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बिहार में पलायन का दर्द, यहां आकर 'पीएचडी' का मतलब भी बदल जाता है

''पूर्णिया जिले से पटना जाने वाली बसों की संख्या से कई गुना ज्यादा बसें दिल्ली और पंजाब जाती हैं''

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बिहार में पलायन का दर्द, यहां आकर 'पीएचडी' का मतलब भी बदल जाता है
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नीति आयोग (NITI Aayog) की 2021 में राज्यों पर जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक बिहार (Bihar) देश का सबसे गरीब राज्य है. बिहार की आधी से अधिक जनसंख्या गरीबी में गुजर बसर करती है. बिहार के सीमांचल के जिले जैसे पूर्णिया, किशनगंज, अररिया, कटिहार विकास सूचनांक में बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में आते हैं.

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सीमांचल का दर्द-गरीबी और बाढ़

जानकारों के अनुसार बाकी बिहार की तरह, सीमांचल में गरीबी के साथ-साथ बाढ़ और पलायन ऐसी दो समस्याएं हैं जो यहां के लोगों के साथ जुड़ी हुई हैं. 2011 की जनगणना के हिसाब से देश के 14 प्रतिशत माइग्रेंट बिहार से ताल्लुक रखते हैं. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ पॉपुलेशन स्टडीज के 2020 में किये गए एक शोध के मुताबिक बिहार की आधी जनसंख्या का पलायन से सीधा रिश्ता है. रोजगार की तलाश में पलायन लंबे अरसे से यहां के लोगों की मजबूरी रही है.

मजदूरों को भेजने का बन चुका पूरा सिस्टम

सीमांचल से पलायन करने वाले मजदूरों के साथ काम कर चुके शौर्य रॉय बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में इसमें एक नई तरह की व्यवस्था बन कर उभरी है. यह व्यवस्था मजदूरों, ट्रैवल एजेंसी और एजेंट के बीच चलती है. शौर्य बताते हैं " इसमें मुख्य रूप से सूत्रधार एजेंट होता है जो मजदूरों को पंजाब, दिल्ली जैसे जगहों पर ले कर जाता है. वह काम करने ले जाने से पहले मेहनताना, काम, और काम की अवधि के बारे में एक तरह का मौखिक अनुबंध कर लेता है.

हलालपुर चौक, रौटा हाट के पास सीधे पंजाब, हरियाणा जैसे राज्य जाने के लिए बस बुकिंग सेंटर.  

(फोटो - नील माधव)

त्योहारों या फसल की बुआई से पहले अगर बात हो रही हो तो ऐसे वक्त में वह 500 से 1000 रूपए तक की अग्रिम राशि भी दे देते हैं. यह एजेंट कई तरह के होते हैं, कुछ गांव से बस जमा कर मजदूरों को भेजते हैं वहीं कुछ खुद मजदुर होते हैं जो अपने साथ लोगों को इकट्ठा कर ले कर जाते हैं."

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वह आगे बताते हैं कि,

"इसका सबसे विभत्स रूप कोरोना महामारी के वक्त सामने आया जब सरकारी और प्रशासनिक उदासीनता के समय इन मजदूरों को उनके मालिकों ने बिना की मदद के छोड़ दिया और इनके एजेंट भी किसी तरह की मदद करने आगे नहीं आए. कुछ पैदल तो कुछ साइकिल के जरिए अपने घर पहुंचे, कई लोगों ने रास्ते में दम तोड़ दिया. लेकिन काम के अभाव में ऐसे लोग तीन चार महीने बाद वापस पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य जाने लग गए."
शौर्य रॉय

हर कुछ किलोमीटर पर ट्रेवल एजेंसी

जिन ट्रेवल एजेंसी की बात शौर्य कर रहे हैं वह सीमांचल के जिलों में हर कुछ किलोमीटर पर मिल जाते हैं. उनके बोर्ड पर आपको पंजाब और हरियाणा के कई शहरों के नाम के साथ साथ, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात के भी शहरों के नाम देखने को मिलते हैं. यहां "सीजन" के वक्त हर ऐसे चौक चौराहे जहां ऐसी दुकानें हैं पर आपको पंजाब, हरियाणा के नंबर प्लेट के बस दर्जनों की संख्या में दिख जायेंगे.

अमौर बैसी रोड पर टूर एंड ट्रेवल्स की दुकान जिनका काम बस से मजदूरों को काम करने वाली जगह पर ले जाना है.

