सत्ता विरोधी लहर, जीएसटी के लागू होने से बिजनेस में आई सुस्ती और तीन युवा नेताओं- हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी के वोटरों को जाति के आधार पर एकजुट करने की कोशिशों के बीच बीजेपी गुजरात में 182 सीटों में से 99 सीटें जीतकर लाज बचाने में सफल रही.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई शख्सियत और लोकप्रियता के चलते बीजेपी चुनाव जीत पाई. 2002, 2007 और 2012 विधानसभा चुनावों में भी पार्टी के लिए यह बड़ा फैक्टर था. मोदी बीजेपी के सबसे बड़े ब्रांड हैं. उनकी वजह से गुजरात में पार्टी एकजुट है.
यह मोदी का करिश्मा ही है, जिससे प्रदेश नेतृत्व संगठित हुआ और बीजेपी की जीत पक्की हुई. राहुल गांधी को भी कांग्रेस की तरफ से चुनाव प्रचार की पूरी जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ी. प्रदेश कांग्रेस में इतना मतभेद था कि पार्टी में मुख्यमंत्री उम्मीदवार के नाम पर सहमति नहीं बन पाई.
GST रेट में बदलाव से सूरत पर बनी रही BJP की पकड़
अगर 2014 लोकसभा के वोट शेयर और विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त से 2017 विधानसभा चुनाव के नतीजों की तुलना की जाए] तो बीजेपी का आधार काफी कम हुआ है. लोकसभा चुनाव में उसे 60 पर्सेंट वोट मिले थे, जो घटकर 49.5 पर्सेंट रह गए.
लोकसभा चुनाव में वह 167 विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी. इस बार उसे 99 सीटें मिली हैं. सौराष्ट्र में बीजेपी काफी कमजोर हुई है, जो उसका मजबूत गढ़ था. हालांकि, इसकी भरपाई पार्टी ने दक्षिण गुजरात और उत्तर गुजरात में कर ली.
बीजेपी इस बात से खुश हो सकती है कि जीएसटी को लेकर मचे हो-हल्ले का चुनाव पर असर नहीं पड़ा. पार्टी ने सूरत में एक को छोड़कर सभी सीटें जीतीं, जहां जीएसटी का विरोध सबसे मुखर था. वैसे यह बात हैरान करने वाली है. जीएसटी से छोटे कारोबारियों की कमाई पर चोट पड़ी है. ऐसा लगता है कि जीएसटी की दरों में दो बार बदलाव और नियमों में संशोधन करके पार्टी कारोबारियों का परंपरागत वोट बैंक बचाने में सफल रही.
कांग्रेस का वोट शेयर बढ़ा
विधानसभा में कांग्रेस का वोट शेयर बढ़ा है. इसलिए वह खुश है. पार्टी ने सहयोगियों के साथ 2012 की तुलना में 37 अधिक सीटें हासिल कीं. कुछ महीने पहले 13 विधायकों के पार्टी छोड़कर बीजेपी में जाने से उसके एमएलए की संख्या 43 रह गई थी. कांग्रेस ने आदिवासी बहुल इलाकों में गंवाई हुई जमीन हासिल की है. उसने बीजेपी से ऐसी कई सीटें छीनी हैं.
कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार 6 लाख अधिक वोट मिले. हालांकि, शक्तिसिंह गोहिल, सिद्धार्थ पटेल और अर्जुन मोढवाडिया जैसे बड़े नेताओं की हार से विधानसभा के अंदर कांग्रेस के लिए बीजेपी को घेरना आसान नहीं होगा. कांग्रेस को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि उसकी अप्रूवल रेटिंग बढ़ गई है. पहले की तुलना में अधिक लोगों ने उसे इसलिए वोट किया क्योंकि वे बीजेपी को वोट नहीं देना चाहते थे.
गुजरात मॉडल पर सवालिया निशान
इन चुनावों में जातीय पहचान का मुद्दा जोर-शोर से उठा था. इसका मतलब यह है कि जाति से ऊपर उठकर हिंदुत्व की विचारधारा पर जोर देने वाली बीजेपी की रणनीति गुजरात में कमजोर पड़ रही है. आने वाले वर्षों में भी चुनावों में जाति का बड़ा रोल बना रहेगा, क्योंकि हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी अपना एजेंडा नहीं छोड़ेंगे.
चुनाव प्रचार के दौरान दोनों पार्टियों के नेता कई मंदिरों में गए. बीजेपी ने ताकतवर माने जाने वाले खोडलधाम ट्रस्ट का समर्थन हासिल करने के लिए जोर लगाया. राम मंदिर का भी जिक्र हुआ.
हालांकि, ऐसा लगता है कि इन मुद्दों का वोटरों पर बहुत असर नहीं पड़ा. इन चुनावों में विकास के कथित गुजरात मॉडल पर भी सवालिया निशान लगा. यह बेवजह नहीं है. हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश भले ही जाति आधारित एजेंडा लेकर आए थे, लेकिन वह राज्य के एक बड़े वर्ग की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जिन्हें इस विकास का फायदा नहीं मिला है.
बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं, रोड, ट्रांसपोर्टेशन की सुविधा राज्य के सभी क्षेत्रों में एक जैसी नहीं हैं. निजी क्षेत्र का दखल बढ़ने की वजह से इन पर अधिक पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं, जिससे लोग नाराज हैं.
चुनाव प्रचार के दौरान वोटरों में बेरोजगारी को लेकर काफी गुस्सा दिखा. इसका मतलब यह है कि वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन अच्छी जॉब के साथ लोगों की आमदनी बढ़ाने में असफल रहे हैं.
ऐसे में बीजेपी को विकास के अपने मॉडल पर पुनर्विचार करना चाहिए. उसे मध्य और निम्न मध्यम वर्ग की चिंताओं को दूर करना होगा.
(लेखक वडोदरा की महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amit_Dholakia है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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