दो दशक से भी पहले, साल 2002 के गोधरा दंगों के दौरान बिलकिस बानो (Bilkis Bano) के साथ गैंगरेप और उनके परिवार के 14 सदस्यों की निर्मम हत्या से मानवता शर्मसार हुई थी. बिलकिस की आंखों के सामने उनकी बेटी को पीट-पीटकर मार डाला गया, उनके भरोसेमंद पड़ोसियों ने मानवीय कल्पना से परे जाकर उन्हें धोखा दिया. कराह देने वाले दर्द काफी नहीं थे, बल्कि उन्हें न्याय प्रणाली की लंबी जंग में एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़-भाग करने को मजबूर होना पड़ा.
भारत के सुप्रीम कोर्ट के 8 जनवरी के फैसले ने बिलकिस बानो और पूरे देश की महिलाओं को "फिर से सांस लेने" का मौका दिया.
हालांकि, बिलकिस के लिए अब तक का रास्ता अनगिनत रुकावटों और असफलताओं से भरा था. लगातार उत्पीड़न, उनके खिलाफ किए गए अपराध और दोषियों को सजा में देरी और न्यायिक व्याख्याओं का खामियाजा, और निश्चित रूप से, अपनों की अपूरणीय क्षति देखने को मिली.
2002 से 2022 तक...कई उतार-चढ़ाव
बिलकिस बानो के साथ यह बर्बर घटना 2002 में हुई थी और तब शुरुआती सुनवाई गुजरात की एक जिला अदालत में शुरू हुई. सबूतों से छेड़छाड़ और मुकदमे में हस्तक्षेप की आशंका के कारण, बिलकिस बानो के आवेदन पर इसे महाराष्ट्र की एक स्पेशल CBI कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया था.
2008 में महाराष्ट्र कोर्ट ने 11 आरोपियों को दोषी ठहराया और उन्हें उम्रकैद की सजा दी.
2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी सजा को बरकरार रखा था.
सुप्रीम कोर्ट ने 2017 के फैसले में बिलकिस बानो को 50 लाख रुपये का मुआवजा देने का भी आदेश दिया था.
दोष साबित होने के 15 साल बाद, एक दोषी ने माफी की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) 1973 की धारा 432 के मुताबिक अदालत को सजा के एक हिस्से या पूरी सजा को निलंबित करने की ताकत है.
दिलचस्प बात यह है कि याचिकाकर्ताओं ने भी इसी प्रार्थना के साथ गुजरात हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था लेकिन कामयाब नहीं रहे.
मई 2022 में, दो-जजों की बेंच ने याचिका स्वीकार कर ली और गुजरात सरकार को इस मामले में याचिकाकर्ता और दूसरे दोषियों के लिए माफी की नीति पर विचार करने का आदेश दिया. वहीं, गुजरात सरकार ने अगस्त 2022 में सभी 11 दोषियों को रिहा कर दिया. दूसरी तरफ बिलकिस बानो ने इस आदेश को चुनौती दी थी लेकिन शीर्ष अदालत ने दिसंबर 2022 में इसे खारिज कर दिया था.
जेल से बाहर आए 11 दोषियों को माला पहनाए जाने और उनका अभिनंदन किए जाने के चौंकाने वाले दृश्यों ने हमारी अंतरात्मा को बेचैन कर दिया, लेकिन छह महिलाओं ने इस फैसले को दुरुस्त करने का बीड़ा उठाया.
TMC सांसद मोहुआ मोइत्रा, CPI नेता सुभाषिनी अली, प्रोफेसर रूप रेखा वर्मा, पत्रकार रेवती लाल और IPS अधिकारी मीरान चड्ढा बोरवंकर ने जनहित याचिकाओं (PIL) के जरिए सुप्रीम कोर्ट के मई 2022 के फैसले को चुनौती दी.
हालांकि, जब फैसले पर सवाल उठाया गया, तो बिलकिस बानो ने एक बार फिर कदम बढ़ाया और नवंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक समीक्षा याचिका दायर की. जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की बेंच ने इस याचिका के साथ-साथ अन्य जनहित याचिकाओं पर मौजूदा फैसला भी सुनाया.
माफी के आदेश में 'कमी' साफ दिखी
मौजूदा बेंच ने मई 2022 के आदेश को पलटते हुए 11 दोषियों को दो हफ्ते के अंदर जेल लौटने का आदेश दिया. यह भारत में आपराधिक न्याय के इतिहास में एक ऐतिहासिक पल है, जिसमें न केवल शीर्ष अदालत के पिछले आदेश को अगली बेंच ने पलट दिया, बल्कि "गलत बयानी, तथ्य और धोखाधड़ी" के आधार पर फैसले को "अमान्य और शून्य" करार दिया.
दोषी न सिर्फ एक व्यक्तिगत अपराध के दोषी हैं, बल्कि मानवता के खिलाफ अपराध के दोषी हैं और जबकि भारतीय जेल प्रणाली पुनर्स्थापनात्मक न्याय सिद्धांतों (पीड़ितों को हुए नुकसान की भरपाई) पर चलती है, न कि प्रतिशोध (पुनर्वास के बजाय अपराधियों की सजा पर आधारित) के सिद्धांत पर, उनकी उम्रकैद की सजा को बरकरार रखना यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी था कि इस देश में महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा पूरी तरह खत्म नहीं हुई है.
