इसे एक तरह से विडंबना कहें या एकतरफा नीतियों का नतीजा, भारतीय जनता पार्टी (BJP) अपने बेशकीमती राज्य गुजरात में गौमाता के इर्द-गिर्द बुने गए जाल में फंस गई है. लाजमी है, गौमाता बीजेपी के लिए राष्ट्रवाद का प्रतीक है. दिसंबर में गुजरात में चुनाव (Gujarat Election) होने हैं, और भूपेंद्र पटेल सरकार को मालधारियों यानी पशुपालकों के जबरदस्त विरोध के बाद आवारा गायों के उत्पात को रोकने वाला बिल वापस लेना पड़ा. वरना उसे मालधारियों का वोट बैंक गंवाना पड़ता.
दरअसल गुजरात हाई कोर्ट ने सड़कों पर आवारा गायों की बढ़ती संख्या के चलते राज्य सरकार को फटकार लगाई थी. इसके बाद राज्य सरकार ने एक कानून पास किया था ताकि सड़कों पर गायों के उत्पात को काबू में किया जा सके और उन पशुपालकों को सजा दी जा सके, जो दुधारू न रहने वाली गायों को सड़कों पर छोड़ देते हैं.
लेकिन इस प्रस्तावित कानून- गुजरात शहरी क्षेत्रों में मवेशी नियंत्रण (पालन और आवाजाही) बिल, 2022 को 21 सितंबर को वापस ले लिया गया. इसे बजट सत्र के आखिरी दिन 31 मार्च को बहुमत से पास किया गया था और दो दिन के मानसून सत्र में इसे सर्वसम्मति से वापस ले लिया गया.
मुख्यमंत्री और पूर्व उप मुख्यमंत्री भी आवारा गायों से परेशान
अलबत्ता, इस कानून के पास होने के कुछ दिनों के भीतर मालधारियों को भरोसा दिलाया गया था कि इसे लागू नहीं किया जाएगा. चूंकि मालधारियों ने बीजेपी को धमकी दी थी कि वे चुनावों के दौरान उसका बहिष्कार करेंगे. यह समुदाय उत्तरी गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्रों की कई सीटों पर संतुलन बिगाड़ सकता है.
गुजरात में शहरीकरण बहुत तेजी से हो रहा है. यहां नगर निगम के दर्जे वाले आठ बड़े शहरों और 162 कस्बों में पिछले 10 महीनों के दौरान आवारा मवेशियों के हमलों के 4,860 मामले दर्ज किए गए हैं जिनमें 28 लोगों ने अपनी जान गंवाई है. लेकिन इन मामलों को गंभीरता से नहीं देखा गया.
यहां तक कि साल की शुरुआत में पूर्व उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल को पोरबंदर में एक गाय ने टक्कर मारी और उनका पैर फ्रैक्चर हो गया. इसके बाद मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल की रैली में बैल घुस आए.
बजट में आबंटन, पर सिर्फ कागजों पर
लेकिन ठहरिए, गोरक्षा आंदोलन अभी थमने का नाम नहीं ले रहा. इसी साल, यानी 2022-23 के बजट में गुजरात सरकार ने 450 पंजीकृत गौशालाओं के लिए 500 करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया. ताकि आवारा गायों की देखरेख के अलावा गौशालाओं में उन गायों की भी देखभाल हो सके, जिन्हें विजिलांटी ग्रुप्स कथित रूप से ‘रेस्क्यू’ करके लाते हैं- वरना वे बूचड़खानों की भेंट चढ़ जाएंगी.
यह बात अलग है कि छह महीने बाद भी गौमाता पोषण योजना के तहत बजटीय प्रावधान कागजों तक ही सिमटा हुआ है.
इस योजना के तहत गौशाला की हर गाय के लिए हर दिन 30 रुपए दिए जाने थे. लेकिन पैसा मिला नहीं, और मालधारियों के बाद अब गौशालाएं बीजेपी सरकार से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं.
