जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपना आर्म गार्ड (यानी लाल बहीखाता) लेकर पवेलियन (यानी नॉर्थ ब्लॉक) से निकलीं और स्ट्राइकर एंड (यानी संसद) पर पहली बार गार्ड लिया, तब वह खतरनाक पिच पर बल्लेबाजी करने जा रही थीं.
क्रीज पर उनके दो घंटे के सफर को तीन ‘क्लीयर स्पेल्स’ में बांटा जा सकता है. इसमें वह आक्रामक बल्लेबाज से लेकर गड़बड़ी करने वाले एकाउंटेंट और आखिर में ड्रेसिंग रूम की तरफ लौटती हुई नजर आईं.
आक्रामक बल्लेबाजी
उनके सामने जो शुरुआती बाउंसर आए, उनमें से एक पर उन्होंने हुक शॉट लगाया, जो स्टेडियम से बाहर गिरा. निर्मला ने कहा कि सरकार 10 अरब डॉलर के सॉवरेन बॉन्ड विदेशी बाजार में बेचेगी. यह वाकई जानदार शॉट था. एक झटके में उन्होंने फॉरेन करेंसी रिस्क को अपने फिस्कल अकाउंट में डाला और इससे भारत के बॉन्ड मार्केट में खुशी की लहर दौड़ गई, जिससे कंपनियां सस्ता फंड जुटा पाएंगी.
उन्होंने इस मामले में किसी उद्यमी की तरह जोखिम उठाया, जिसे देखकर मैं रोमांचित हो गया. वह भी इसे देखते हुए कि विदेशी कर्ज और जीडीपी रेशियो 3.8 पर्सेंट के साथ काफी सुरक्षित स्तर पर है. यह सही है कि उनके मंत्रालय को अब डॉलर की हेजिंग और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में ट्रेजरी ऑपरेशंस जैसे हुनर सीखने होंगे, लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि उन्होंने कम से कम हिम्मत (सहवाग की तरह) तो दिखाई.
इसके बाद उन्होंने शानदार स्क्वेयर कट लगाया, जो बाउंड्री लाइन के पार गया. एक साल के ज्यादा समय से देश का बैंकरप्सी कोड (दिवाला कानून) अस्पष्ट नियमों और लिहाजा, पंगु करने वाले टैक्स रूल्स की गिरफ्त में था. इस वजह से अदालती कार्यवाही में ये मामले फंस रहे थे. इससे संभावित निवेशकों की दिलचस्पी घट रही थी, सौदों की कीमत अनिश्चित टैक्स देनदारी की वजह से अधिक हो रही थी. एक बार फिर उन्होंने एक झटके में इसे ठीक कर दिया.
- दिवाला कानून के तहत खरीदारों को पिछले घाटे को आगे बढ़ाने और उसे मुनाफे से एडजस्ट करने की इजाजत दे दी गई. जब सामान्य तौर पर किसी कंपनी को बेचा जाता है तो खरीदार को यह सहूलियत नहीं मिलती.
- इसी तरह, जिस डेप्रिसिएशन का इस्तेमाल नहीं हुआ है और घाटे को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) भेजे जानी वाली कंपनियां घटा सकती हैं.
- आखिर में, अगर शेयर फेयर मार्केट वैल्यू (एफएमवी) से कम कीमत पर मिला हो तो कुछ तय वर्गों में टैक्स माफ किया जाएगा. अभी इसकी अधिसूचना नहीं आई है, लेकिन इसका मकसद साफ है- जिस तरह से दिवाला प्रक्रिया में सौदा दो पार्टियों के नियंत्रण से बाहर होता है, वैसे मामलों में टैक्स छूट दी जाए.
अंत में, उन्होंने ब्लॉकहोल से एक यॉर्कर को मिड विकेट पर धकेलकर महत्वपूर्ण एक रन बटोरा. वित्त मंत्री ने एंजेल टैक्स को खत्म करके यह करिश्मा किया. इस टैक्स से कोई भी खुश नहीं था. अगर निवेश करने वाले और संबंधित कंपनी ने अपने रिटर्न में वैल्यूएशन की डिटेल दी हो, तो कोई भी उनसे नहीं पूछेगा कि आपने सौदा फलां कीमत पर क्यों किया.