(फोटो - नील माधव)

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पूर्णिया जिले के बरहारा कोठी ब्लॉक में एक ऐसे ही ट्रैवेल एजेंसी की दुकान पर हमें सरोज मिलते हैं. सरोज दावा करते हैं कि पूर्णिया जिले से पटना जाने वाली बस की संख्या से कई गुना ज्यादा बस दिल्ली और पंजाब जाती हैं. वह बोर्ड पर नीमराना, जयपुर और जोधपुर जैसे शहर जो राजस्थान में हैं और सूरत और वड़ोदरा जो गुजरात में है के नाम पूछने पर बतलाते हैं कि अधिकतर बस सीधे दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के लिए ही खुलती है. इनमें से कम ही राजस्थान और गुजरात के शहर जाती हैं. वह आगे बताते हैं

यहां इन जगहों पर काम करने जाने को पीएचडी जाना कहते हैं. अगर कोई आपको यह कह रहा है कि फलाना व्यक्ति पीएचडी गया है तो इसका मतलब वह पंजाब, हरियाणा या दिल्ली में रोजी रोटी कमाने गया है.

एडवांस की मजबूरी, फिर मजदूरी

कई मर्तबा काम करने जाने वाले लोग खुद एजेंट से संपर्क करते हैं. यह खास कर पूंजी की जरूरत के समय होता है. होली, ईद और छठ जैसे त्योहारों और रोपनी के समय बीज के लिए पूंजी का इंतजाम करते समय काफी लोग या तो एडवांस या कर्ज लेकर तय कर लेते हैं कि उन्हें किस एजेंट के माध्यम से और कहां काम करने जाना है.

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कुछ मौकों पर एजेंट बस के टिकट का भाड़ा भी देते हैं पर अक्सर लोगों को खुद इंतजाम करना पड़ता है. कुछ मौकों पर एजेंटों के द्वारा कई बस एक साथ बुक करा लिया जाता है जिसमें मजदूरों को कम असुविधा होती हैं. इन बसों में पहले खास कर ओवरलोडिंग की शिकायत आती थी पर अब यह कम हो रहे हैं.

बागपत, यूपी से मजदूरों को लेने अमौर आई हुई बस.

(फोटो - नील माधव)

हमारी बात बीस वर्षीय नूर अख्तर से हुई जो रौटा, पूर्णिया में अपने पिताजी की बस एजेंसी के काम में हाथ बटाते हैं. उन्होंने कहा “हमारा पंजाब में लोगों से संपर्क होता है, वह बताते हैं कि हमें इतने लोग चाहिए तो हम उतने यहां के गांव से खोज कर भेजते हैं. बहुत जरूरत रहती है तो वह लोग यहां बस भी भेज देते हैं. इस तरह से हम भी एजेंट का काम कर लेते हैं." नूर आगे बताते हैं

"हमारा संपर्क वहां के नंबरदार से भी होता है, जिसकी जिम्मेदारी वहां इन लोगों से काम कराने की होती है. हमलोग अपनी ट्रैवल एजेंसी से अधिकतर पंजाब में धान रोपनी और कटनी के समय लोगों को भेजते हैं. गेहूं और सरसों काटने के भी वहां लोगों की जरूरत पड़ती है."
नूर अख्तर
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यह पूछने पर कि कितने लोगों को वह एक सीजन में भेज पाते हैं तो उनका कहना था

"एक सीजन में हजार से दो हजार लोगों को लगभग भेजते हैं. कभी कम कभी ज्यादा होता है. लेकिन इतने लोगों को कम से कम भेजते ही हैं. आप देखिये की इसी चौक पर पांच से छह दुकान बस ट्रैवल एजेंसी की हैं."
नूर अख्तर

काम पहले पेमेंट बाद में, लेट से

कुछ मामलों में जो लोग काम करने पंजाब जा रहे होते हैं एजेंट उनका मेहनताना सीधे उनके परिवार को गांव में देता है. यह प्रक्रिया कई बार लेट हो जाती है. इसके कई कारण हैं. कई बार पैसा काम करने की जगह से ही लेट आता है. कुछ एजेंट यह पैसा परिवार को समय पर देना नहीं चाहते हैं और इससे महीना भर और देरी हो जाती है. श्रमिक के वापस आते - आते परिवार को पैसा मिलने का क्रम दो महीने लेट तक चल रहा होता है. जब वह श्रमिक वापस घर आ जाता है तो कई दफा उसे उसके पिछले दो महीने के पैसे नहीं मिलते.

