कई ऐसी शादियां होती हैं, जिनमें खूब झगड़े होते हैं. ऐसी भी शादियां होती हैं, जो खोखली होती हैं. महाराष्ट्र में शिवसेना ने अक्टूबर 2014 में एग्रेसिव और तेजी से उभरी बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का फैसला किया था, जबकि एक महीने पहले उसने बीजेपी के साथ 25 साल से चला आ रहा अलायंस तोड़ लिया था.
उसी समय पता चल गया था कि यह ‘शादी’ आसान साबित नहीं होगी. पिछले तीन साल से शिवसेना पार्टनर बीजेपी पर तंज करती रही. बीजेपी के अच्छा सलूक नहीं करने की शिकायत भी उसने की. सरकार में रहते हुए उसने विपक्षी दल की तरह व्यवहार किया और इसके जरिये यह संदेश दिया कि अलायंस की जो स्थिति है, उससे वह ज्यादा नाराज है.
आदित्य ठाकरे ने पहले ही दिए थे संकेत
इसका पटाक्षेप मंगलवार को हुआ, जब शिवसेना की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने बीजेपी के साथ रिश्ते तोड़ने की घोषणा की और कहा कि 2019 में लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव वह अकेले लड़ेगी. पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय राउत ने बीजेपी से अलग होने का प्रस्ताव पेश किया, जिसे कार्यकारिणी ने मंजूरी दे दी.
अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी पार्टी में फैसले लेने वाली सबसे बड़ी संस्था है. पिछले साल अक्टूबर में राउत ने बीजेपी को ‘शिवसेना का असल दुश्मन’ बताया था. उद्धव ठाकरे के बेटे और उनके उत्तराधिकारी आदित्य ठाकरे ने तो पिछले महीने ही बीजेपी से अलग होने का संकेत दे दिया था.
बीजेपी को पहले से खबर थी
राष्ट्रीय कार्यकारिणी के फैसले और उद्धव ठाकरे के बयानों से लगता है कि बीजेपी को इसकी खबर पहले से थी. हालांकि, इसके बावजूद महाराष्ट्र और केंद्र में दोनों पार्टियां मिलकर सरकार चला रही हैं यानी स्थिति ऐसी नहीं बनी है कि शिवसेना और बीजेपी या कांग्रेस और एनसीपी नए तालमेल की पहल करें.
ठाकरे ने बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते हुए कहा था, ‘घमंड बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के सिर चढ़कर बोल रहा है.’ उन्होंने मोदी सरकार को ‘विज्ञापनों की सरकार’ कहा था और प्रधानमंत्री का ‘अहमदाबाद में अंतरराष्ट्रीय नेताओं के साथ पतंग उड़ाने में अधिक दिलचस्पी लेने’ का मजाक भी उड़ाया था.
इन तल्ख बयानों के बावजूद उन्होंने अपने मंत्रियों को केंद्र या राज्य सरकार की कैबिनेट से इस्तीफा देने को नहीं कहा. यह ऐसा विरोधाभास है, जिससे ठाकरे को कोई गिला नहीं है.
शिवसेना का गेम प्लान
लेकिन इसकी वजह क्या है? पहली बात तो यह है कि एक तो वह सत्ता का सुख भोग रही है और इसके साथ वह असंतुष्ट वर्ग को 2019 चुनाव तक खुश रखना चाहती है. मोदी और देवेंद्र फडणवीस सरकार में शिवसेना के मंत्री होने से वह सरकार की लोकप्रिय नीतियों का श्रेय ले सकती है. साथ ही, वह अलोकप्रिय नीतियों से पल्ला झाड़ सकती है.
दूसरी बात यह है कि अलग होने का ऐलान करके ठाकरे ने बीजेपी और शरद पवार की परेशानियां बढ़ा दी हैं. उन्होंने बीजेपी को शिवसेना को सरकार से बाहर करने की चुनौती दी है. अगर बीजेपी ऐसा करती है तो शिवसेना को सहानुभूति का फायदा मिलेगा और बीजेपी को बेमन से एनसीपी की बिना शर्त समर्थन को स्वीकार करना पड़ेगा, जो उसने अक्टूबर 2014 में ऑफर किया था. राज्य विधानसभा में बीजेपी की 122 और शिवसेना की 63 सीटें हैं.