अभी तक वित्त मंत्री ने मुश्किल पिच पर अच्छी बल्लेबाजी की थी. लेकिन ईमानदारी से कहूं तो उन्हें यहां एक चौका मारने की कोशिश करनी चाहिए थी. उन्होंने सभी कंपनियों के लिए इनकम टैक्स एक्ट 56(2) को खत्म क्यों नहीं किया? यह छूट कुछ स्टार्टअप्स को क्यों दी गई, जिन्हें आईएएस अफसरों से ‘हाई टेक’ होने का तमगा लेना पड़ेगा?
क्या नौकरशाह यह समझ पाएंगे कि कोई कार-पूलिंग कंपनी ‘लो टेक’ हो सकती है, जबकि किसी पुरानी बैटरी कंपनी के पास वाकई बिल्कुल आधुनिक तकनीक हो? क्या ऐसी ही वजहों से कंपनियों को सरकार की सख्ती और मनमानी का सामना नहीं करना पड़ता?
इसे देखकर लगा कि पारी की आक्रामक शुरुआत करने वालीं बल्लेबाज अब फ्रंट फुट पर आकर रक्षात्मक शॉट लगा रही थीं.
थके बल्लेबाज का रक्षात्मक रुख
इसके बाद वह मामूली सुधारों की राह पर लौट आईं, जो प्रधानमंत्री मोदी की पहचान रही है. देश की शैडो बैंकिंग (यानी कमजोर एनबीएफसी) फंड की कमी का सामना कर रहे हैं, जिसकी आंच पूरे फाइनेंशियल सिस्टम को चपेट में ले सकती है. उन्हें 2008 में अमेरिका के बॉन्ड बायबैक प्रोग्राम जैसा कुछ करना चाहिए था, जिसे ट्रबल्ड एसेट्स रिकंस्ट्रक्शन प्रोग्राम यानी TARP कहा जाता है. इसके जनक फेडरल रिजर्व के पूर्व चेयरमैन बेन बर्नान्की थे और इसी प्रोग्राम ने अमेरिका के फाइनेंशियल सेक्टर को बचाया था.
खैर, वित्त मंत्री ने इस मामले में आधे-अधूरे उपाय किए. उन्होंने कहा कि कमर्शियल बैंक अगर एनबीएफसी से कर्ज खरीदते हैं और उसमें घाटा होता है तो पहले छह महीने तक 10 पर्सेंट घाटे का बोझ सरकार उठाएगी. उन्होंने एनबीएफसी की तरफ से जारी किए जाने वाले बॉन्ड के लिए डिबेंचर रिडेम्पशन रिजर्व की शर्तों में कुछ ढील भी दी, लेकिन यह समस्या कहीं बड़ी है. ऐसे आधे-अधूरे उपायों से यह हल नहीं होगी.
इसके बाद अगले यॉर्कर पर वह बुरी तरह लड़खड़ा गईं. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में इक्विटी यानी शेयरों में निवेश पर विरोधी रुख (भले ही उद्यमिता को बढ़ावा देने की कितनी भी बातें हुई हों) दिखा था. इक्विटी में किए जाने वाले निवेश पर तब चार बार टैक्स लग रहा था.
यानी एक ही इक्विटी निवेश पर चार टैक्स लगाए जा रहे थे, लेकिन जरा रुकिए. निर्मला जी ने उसमें पांचवां टैक्स भी जोड़ दिया है. अभी तक कंपनियों के शेयर बायबैक करने पर टैक्स नहीं लगता था. इसमें इंडिविजुअल शेयरहोल्डर को कैपिटल गेंस टैक्स देना पड़ता था या लॉस होने पर वह उसे मुनाफे से एडजस्ट कर सकता था. अब ऐसा नहीं हो पाएगा.