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मजदूरों से ठगी के मामले आम

ठेकेदारों का मजदूरों का ठगने के मामले आम हैं. हर गांव में कई ऐसे मामले मिल जाते हैं जहां मेहनताना को लेकर विवाद चल रहा हो. बक्साघाट, पूर्णिया के रहने वाले अमरजीत, अज़ीम, पीपू ऋषि और लाला एक ठेकेदार के संपर्क में आ कर साथ पंजाब काम करने गए थे. सभी की उम्र 18 से 21 साल के बीच में है. इन्हें कहा गया कि इनका मेहनताना इनके परिवार को दे दिया जाएगा जो उन्हें कभी नहीं मिला. लगातार मांग करने पर भी टाल दिया गया और वापस आ कर एजेंट से मिलने की कोशिश की पर वह सफल नहीं हो पाए. उन्होंने अब अपने पंचायत के मुखिया से गुहार लगाई है कि उनके पैसे उन्हें दिलवा दिए जाएं.

37 वर्षीय गयासुद्दीन चार साल पहले पंजाब से कमा कर वापस आ रहे थे तो आते समय उनके नंबरदार ने उनके पैसे ठग लिए. वह बताते हैं कि

"हमारा नंबरदार हमारा हिसाब किसान से कर वापस आया और बोला कि चलो स्टेशन पर पैसे देंगे पर वह उससे पहले वहां से भाग अपने घर चला गया. बहुत कोशिश की पैसे वापस नहीं मिल पाए."
गयासुद्दीन

मनोज पूर्णिया में एजेंट का काम करते हैं. उनका कहना है कि इस सीजन उन्होंने लगभग 55 लोगों को पंजाब और हरियाणा भेजा है. वह पैसे की ठगी और धोखाधड़ी की बात पर कहते हैं “हां यह होता तो है. पर चार में एक ऐसा करता है. अगर हम अभी नहीं पैसा देंगे तो अगली बार वह मजदूर थोड़े ही जाएगा. लेकिन कुछ लोग ये सोच कर कि इस एरिया में जाने वाले लेबर बहुत हैं,ठगी कर लेते हैं. कई बार पैसे देने में दो तीन महीना लेट हो जाता है पर हम सारा पैसा दे देते हैं.”

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वह जगह जहां पिछले साल गयासुद्दीन और उनके पड़ोसियों के घर हुआ करता थे. सिमलबारी नगरा टोली, अमौर.

(फोटो - नील माधव)

बायसी, पूर्णिया में हमें रियाज मिलते हैं जिनके साथ लुधियाना में काम करते वक्त यह बीत चुका है. वह बताते हैं "हम लुधियाना कमाने गए जिस ठेकेदार के जरिए गए वह सब को घर में ही पैसा दे देता था. हम लोग को पैसा भेजने नहीं आता है सो ठीक भी लगा. वह पहला एक दो महीना 20 से 25 दिन लेट पैसा दिया. धीरे धीरे यह डेढ़ से दो महीना लेट हो गया. जब हम वापस आने लगे तो जो दो महीने का बाकी पैसा था, वह वहां किसान बोला कि तुम्हारा गांव में ठेकेदार देगा और जब वापस आ ठेकेदार से मांगे तो वह बोला लुधियाना के किसान ने दिया ही नहीं. दो महीना का पैसा है पर अब पता नहीं हम क्या करें.

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पुष्पेन्द्र टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में प्रोफेसर हैं और उन्होंने पलायन और प्रवासी मजदूरों पर काम किया है. वह प्रवासी मजदूरों के जाने की प्रक्रिया के बारे में समझाते हैं कि इसमें भी कई तरह की व्यवस्था है. “एजेंट सिस्टम से बाकी जगह के अलावा क्रशर और फैक्ट्री में काम करने ज्यादा जाते हैं. इसके अलावा ग्रुप सिस्टम से जिसमें लोग खुद अपना एक समूह बना कर साथ कॉन्ट्रैक्ट पर एक जगह भी काम करते हैं.”

मजदूरों से ठगी कोविड के समय से बढ़ी है. ये एक तरह का 'वेज थेफ्ट' का हिस्सा है

पलायन और बाढ़

सीमांचल में बाढ़ एक बड़ी समस्या है. कई लोगों ने बताया कि ऐसा हुआ कि वह धान रोपने तो गए पर बाढ़ की खबर से उन्हें तुरंत वहां से वापस आना पड़ गया. गयासुद्दीन ने बताया कि अपने जीवन के 37 साल के उम्र में अब तक दस बार से ज्यादा घर बना चुके हैं. वह दो साल पहले धान रोपने गए थे तब उनके घर के पास कटनी शुरू हो जाने से उन्हें हफ्ते भर में ही वापस आना पड़ गया.