अगर ऐसा होता है तो पवार खुद को बीजेपी के विरोधी के तौर पर पेश नहीं कर पाएंगे. वह 26 जनवरी को ‘संविधान बचाओ’ मोर्चा की अगुवाई करने जा रहे हैं और 2019 में बीजेपी विरोधी गठबंधन के मास्टरमाइंड बनना चाहते हैं. फडणवीस ने शिवसेना के अलग होने के ऐलान पर संभलकर प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने दावोस में कहा, ‘अभी दोनों पार्टियां मिलकर सरकार चला रही हैं. इस सरकार का कार्यकाल पूरा होने दीजिए.’
मोलभाव की ताकत बढ़ेगी?
तीसरी बात यह है कि अब नए राजनीतिक अलायंस की अटकलें लगती रहेंगी. क्या ठाकरे एनसीपी या यहां तक कि कांग्रेस के साथ चुनाव से पहले अलायंस करेंगे? अगर शिवसेना अकेले चुनाव लड़ती है और महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटों और विधानसभा की 288 सीटों में सम्मानजनक प्रदर्शन कर पाती है, तब वह बीजेपी के साथ मोलभाव करने की हालत में होगी. 2017 में मुंबई में पार्टी अकेले निकाय चुनाव लड़ी थी और वह अपनी सत्ता बचाने में सफल रही.
चौथी बात यह है कि 2019 का चुनाव बीजेपी के लिए 2014 जैसा नहीं होगा, जब ‘मोदी लहर’ में विपक्ष धराशायी हो गया. ठाकरे को पता है कि मोदी से जनता का मोहभंग शुरू हो गया है. केंद्र और राज्य की फडणवीस सरकार को आज कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. गुजरात चुनाव में किसानों की बदहाली चुनावी मुद्दा बना. महाराष्ट्र में भी किसान सरकार से नाराज हैं. शिवसेना ने किसानों की कर्ज माफी को मुद्दा भी बनाया था.
पुणे में रहने वाले राजनीतिक जानकार सुहास पलिष्कर ने कहा, ‘2019 में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान करके शिवसेना ने साफ कर दिया है कि वह बीजेपी से कड़ा मोलभाव करने जा रही है. इसके साथ पार्टी ने शरद पवार के गेम प्लान पर भी पानी फेर दिया है.’
मोदी-शाह के इशारे पर चल रहे हैं फडणवीस?
पिछले तीन साल में मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और फडणवीस को महाराष्ट्र में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. कृषि संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. किसानों की कर्ज माफी का हल्ला ज्यादा और असर कम हुआ. मराठा विरोध लगातार मुखर हो रहा है. दलित नाराज हैं और भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद उनका ध्रुवीकरण हुआ है.
फडणवीस सरकार के मुंबई-नागपुर समृद्धि एक्सप्रेसवे और कोंकण में मेगा रिफाइनरीज के लिए जमीन अधिग्रहण में मुश्किलें आ रही हैं. कांग्रेस भी विरोध तेज कर रही है. हालांकि, वह उतनी मुखर नहीं है, जितना कि उसे होना चाहिए.
बीजेपी पर कांग्रेस की तरफ से हालिया हमला प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण ने किया है. उन्होंने कहा, ‘बाबा रामदेव को सस्ती जमीन देने के बाद फडणवीस सरकार पतंजलि की डीलर भी बन गई है.’ फडणवीस सरकार के अपने ई-सेवा पोर्टल पर पतंजलि के प्रॉडक्ट्स ऑफर करने पर चव्हाण ने यह बयान दिया था.
यह अंबानी, अडाणी और बाबा रामदेव की सरकार है. इसमें गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों, किसानों और कारोबारियों की कोई सुनवाई नहीं है.पृथ्वीराज चव्हाण, पूर्व मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र
यह सोच भी बन रही है कि फडणवीस, मोदी-शाह के इशारे पर काम कर रहे हैं. दूसरी पार्टियों की तुलना में शिवसेना इसका सबसे अधिक फायदा उठाने की कोशिश करेगी. 2019 के लिए तैयार हो जाइए. तब तक बीजेपी और शिवसेना की खोखली शादी चलने वाली है.
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(स्मृति कोप्पिकर वरिष्ठ पत्रकार हैं और मुंबई में रहती हैं. वो राजनीति, शहरी जिंदगी और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लगातार लिखती रही हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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