"अमन का झंडा इस धरती पे/ किसने कहा लहरें ना पाए/ ये भी कोई हिटलर का है चेला/ मार ले साथी जाने न पाए!/ कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू/ मार ले साथी जाने न पाए!"
भारत के महानतम गीतकारों और कवियों में से एक मजरूह सुल्तानपुरी (Majrooh Sultanpuri) द्वारा लिखी और सुनाई गई इस कविता के कारण उन्हें 1951 में जेल जाना पड़ा. इसके बाद सुल्तानपुरी को दो साल की सजा हुई, जब उन्होंने माफी मांगने से साफ इनकार कर दिया था.
वह किसी भी तरह से आजादी के बाद के वर्षाें में जेल जाने वाले फिल्म इंडस्ट्री के पहले या एकमात्र व्यक्ति नहीं थे.
वामपंथी आंदोलन ने आजाद भारत की नवगठित सरकार पर सवाल उठाए
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिशों के अत्यधिक मुखर आलोचक वामपंथी आंदोलन ने आजाद भारत की नवगठित सरकार के तहत सामाजिक अन्याय के रूप में जो कुछ भी माना, उस पर सवाल उठाना जारी रखा. और अक्सर, उन्होंने खुद को सत्ता के विपरीत पक्ष में पाया.
प्रसिद्ध अभिनेता एके हंगल कम्युनिस्ट होने के कारण कराची जेल में तीन साल बिताने के बाद 1949 में अपनी जेब में सिर्फ 20 रुपये लेकर बंबई (अब मुंबई) आए थे. उसी साल, अभिनेता बलराज साहनी को कम्युनिस्ट पार्टी के जुलूस से उठा लिया गया और दो साल की सजा हुई.
हिंदी सिनेमा और एक नई सरकार के बीच संबंध की शुरुआत स्पष्ट रूप से मुश्किल भरी थी, लेकिन बाद में आपसी आदना-प्रदान के बाद चीजें बदलनी शुरू हो गईं. जैसे ही नेहरू का भारत सहज समाजवाद में बसा, व्यावसायिक फिल्म निर्माताओं को अप्रत्याशित बढ़ावा मिला.
USSR के साथ बढ़ते संबंधों ने भारतीय फिल्म निर्माताओं को वहां मनोरंजन के दर्शकों के लिए अपनी फिल्में रिलीज करने में मदद की.
राज कपूर की श्री 420 और आवारा , देव आनंद अभिनीत राही और सुनील दत्त-नरगिस अभिनीत मदर इंडिया जैसी फिल्में USSR के विभिन्न समाजवादी गणराज्यों में कई भाषाओं में रिलीज की गईं. यह भारत और USSR के लिए फायदे का सौदा था. सोवियत ने भारतीय फिल्मों को हॉलीवुड के "भ्रष्ट" प्रभाव के लिए एक अधिक सुरक्षित विकल्प के रूप में देखा.
मजेदार बात यह है कि उस समय व्यावसायिक भारतीय फिल्मों के लिए जो चीज काम करती थी, वह रंक से राजा बनने की कहानियां और काल्पनिक अंत थीं.
सत्यजीत रे जैसे फिल्म निर्माताओं को पश्चिम में क्रिटिक्स की ओर से खूब प्रशंसा मिली, लेकिन उसके परे भारतीय यानी की घरेलू दर्शकों द्वारा उनकी फिल्मों का मजाक उड़ाया गया. आखिरकार, भारत इस मामले में सोवियत संघ से अलग नहीं था क्योंकि दर्शकों को रोजमर्रा की जिंदगी की चुनौतियों से आजादी पाने के लिए बस सिनेमा की जरूरत थी, और ये फिल्में हर चीज से ऊपर आशाएं बेचती थीं.
यहां तक कि आम आदमी के संघर्ष और मनोरंजन के बीच की रेखा पर चलने वाली दिलीप कुमार की फिल्में भी दर्शकों को हमेशा उनके होठों पर एक गीत और उनके दिलों में आशा के साथ घर वापस भेजती थीं.
कमर्शियल हिंदी सिनेमा तेजी से नेहरू की कूटनीति का एक महत्वपूर्ण हथियार बन गया था.
देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक निर्यात के रूप में, इन फिल्मों ने नई सरकार को हिंदी को शेष विश्व में भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में सुदृढ़ करने में भी मदद की, जो पहले से ही देश के भीतर विवाद का विषय बन रही थी.
1970 के दशक की शुरुआत- हिंसक, राजनीतिक रूप से भरी फिल्मों का उदय
1970 के दशक की शुरुआत में हिंदी सिनेमा में एक बड़ा बदलाव देखा गया. सरल- सहज रोमांटिक फिल्मों का स्थान हिंसक, राजनीतिक रूप से भरी फिल्मों ने ले लिया.
गरीबी और भ्रष्ट राजनेताओं के शासन से जूझ रहे देश की धुंधली हकीकत ने स्क्रीन पर अपना रास्ता बनाना शुरू कर दिया. हर मौके पर नाकाम साबित सिस्टम से बदला लेने की समाज की ख्वाहिश ने एक "एंग्री यंग मैन" का किरदार गढ़ा.
हालांकि, सामूहिक मोहभंग एक अच्छी स्क्रिप्ट के शब्दों से कहीं अधिक साबित हुआ. जब इंदिरा गांधी ने 1975 में देश में आपातकाल लगाया और असहमत लोगों पर कार्रवाई की, तो कुछ सबसे जोरदार और साहसी निंदा फिल्मी सितारों ने की, खासकर उन लोगों ने, जो जानते थे कि उनकी आवाज इस देश के लाखों लोगों के लिए मायने रखती है.
देव आनंद और मनोज कुमार जैसे बड़े सितारों ने सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया और शत्रुघ्न सिन्हा, प्राण और युवा डैनी डेन्जोंगपा जैसे लोग भी इसमें शामिल हुए. किशोर कुमार जैसे अन्य लोगों ने सरकारी और कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रमों में प्रदर्शन के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया.
कैसे सरकार ने विरोध करने वाले अभिनेताओं पर नकेल कसी
सरकार ने कार्रवाई करते हुए दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित होने वाले इन सितारों की फिल्मों और गानों पर बैन लगा दिया था.
दूरदर्शन ने सिनेमाघरों में रिलीज होने से दो हफ्ते पहले ही मनोज कुमार की नई रिलीज 'शोर' का प्रसारण भी कर दिया, जिससे फिल्म के निर्माताओं को भारी नुकसान हुआ. गुलजार की 'आंधी', जो कथित तौर पर इंदिरा गांधी के जीवन से प्रेरित थी, आपातकाल के शुरुआती दिनों में रिलीज होने वाली थी, लेकिन इसे 21 महीनों के लिए बैन कर दिया गया.
यह सरकार के लिए ब्लू प्रिंट बन गया क्योंकि इसके बाद वह हुआ जिसे पूरे उद्योग के खिलाफ प्रतिशोध ही कहा जा सकता है. हालांकि, असहमत लोग इससे प्रभावित नहीं हुए और उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाने के जबरदस्त प्रयास के खिलाफ बोलना जारी रखा. दिग्गज निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने अपनी फिल्मों में आपातकाल को लेकर चुटीले अंदाज में तंज कसना भी शुरू कर दिया.
अब चीजें कितनी बदल गई हैं?
जब भी देशवासियों को राजनीतिक भ्रष्टाचार और सामाजिक अन्याय का सामना करना पड़ा, चाहें ऑन-स्क्रीन या ऑफ-स्क्रीन हो, फिल्म उद्योग एक आलोचनात्मक आवाज बना रहा.
अगर हमारे पास 1990 के दशक में भू-माफिया और भ्रष्ट राजनेताओं पर आधारित कई "एंग्री यंग" सनी देओल की फिल्में थीं, तो हमारे पास भारत के सबसे वंचितों की दुर्दशा को दर्शाने वाला समानांतर सिनेमा भी था.
हर आवाज महत्वपूर्ण थी, और हर आवाज सुनी जाती थी.