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अबू कैश अमौर और बाईसी में स्थानीय नेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उन्होंने गयासुद्दीन और ग्रामीणों को बाढ़ के वक्त मदद पहुंचाई थी. उनका कहना है कि "यहां लोग इस लिए भी रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं क्योंकि यह बाढ़ प्रभावित इलाका है इसके कारण यहां गरीबी भी अधिक है. कई बार जब पानी बढ़ने लगता है तो इन्हें अपना घर बचाने के लिए वापस आना पड़ता है. एजेंट वाली समस्या इन सभी समस्याओं को और भारी कर दे रही है. भले ही एजेंट आने-जाने की प्रक्रिया को थोड़ा आसान कर देता है लेकिन इससे बहुत लोग ठगी का शिकार होते हैं."

पलायन है राजनीतिक मुद्दा

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में रोजगार और पलायन को मुद्दा बनाने की कोशिश की गयी थी. कोरोना महामारी में दूर शहरों में फंसे हुए और पैदल लौटते हुए प्रवासियों ने इस मुद्दे पर राजनैतिक पार्टियों का ध्यान आकर्षित किया. राष्ट्रीय जनता दल ने राज्य में बेरोजगारी को प्रमुख मुद्दा बनाया और दल के मुखिया तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा किया. वहीं दूसरी तरफ सत्तारूढ़ NDA ने 19 लाख रोजगार देने का वादा किया. चुनाव प्रचार के समय ही बिहार में यह देखने को मिला कि प्रवासी मजदूर टूरिस्ट बसों से दूसरे राज्य रोजगार की तलाश में वापस जाने लगे.

बिहार सरकार के अनुसार 29 लाख प्रवासियों को कोरोना महामारी में आर्थिक संकट से लड़ने के लिए 1 हजार रुपये की सहायता राशि दी गयी. इसके साथ सरकार ने 6 महीने तक प्रवासी परिवारों को मुफ्त राशन देने की घोषणा की थी. रोजगार के लिए सरकार ने मनरेगा योजना में भी आबंटन बढ़ाने की बात कही थी.
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सरकारी योजनाएं नाकाफी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 20 जून, 2020 को गरीब कल्याण रोजगार अभियान योजना की शुरुआत की थी. यह योजना 6 राज्य के 116 जिले में 125 दिन प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के लिए चलाई गयी. इसमें बिहार से सबसे ज्यादा, 32 जिले थे जिसमें सीमांचल के पूर्णिया, किशनगंज, अररिया शामिल थे.

पुष्पेन्द्र बताते हैं कि बिहार से पलायन मुख्य तौर रोजगार के अभाव में होता है. कोरोना के बाद जो स्कीम आई थीं उन्हें तात्कालिक राहत के तौर पर देखा जाना चाहिए. कोरोना के बाद मनरेगा पर जो जोर दिया गया उसपर पुष्पेन्द्र कहते हैं कि वो उस समय भर के लिए था. इसके साथ वह बताते हैं कि

“मनरेगा में मिनिमम वेज से भी कम पैसा मिलता है. इसके साथ वहां भुगतान में बहुत देर होती है और इस कारण से वर्कर्स को मनरेगा बहुत आकर्षित नहीं करता है. इस योजना के तहत बहुत ज्यादा दिन के लिए काम मिलना संभव नहीं है.”
पुष्पेन्द्र
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इन सभी योजनाओं के बावजूद प्रवासी वापस जाने लगे. पूर्णिया बस स्टैंड पर हमें महेंद्र मिलते हैं. वह नोएडा में बिल्डिंग साईट पर काम करते हैं और वो पहली लॉकडाउन में ही बस शुरू होते ही वापस चले गए थे. उनसे सरकारी मदद के बारे में पूछने पर वह कहते हैं “एक हजार रुपये में राशन और घर थोड़े ही चलेगा. मनरेगा में किसी किसी को ही काम मिला. हम और मेरा भाई मुखिया से मांगते रह गए पर काम ही नहीं था.” बाकी किसी योजना से रोजगार के लिए मदद मिलने की बात पर उन्होंने इंकार कर दिया.

(यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है.)

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