दुनिया में इतनी भव्यता और लंबे दिनों तक शायद ही किसी की जयंती मनाई जाती होगी, जितना बाबा साहेब डॉ बी.आर अंबेडकर की. 14 अप्रैल से शुरू होती है और करीब एक महीने तक जगह-जगह मनती रहती है. दूसरे और तीसरे माह तक जन्मोत्सव का उत्सव चलता रहता है. सरकारी विभागों में कर्मचारी जुलाई और अगस्त तक भी मनाते रहते हैं. मूर्तियां भी बेहिसाब लग गई हैं. सरकार की तरफ से तो लगती ही हैं, गांव-गांव में डॉ अंबेडकर देखे जा सकते हैं.
करीब 20 साल पहले उत्तर भारत में डॉ अंबेडकर के कैलेंडर, फोटो, मूर्ति खोजने से मिलती थीं. लोग जानते ही नहीं थे कि संविधान निर्माता के रूप में इनका सबसे अधिक योगदान था. इन्हें दलित कर्मचारियों और अधिकारियों द्वारा ज्यादा प्रचारित किया गया और बाद में तो प्रत्येक राजनीतिक दल वोट साधने के वास्ते फैला दिए.
डॉ अंबेडकर का जाति प्रथा उन्मूलन प्रथम उद्देश्य था. जाति नष्ट करने के लिए विभिन्न धर्मों का अध्ययन किया और अंत में बौद्ध धर्म अपनाया. इस्लाम धर्म की कट्टरता को देखकर उसे अपनाने का विचार त्याग दिया. ईसाई धर्म से भी संतुष्ट नहीं थे. सिख धर्म से प्रभावित थे और ग्रहण करने वाले थे, लेकिन अंत में विचार त्याग दिया. सिख धर्म के नेता मास्टर तारा सिंह के कुछ जातिवादी व्यवहार से भड़क गए थे.
14 अक्टूबर 1956 को लाखों लोगों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म अपना लिया. सबको 22 प्रतिज्ञा दिलाई और कहा तोड़ो जाति के बंधन को. बाबा साहेब मानते थे कि हिंदू धर्म ही भेदभाव का स्रोत है, इसलिए सुधार से काम नहीं चलेगा और इसे छोड़ना ही मात्र विकल्प है.
क्या बाबा साहेब के सिद्धांतों पर चल रहे अनुयायी?
वर्तमान में सबसे ज्यादा सांदर्भिक यह है कि इनके अनुयायी क्या इनके सिद्धांतों पर चल रहे हैं? क्या जाति को त्याग कर सके हैं या जाति का प्रभाव कुछ कम हुआ या आगे चलकर कुछ ऐसा हो सकता है? इसकी संभावना न के बराबर दिखती है. मंचों और राजनीतिक भाषणों में ज्यादातर अनुयायी जाति त्यागने की बात करते हैं, लेकिन इनका काम इसके विपरित ही होता है. सार्वजनिक जीवन में सभी एक-दूसरे को जाति विच्छेद का पाठ पढ़ाते मिल जाएंगे, लेकिन जैसे ही निजी जीवन या शादी की बात आती है तो अपवाद को छोड़कर सब जाति के अंदर ही करते हैं.
अंबेडकरवादियों का करीब वही सामाजिक वर्ताव है जो अन्य में है. पुरुष अपनी महिलाओं के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसे अन्य समाज में होता है. अपनी महिलाओं को भी लोक-लज्जा के कटघरे में कैद रखते हैं. दलितों और पिछड़ों के सामने करीब सारे स्वर्ण एक हो जाते हैं और यहां विपरीत है.
बाबा साहेब ने कहा था कि संगठित हों, लेकिन कर रहे हैं विपरीत ही. एक अगर बढ़ता है, तो दूसरा टांग खींचने के लिए बैठा है. उदाहरण के लिए दिल्ली में करीब सभी वाल्मिकि झाड़ू को वोट दे दिए, जबकि इनके बीच तमाम नेता पैदा हुए, लेकिन ये कभी एक नहीं हुए. एक-दूसरे के खिलाफ कोई कमी लेकर खड़ा मिलेगा. मान लेते हैं कि कुछ कमी हो तो क्या सवर्ण नेतृत्व के सामने भी ऐसा व्यवहार है? केजरीवाल कितना इस समाज के लिए लड़े थे?
एक बात को लेकर आम दलितों की बड़ी शिकायत रहती है कि, काश! गांधी जी ने पृथक मताधिकार की बात अनशन करके बाधित न किए होते तो आज हम कहां होते? वर्तमान को देखकर कहा जा सकता है कि यह अच्छा ही हुआ था, वरना हालात और खराब होते. माना कि गांधी जी ने गलती किया और नहीं हो पाया. बाबा साहेब ने कौन सी गलती की कि जब 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म अपनाकर जातिविहीन समाज के कारवां की शुरुआत की, तो कितनों ने जाति का विनाश किया. कर तो शादी-विवाह जाति में ही रहे हैं, वोट तो जाति देखकर करते हो.
बिन मूर्ति के फैलाएं विचार
जाति के संगठन तेजी से बनते जा रहे हैं. अगर पृथक मताधिकार की बात मान ली होती तो स्थिति बदतर होती. जो जाति जहां ज्यादा है, उसी के जनप्रतिनिधि चुनकर बार-बार आते. जिन जातियों ने बौद्ध धर्म अपना लिया है, उन्होंने कर्मकांड जरूर कम किए हैं, लेकिन जातीय चेतना उतनी ही है. कभी-कभी तो देखा गया है कि ये ज्यादा ही जातिवादी हैं, क्योंकि अधिकार के प्रति सचेत हैं. जानते हैं कि संख्या बल से राजनीतिक ताकत मिलती है तो इसे हथियार बना लेते हैं. मंच और बोल चाल में नहीं प्रदर्शित होता है, लेकिन व्यवहार में खूब देखा जा सकता है. लाभ पाने और भागीदारी के सवाल पर जाति में जाति खोजी जाती है. सवर्ण समाज से सीखना चाहिए कि जिससे लाभ मिले उसको इस्तेमाल कर लेते हैं. अंबेडकरवादियों को इनसे सीखना चाहिए, न की भावना में बहते जाना चाहिए.
जयंती, सम्मेलन, गोष्ठी जरूरी हैं, विचार के प्रसार के लिए लेकिन वे कर्मकांड के रूप में न परिवर्तित हों. मूर्तियां लगाना भी जरूरी है, लेकिन वहीं तक सीमित न रहें. इस्लाम में पैगम्बर मोहम्मद की तस्वीर लगाना प्रतिबंधित है, लेकिन आज यह दुनिया का दूसरे नंबर का धर्म है. धार्मिक एकता बेमिसाल है. इससे यह समझा जा सकता है कि बिना मूर्ति के भी विचार को फैलाया जा सकता है, एक हुआ जा सकता है. जाति के सवाल को जितना डॉ अंबेडकर विमर्श में लाए, अगर राजनीतिक दलों ने इसका महत्व समझा होता, तो भारत, अमेरिका और यूरोप हो सकता था. जब तक जाति के प्रश्न को महत्व नहीं दिया जाता, देश की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति कमोबेश ऐसी ही रहेगी.
(लेखक डॉ उदित अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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