लेकन अब स्क्रीन पर दिखाई जा रही कहानियां धीरे-धीरे या तो अराजनीतिक हो गई हैं या सत्तारूढ़ व्यवस्था की राजनीति के पक्ष में हो गई हैं. हालांकि, पर्दे के पीछे जो हो रहा है, वह और भी अधिक चिंताजनक है.
बीते एक दशक में वर्तमान सरकार और फिल्म उद्योग के बीच क्या हुआ है, इसे समझने के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है.
कई फिल्मी हस्तियों ने पिछली सरकार, बड़े भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ आवाज उठाई थी. कोई यहां तक कह सकता है कि उस सरकार के पतन में उनकी सामूहिक अपील और सोशल मीडिया पहुंच का बड़ा हाथ था. तो क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि नई सरकार वही करने की कोशिश कर रही है जो नेहरू ने 70 साल पहले किया था?
हालांकि, संदेश को नियंत्रित करने के लिए सबसे प्रभावशाली आवाजों को शामिल करना, कहने में जितना आसान लगता है, करने में उतना ही मुश्किल.
लोगों को सेल्फी खिंचवाने के लिए अपने पद का उपयोग करना एक बात है, और वास्तव में उन्हें धार्मिक राजनीति के एक चरम ब्रांड का समर्थन करने के लिए प्रेरित करना दूसरी बात है.
जब आपके पास फिल्म इंडस्ट्री की तरह एक डाइवर्स इंडस्ट्री है, तो आपके पास धर्मनिरपेक्ष मानवतावादी विश्वदृष्टिकोण रखने वाले अधिक लोग होंगे. और जिन लोगों का वामपंथ की ओर झुकवा होता है, वो स्वाभाविक रूप से सत्ता-विरोधी होते हैं और बेजुवानों पर होने वाले आत्याचार के खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं.
जैसे-जैसे हमारे रोजमर्रा के जीवन धार्मिक कट्टरता बढ़ने लगी है, आक्रोशित भीड़ और अमाजिक समूहों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराना शुरू कर दिया है.
बॉलीवुड को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ा, फिल्म के सेट को सिर्फ इसलिए नष्ट कर दिया गया क्योंकि कोई व्यक्ति किसी ऐसी बात से सहमत नहीं था जिसके बारे में अफवाह थी कि फिल्म में है. यहां तक की एक एक्ट्रेस की नाक काटने की धमकी भी दी गई है.
कुछ ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो उन्हें तुरंत पाकिस्तान जाने के लिए बोल दिया गया, जबकि अन्य को लगातार ऑनलाइन ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा. सरकार द्वारा अपने विवादास्पद नागरिक संशोधन विधेयक की घोषणा के बाद हालात और भी खराब हो गए.
पूजा भट्ट, राजकुमार राव, अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, दीया मिर्जा, अली फजल, अनुभव सिन्हा और कबीर खान जैसे कई फिल्मी हस्तियों की आवाज, हारी हुई इस बाजी में इंडस्ट्री के आखिरी स्टैंड की तरह लगती है. यह चार साल पहले की बात है. तब से, हम चापलूस मीडिया द्वारा संचालित और दुनिया की सबसे शक्तिशाली ऑनलाइन ट्रोल सेना द्वारा समर्थित शक्तियों द्वारा फिल्म इंडस्ट्री के खिलाफ एक सुनियोजित हमले से गुजर रहे हैं.
आज भी जिन लोगों के पास रीढ़ है, शायद वो अपना प्लेटफॉर्म खोने के डर से नहीं बोलते हैं, लेकिन किसी सीन या संवाद को इधर-उधर डालकर खुद के काम को अपनी राजनीति के बारे में बोलने देते हैं.
हालांकि, जो लोग अभी ऐसा नहीं कर रहे हैं, उम्मीद है कि उन्हें इसके लिए पैसा मिल रहा होगा. इन सबके बाद, मालदीव और लक्षद्वीप के बीच अंतर न जानने के कारण आपके प्रशंसकों द्वारा अपमानित किए जाने की कल्पना कीजिए. कल्पना कीजिए कि एक ही सांस में कंगना रनौत, अनुपम खेर या विवेक अग्निहोत्री के साथ आपके नाम का उल्लेख किया जा रहा हो. और यह सब मुफ्त में करने की कल्पना कीजिए.
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