महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव के नतीजों के बाद सिद्धांत, सलाह और मायने निकालने की तो जैसे बाढ़ आ गई. सबसे ताजा तर्क तो यह सामने आया कि क्षेत्रीय पार्टियों की गुटबंदी ने बीजेपी की हालत खराब कर दी है.
अब ज्यादातर लोगों की राय यही है कि बीजेपी सावधान हो जाए, क्योंकि ना तो पार्टी के बहुसंख्यकवाद और ना ही सत्ता के केन्द्रीकरण का मॉडल अभेद्य है. कहा यह भी जा रहा है कि पार्टी के रवैये, मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण और हिंदू राष्ट्र के हठ को अगर अलग कर दें तो बीजेपी कांग्रेस का ही दूसरा नाम है.
अब यह सच है या नहीं यह तो 2024 के आम चुनाव के बाद ही पता चलेगा. लेकिन यहां एक अहम पहलू ऐसा है जिसे विश्लेषक समझ नहीं पा रहे हैं. वो यह कि बदलाव की तमाम कोशिशों के बाद भी, भारत में पिछले 2000 सालों से चली आ रही सत्ता के बंटवारे की एक ही शैली प्रभावी रही है. मैं इसे – ‘संविधान के मूलभूत ढांचा’ जैसे शब्द के बाद – भारत में सरकार और सत्ता का मूलभूत ढांचा मानता हूं.
यह अब हमारी डिस्क ऑपरेटिंग सिस्टम में गहरी पैठ बना चुका है. जो इसे नजरअंदाज करते हैं, या फिर इसका उल्लंघन करते हैं, वो पूरी तरह नाकाम होते हैं. जो थोड़े बहुत बदलाव के साथ इसका पालन करते हैं, लंबे समय तक सत्ता पर आसीन रहने में कामयाब होते हैं.
मुगल साम्राज्य 400 सालों तक बना रहा. ब्रिटिश साम्राज्य 200 सालों तक कायम रहा. दोनों ने क्षेत्रीय ताकतों के साथ सत्ता की साझेदारी की भारत की प्राकृतिक प्रवृति का पालन किया. इसके ठीक विपरीत, पिछले 70 सालों में, पहले कांग्रेस और अब बीजेपी हिंदुस्तान की हुकूमत को एक सांचे में ढालने की कोशिश में लगी है ताकि अलग-अलग प्रातों में भी राजनीतिक सत्ता केन्द्र के अधिकार में हो.
यह कोशिश लगातार जारी रही, इसके बावजूद कि 1950 का संविधान भी साफ तौर पर यह मानता है कि सत्ता का ऐसा केन्द्रीकरण मुमकिन नहीं है. दरअसल संविधान के निर्माताओं की मूल भावना भी यही थी. संविधान की पूरी संरचना इसी विचार के आधार पर की गई. यही वजह है दोनों पार्टियां अपने मंसूबों में नाकाम रही.
भारत में सत्ता चलाने की कोशिशों में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने राष्ट्रवाद की बांधने वाली अपील का इस्तेमाल किया क्योंकि दोनों पार्टियों को लगता है कि पश्चिमी देशों जैसी ‘नेशन स्टेट’ मॉडल के लिए यह अनिवार्य है. कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता का सहारा लिया जो कि जनता और समाजवाद के लिए स्वाभाविक नहीं है. दोनों समावेशी प्रकृति के हैं. बीजेपी धर्म का इस्तेमाल कर रही है जो कि बांटने का काम करती है जबकि समाजवाद लोगों को जोड़ती है. यहां विरोधाभास नजर आता है. कांग्रेस ने बहुसंख्य बनाने की कोशिश की और नाकाम रही. बीजेपी हिंदू बहुसंख्य का इस्तेमाल करना चाह रही है और नाकाम होना शुरू हो चुकी है.
इसके पीछे एक बहुत मजबूत, लगभग अपरिहार्य, वजह है. वो यह कि अकबर के शासनकाल तक भारत में सामंतवाद हावी रहा, जिसे बदल कर उसने मनसबदारी की व्यवस्था लागू की. धन दोनों के लिए आवश्यक था. दोनों व्यवस्था में सत्ता धन से ही चलती थी, अकेली सेना से नहीं चलती थी. हकीकत में बिना धन के सत्ता की कल्पना भी नामुमिकन थी.
अगर थोड़ा रुककर सोचें, 2014 के बाद लगभग सभी विधानसभा चुनावों में ठीक ऐसा ही नजर आया. चाहे वो 2018 में मध्य प्रदेश में कमलनाथ हों या अब शरद पवार और भूपेन्द्र सिंह हुड्डा हों, चुनाव में इनके विरोध की ताकत को अगर किसी चीज से शक्ति मिली तो वो थी धन इकट्ठा करने की इनकी काबिलियत.
मेरा मानना है सामंतवाद और मनसबदारी ऐसे ही काम करते थे. सामंत और मनसब वो स्थानीय नेता होते थे जो केन्द्रीय शासन से गठजोड़ या उसका विरोध करते थे. सब कुछ इस पर निर्भर करता था कि जमीन से उनकी उगाही कितनी होती है और उनकी सेना कितनी बड़ी है. यह दोनों के आपसी फायदे के संतुलन का बहुत ही नाजुक तालमेल होता था.
सामंत और मनसब की सिर्फ एक मांग होती थी कि उन्हें अपने फैसले लेने की छूट दी जाए. वंशवाद इस व्यवस्था के केन्द्र में होता था. जिसे चुनौती देने का मतलब होता था गठबंधन में परिवर्तन.
उतनी ही अहम होती थी हठी लोगों को दंड देने की केन्द्रीय सत्ता की ताकत. ब्रिटिश इसे परम सत्ता (Paramountcy) कहते थे, यानि कि संतुलन बनाए रखने के लिए ताकत का इस्तेमाल करना.
1950 में संविधान ने अनुच्छेद 356 के जरिए केन्द्र सरकार को वह ताकत दे दी जिससे राज्य सरकारों को बरखास्त किया जा सके. लेकिन 1992 में, बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह ताकत कमजोर हो गई. और आधुनिक सामंत और मनसब की ताकत 1992 के पहले से कहीं ज्यादा हो गई.
पिछले विधानसभा चुनावों में भी ऐसा ही देखने को मिला. बीजेपी की तमाम कोशिशों के बाद भी, स्थानीय नेताओं ने पार्टी का विरोध किया है. सच तो यह है कि वो अपने पुराने संरक्षक, गांधी परिवार, के भी खिलाफ गए हैं.
उनका संदेश साफ है: हमें अकेला छोड़ दो, नहीं तो! अगर बीजेपी नहीं मानती है तो 2024 में उसकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं. दुष्यंत चौटाल के साथ सहयोग से लगता है पार्टी उस दिशा में सकारात्मक कदम उठा रही है. लेकिन शिवसेना के साथ तालमेल बिठाने में बीजेपी पूरी तरह नाकाम रही.
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