हाल के फैसले ने माफी के आदेश को इस आधार पर रद्द कर दिया कि गुजरात सरकार के पास इस मामले पर कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था, क्योंकि CRPC की धारा 432 (7) (बी) के अनुसार "उचित सरकार" की परिभाषा के तहत, वह सरकार आती है, जिसके क्षेत्र में अपराधी को सजा सुनाई गई हो.
यह पूरी तरह से महाराष्ट्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आएगा और गुजरात सरकार द्वारा माफी का आदेश "सत्ता के कब्जे" को दर्शाता है. सीआरपीसी स्पष्ट रूप से अपराध की घटना की जगह या कारावास की जगह को दरकिनार करता है और अदालत ने कहा कि "अकेले उस संक्षिप्त आधार पर, छूट के आदेश को रद्द कर दिया जाना चाहिए."
कोर्ट ने मामले में अन्य अनियमितताओं का भी खुलासा किया. कोर्ट ने सवाल किया कि गुजरात हाईकोर्ट के पिछले आदेश से संबंधित भौतिक तथ्य (मैटेरियल फैक्ट) क्यों नहीं थी, जिसमें साफ तौर से कहा गया था कि गुजरात सरकार का कोई क्षेत्र अधिकार नहीं था या मुंबई की स्पेशल कोर्ट या इसपर सीबीआई की नकारात्मक राय थी, जिसका 2022 की याचिका में उल्लेख नहीं किया गया था.
तत्कालीन याचिकाकर्ताओं ने इस फैक्ट को भी छुपाया था कि गुजरात हाईकोर्ट का अनुपालन करते हुए, उन्होंने महाराष्ट्र सरकार के समक्ष कार्यवाही शुरू की थी. इस तरह के कदाचार को देखते हुए, मौजूदा बेंच ने मई 2022 के आदेश और उससे निकली सभी प्रक्रियाओं को रद्द कर दिया.
क्या माफी एक मौलिक अधिकार है?
भारत की पुनर्वास जेल प्रणाली के संदर्भ में, माफी प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को रेखांकित करने वाला एक महत्वपूर्ण साधन है. असल में यह एक संवैधानिक अधिकार है. मई 2022 सहित कई याचिकाओं ने आर्टिकल 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को माफी के अधिकार के साथ जोड़ा था, लेकिन इसकी पुष्टि करने के लिए कोई न्यायिक मिसाल मौजूद नहीं है. जेल राज्य का विषय है, छूट और माफी के नियम राज्य की नीतियों के अनुसार अलग-अलग होते हैं. गुजरात सरकार के विवादित आदेश में, जिस पॉलिसी पर भरोसा किया गया वह 1992 की पॉलिसी थी जिसे हालांकि 2014 की पॉलिसी से बदल दिया गया है.
माफी पर सामान्य कानून, साल 2000 के सुप्रीम कोर्ट के लक्ष्मण नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले से लिया गया है, जो खास शर्तें निर्धारित करता है जिसके खिलाफ माफी के आदेश का मूल्यांकन किया जाना चाहिए. इसमें शामिल है कि क्या यह एक व्यक्तिगत अपराध है या बड़े पैमाने पर समाज को प्रभावित करता है, दोषियों की आपराधिक क्षमता में बदलाव या दोबारा अपराध करने की प्रवृत्ति, दोषियों के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, और क्या लंबे समय तक कारावास से कोई सार्थक उद्देश्य पूरा हुआ है.
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि CRPC की धारा 433-ए के मुताबिक, आजीवन कारावास की सजा के मामले में 14 साल की कैद के बाद ही माफी की प्रार्थना की जा सकती है. इसलिए, भले माफी मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन यह नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है.
मौजूदा मामले में, अपराध की गंभीरता और यह तथ्य कि किसी भी दोषी ने पीड़ित के मुआवजे के लिए कोई भी जुर्माना नहीं चुकाया है (जो पश्चाताप की कमी को उजागर करता है) माफी देने से पहले मामले-दर-मामले की बारीकी से जांच की जरूरत पर जोर देता है. हालांकि, किसी को भी किसी व्यापक वर्गीकरण का शिकार नहीं बनना चाहिए क्योंकि भारतीय जेलों में अपराधों के लिए अनुचित रूप से लंबे समय तक कारावास की सजा देने के मामले बहुत हैं.
बिलकिस बानो के बलात्कारी स्पष्ट रूप से माफी के पात्र नहीं हैं, जैसा कि मौजूदा फैसले में सही माना गया है. लेकिन इसके बावजूद अदालतों को माफी के आवेदनों से निपटने और जहां उचित हो वहां इंसाफ देने से इनकार करते वक्त इस फैसले की किसी भी रूढ़िवादी व्याख्या से दूर रहना चाहिए.
(यशस्विनी बसु बेंगलुरु में वकील हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इनके लिए जिम्मेदार है.)
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