गौशालाएं न सिर्फ बजट आवंटन का असल संवितरण चाहती हैं बल्कि यह भी चाहती हैं कि यह केवल इस साल का एकमुश्त प्रावधान न हो. उत्तरी गुजरात की एक गौशाला से जुड़े और गौशालाओं के 10,000 प्रतिनिधि ट्रस्टियों के प्रवक्ता किशोर शास्त्री बताते हैं कि 450 गौशालाओं में से हरेक में 500 से 2,000 गाय रहती हैं.
ये तो पंजीकृत गौशालाएं हैं, बाकी कुल मिलाकर 1,700 के करीब गौशालाएं होंगी. इनमें लोग व्यक्तिगत तौर पर, या छोटे समूहों में गायों को रखते हैं जिनकी संख्या 10 से 20 के करीब होती है.
बनासकांठा जिले में दीसा-राजपुर गौशाला, जिससे शास्त्री जुड़े हुए हैं, में 8,900 गायें हैं. गुजरात में पंजीकृत 450 गौशालाओं में से 180 इसी जिले में हैं.
इस जिले में पिछले हफ्ते विरोध की लहर बहुत तेज थी. यहां की सभी गौशालाओं ने अपनी गायों को सड़कों और सरकारी परिसरों में खुला छोड़ दिया. इसके अलावा उन्होंने जिला और ताल्लुका मुख्यालयों के सरकारी दफ्तरों में गोमूत्र और गोबर फैलाने का फैसला भी किया है.
गुजरात में कोई पक्की सबसिडी नहीं, उसे राजस्थान से सीखना चाहिए
शास्त्री का कहना है कि, "2001 में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद गौशालाओं को हर रोज हर गाय पर मिलने वाली 8 रुपए की छोटी सी सबसिडी को भी रोक दिया गया था. इसके बाद जब 2015 और 2017 और फिर 2020 से 2021 के दौरान उत्तरी गुजरात के कई क्षेत्रों और दूसरी जगहों पर बारिश से बाढ़ आई तो विजय रूपाणी सरकार ने हर गाय पर 25 रुपए की सबसिडी दी लेकिन सिर्फ दो से तीन महीने के लिए.
वह कहते हैं, “इससे ठीक उलट, 2018 में अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के बाद राजस्थान सरकार ने 4,500 करोड़ रुपए खर्च किए हैं और वहां हर गाय पर हर दिन लगभग 50 रुपए मिलते है. उत्तराखंड सरकार खुद एक हजार गौशालाएं चलाती है. बीजेपी गुजरात के लिए नियमित वार्षिक प्रावधान क्यों नहीं कर सकती, जबकि वह गौमाता की कसम खाती है?”
उनका कहना है कि दीसा-राजपुर गोशाला में कुल 8,900 गायों में से आधे से ज्यादा अदालती आदेश पर यहां भेजी गई हैं. चूंकि ये गाय आवारा सड़कों पर घूमा करती थीं, और वहां से उन्हें धर पकड़कर यहां भेज दिया गया है.
“क्या उनकी देखभाल करना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? वे उन्हें हमारे पास भेजते हैं क्योंकि उनके पास गाय को रखने के लिए जमीन नहीं है. क्या पुलिस उन चीजों को अपनी कस्टडी में नहीं रखती, जो वह जब्त करती है?” दीसा और एक अन्य गौशाला के ट्रस्टी महेश दवे कहते हैं, “हम जो गाय रखते हैं, वे हमारी अपनी गाय नहीं है, हम उन्हें नहीं लाए हैं. उन्हें सरकारी एजेंसियां या लोग हमारे पास लाए हैं. हम एक धर्मार्थ संगठन हैं."
औद्योगिकीकरण ने चराई की जमीन पर कब्जा जमाया
शहरी लोगों के लिए यह नगर निगम की लापरवाही की मिसाल है. नगर निगम उन पशुपालकों पर लगाम नहीं कस सकता जो अपनी गायों को सड़कों पर खुला छोड़ देते हैं और राहगीरों की जान जोखिम में पड़ती है. सरकार भी चुनावी फायदे के लिए आंख मूदें बैठी रहती है.
