुनेंगे और कोरोना काल में वोट डालने जाएंगे?"

लोकतंत्र के साथ मजाक हो रहा है. जिनको वोट डालना है उनको कोई पूछ ही नहीं रहा. तो इस चुनाव का क्या मतलब?
सचिन्द्र नारायण, पूर्व प्रोफेसर, अनुग्रह नारायण सिंह समाज अध्ययन संस्थान, पटना
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वोटर वही जिसके पास स्मार्टफोन है!

अनुग्रह नारायण सिंह समाज अध्ययन संस्थान के ही पूर्व डायरेक्टर डी एम दिवाकर कहते हैं कि आज के चुनाव ने डेमोक्रेसी कि परिभाषा ही बदल दी हैं. वो कहते हैं, "आज प्रजातंत्र में जनता वही है जिसके पास स्मार्टफोन है, बाकी नहीं क्योंकि बिना फोनवाले के पास कहां से कोई जानकारी पहुंचेगी जबकि अखबार की पहुंच अभी भी गावों तक उतनी नहीं हैं. ये पूरा मामला लोकतंत्र को कमजोर करने जैसा है".

आज प्रजातंत्र में जनता वही है जिसके पास स्मार्टफोन है, बाकी नहीं क्योंकि बिना फोनवाले के पास कहां से कोई जानकारी पहुंचेगी.
डी एम दिवाकर, पूर्व डायरेक्टर, अनुग्रह नारायण सिंह समाज अध्ययन संस्थान, पटना

बाढ़ में किसको याद है चुनाव

बात यहीं खत्म नहीं होती. एक और फैक्टर है जो जनता को डेमोक्रेसी से दूर कर रहा है और वह है बाढ़. एक रिपोर्ट के अनुसार अभी बिहार के कुल 38 में से लगभग आधे जिले बाढ़ से प्रभावित हैं. सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि अभी बिहार के 16 जिले में करीब 80 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हैं. कई गांव तो अभी भी पानी में डूबे हैं. अब जब ये गांव डूबे हैं तो लोग पहले अपने परिवार की सुरक्षा के बारे में सोचेंगे या वोट डालने जाएंगे? जिसने खुद कई दिनों से नहीं खाया है, वो वोट देने की कैसे सोचेगा? ये माना कि वोटिंग तक शायद बाढ़ की स्थिति बेहतर हो जाएगी लेकिन चुनाव पूर्व चुनाव प्रक्रिया से बाढ़ पीड़ित तो कटे हुए ही हैं.

कम वोटर तो गड़बड़ी की आशंका

पूर्णिया के सामाजिक कार्यकर्ता विजय कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, "हम ये नहीं कह सकते कि चुनाव में लोग भाग नहीं लेंगे, लेकिन वोट प्रतिशत कुछ जम्मू-कश्मीर की तरह दिखेगा. आप जरा बताएं जो इलाके अभी बाढ़ में डूबे हैं, लोगों को खाने-पीने की परेशानी है, घर बाढ़ में बह गए हैं उन लोगों से आप कैसे उम्मीद करते हैं कि वोट डालने आएंगे? ये तो हद है भाई! सब कुछ चुनाव ही है, मानवता कुछ भी नहीं?"

विजय कुमार श्रीवास्तव के अनुसार इस बार बोगस वोटिंग भी जमकर होगी. “जब बूथों पर लोगों की भीड़ नहीं होगी, कोई विरोध करनेवाला ही नहीं होगा तो फिर कौन रोकेगा उस गड़बड़ी करने वालों को?”

कोई ताज्जुब नहीं कि ग्रामीण इलाकों में इस बार चुनाव के प्रति उत्साह न के बराबर है क्योंकि प्रचार वाहन अभी न के बराबर जा रहे हैं. प्रत्याशियों की भीड़ नहीं है और रैलियां गायब हैं. हां, इक्के-दुक्के नेताजी गांव जरूर आ-जा रहे  हैं और लोगों को अपने-अपने नेताजी के भाषणों का वीडियो देखने का आग्रह जरूर कर रहे हैं लेकिन एक बार फिर सबके पास इंटरनेट न होने की बाधा सामने आ जाती है. कुल मिलाकर अबकी बार, बेरंग है चुनावी बिहार.

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