कंपनियों को 20 पर्सेंट (और 12 पर्सेंट का सरचार्ज) ‘बायबैक टैक्स’ देना पड़ेगा. इससे बायबैक का आकर्षण खत्म हो जाएगा और शेयरों की वैल्यू कम होगी. वह इतने पर भी नहीं रुकीं. इसके बाद उन्होंने सभी लिस्टेड कंपनियों के लिए अनिवार्य फ्लोट को भी 10 पर्सेंट (percentage points) बढ़ा दिया. इससे बाजार में 4 लाख करोड़ के शेयरों की सप्लाई बढ़ सकती है (लिहाजा, उनकी वैल्यू में गिरावट आएगी). इस वजह से मल्टीनेशनल कंपनियां शेयर बाजार से बाहर निकल सकती हैं. इससे आखिरकार घाटा किसका होगा? आपके और हमारे जैसे सामान्य शेयरहोल्डर्स इसकी कीमत चुकाएंगे.
अब ‘टिप टिप’ (रक्षात्मक) शॉट्स बढ़ते गएः
- एक बैंक खाते से साल में एक करोड़ से अधिक के नकद लेनदेन पर दो पर्सेंट का टैक्स लगाया गया है. यह टैक्स उन कंपनियों को भी देना होगा, जिनका टर्नओवर लाखों करोड़ों में होता है.
- पांच करोड़ से अधिक सालाना आमदनी वालों को 42 पर्सेंट टैक्स चुकाना होगा. इससे देश से बाहर टैक्स हेवेन में बसने वाले करोड़पतियों की संख्या और बढ़ सकती है. इस कदम से मल्टीनेशनल कंपनियों को भी दिक्कत होगी, जो कई बार विदेशी अधिकारियों को भारत में कंपनी की कमान संभालने के लिए भेजते हैं. इस ‘सुपररिच टैक्स’ से सरकारी खजाने में कितना पैसा आएगा, यह बताना मुश्किल है, लेकिन संपत्ति का बर्बाद होना तय है.
हिसाब-किताब में गड़बड़ी
पारी के अंत में बैड टैक्स-मास्टर से वह गलती करने वालीं अकाउंटेंट बन गईं. उन्होंने कहा कि वित्त वर्ष 2020 में नॉमिनल जीडीपी (महंगाई दर और रियल जीडीपी) 12 पर्सेंट बढ़ेगी, लेकिन टैक्स से सरकार की आमदनी में 18 पर्सेंट की तेजी आएगी. अप्रैल-जून 2019 तिमाही में तो इसमें बमुश्किल बढ़ोतरी हुई है. ऐसे में 18 पर्सेंट का लक्ष्य हासिल करने के लिए बचे हुए 9 महीनों में इसमें 23 पर्सेंट की बढ़ोतरी होनी चाहिए. यह कैसे होगा?
अंत में, यह 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था को लेकर क्या फितूर है? अगर यह मान लिया जाए कि 2024 तक अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपये की वैल्यू 10 पर्सेंट कम होती है तो यह देश की 375 लाख करोड़ रुपये के जीडीपी के बराबर होगा. इसका मतलब यह भी है कि देश के नॉमिनल जीडीपी में 13-14 पर्सेंट सालाना की बढ़ोतरी होगी.
अगर महंगाई दर को 4 पर्सेंट मान लिया जाए और रियल जीडीपी 9-10 पर्सेंट सालाना रहती है तो यह लक्ष्य हासिल हो जाएगा. वहीं, अगर महंगाई दर 6 पर्सेंट हो जाती है तो हम 7-8 पर्सेंट की रियल जीडीपी ग्रोथ के साथ इस मुकाम तक पहुंच सकते हैं. संभव है कि रुपये में 10 पर्सेंट से अधिक की गिरावट हो , इसमें मामूली सा लोचा यही है.
जिस तरह से क्रिकेट ‘फ्लैनल पहनने वाले 11 मूर्खों’ का गेम है, उसी तरह से बजट स्टार्च्ड खादी पहनने वालों का.
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