लेकिन समस्या सिर्फ इतनी भर नहीं है. इसकी जड़ें बीजेपी सरकार की आर्थिक नीतियों में गहरी धंसी है. पिछले तीन दशकों में बीजेपी ने राज्य के विकास के लिए तेजी से औद्योगिकीकरण किया. इसके परिणाम के तौर पर बेतरतीब शहरीकरण हुआ और मवेशियों के चरने के लिए जमीन सिकुड़ने लगी.
मालधारी विकास संगठन (गुजरात) के दिनेश रबारी कहते हैं, ''गायों को पालने वाले, पशुपालक इस पूरे परिदृश्य में खलनायक बन गए जबकि वे असल में पीड़ित हैं. हमने हाल ही में एक सर्वेक्षण किया है जोकि 2019 के नेशनल लाइवस्टॉक सर्वे पर आधारित है. इसमें हमने उत्तर गुजरात के पाटन और सौराष्ट्र के कच्छ और सुरेंद्रनगर के 15 ताल्लुका (तहसील) के 920 गांवों में घर-घर जाकर बातचीत की और पाया कि 63% गौचर भूमि (यानी चराई की जमीन) को या तो उद्योगों को दे दिया गया या अन्य निर्माण के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.”
सरकारी मापदण्ड के अनुसार हर 100 पशुओं के लिए 40 एकड़ चराई भूमि उपलब्ध होनी चाहिए.
रबारी कहते हैं, “हमने देखा कि जहां भी औद्योगीकरण हुआ, वहां गौचर की जमीन खत्म हो गई है. गुजरात के बाकी हिस्सों में भी स्थिति अलग नहीं है, बल्कि बड़े शहरों और कस्बों में हालात बदतर है जहां मवेशी चराने के लिए लगभग कोई जगह नहीं है.”
उनके मुताबिक, “इसका रास्ता यह है कि आप शहरों और कस्बों के बाहरी इलाकों में चराई की जगह या मालधारी वसाहट (कालोनियां) बनाएं. लेकिन सरकार के पास इसके लिए शायद ही कोई जमीन ही नहीं है."
इसके बाद गायों के लिए सड़कें ही बचती हैं
वह गलत नहीं है. 28 मार्च 2022 को राज्य विधानसभा के पटल पर राजस्व मंत्री ने एक सवाल के लिखित जवाब में कहा था, 2,614 गांवों में गौचर भूमि बिल्कुल नहीं है, जबकि 9,029 गांवों में हर 100 जानवरों पर न्यूनतम 40 एकड़ से कम चराई की जमीन है.
गुजरात में कुल 18,000 गांव हैं. इन गांवों में से ज्यादातर में चराई के लिए जमीन या तो है ही नहीं, या बहुत कम है, चूंकि वे शहरों के नजदीक हैं या पहले से ही उनका हिस्सा हैं. गुजरात के सभी आठ प्रमुख शहरों में रियल ऐस्टेट तेजी से फल-फूल रहा है और शायद ही कोई ओपन स्पेस बचा हो.
राज्य में उच्च शहरीकरण ने हालात और बिगाड़े हैं. चराई के लिए खुली जगह लगभग न के बराबर है. जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से, राज्य की शहरी आबादी 1981 में 31.1% से बढ़कर 2011 में 42.6% या 2.57 करोड़ हो गई है. तमिलनाडु और महाराष्ट्र के बाद गुजरात देश का सबसे अधिक शहरीकृत राज्य है.
जबकि 2001 और 2011 की जनगणना के बीच गुजरात की जनसंख्या की वृद्धि 19.17% थी, इस अवधि में शहरी जनसंख्या में 36% की व्यापक वृद्धि हुई थी. इसके विपरीत, ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि केवल 9% थी. आज की स्थिति यह है कि गुजरात की 75% जनसंख्या (यानी 1.47 करोड़ लोग) अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत, राजकोट, जामनगर, भावनगर, जूनागढ़ और गांधीनगर के आठ नगर निगम क्षेत्रों में रहती है.
(लेखक गुजरात के डेवलपमेंट न्यूज नेटवर्क (डीएनएन) के फाउंडर एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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