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बजट 2020: सरकार नहीं जीत पाई TRUST, ESOP है सबसे बड़ा सबूत

सरकार TRUST लाकर मंद पड़ी अर्थव्यवस्था को बचा सकती है

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संसद में वित्तमंत्री सीतारमण की 165 मिनट की अथक मेहनत से पहले मैंने बताया था कि थोड़ा टैक्स घटाने और थोड़ा खर्च बढ़ाने से सफलता नहीं मिलेगी. इसकी जगह TRUST लाकर वो मंद पड़ी अर्थव्यवस्था को बचा सकती हैं.

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तो वो ऐसा कर पाईं? - हां भी, नहीं भी

वेल्थ क्रिएटर्स यानी धन सृजनकर्ताओं के फलने-फूलने, टैक्स के बोझ को कम करने और जीवन/ कारोबार को आसान बनाने को लेकर कई पवित्र घोषणाएं हुईं. लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, जब ये आदर्श विचार नौकरशाही के आईने से होकर गुजरते हैं तो इनकी दिशा कुछ और हो जाती है. वे बदल जाते हैं और इसलिए असफल हो जाते हैं. इसे बेहतर तरीके से प्रदर्शित करने के लिए ESOP (इम्प्लाइज स्टॉक ऑप्शन प्लान)- टैक्सेशन से जुड़े रिफॉर्म से बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता, जिसका खूब शोर मचाया गया था.

आह! ESOP अपने बुरे रूप में जारी है. जिस रूप में यह आज है यह शासकीय दमन का जोर शोर से विस्तार कर रहा है!

संक्षेप में इतिहास पर नजर

भारत में ESOP-टैक्सेशन से मैं अच्छी तरह जुड़ा हूं. जब मैंने 90 के दशक की शुरुआत में टीवी 18 की बुनियाद रखी, हमने अपनी टीम के महत्वपूर्ण साथियों के लिए उदारता से स्टॉक देने का विकल्प रखा था. इस अर्थ में हम भारत में ईएसओपी-टैक्सेशन के अग्रदूत रहे हैं. और चूंकि हम बिजनेस न्यूज में लीडर थे, हमने इंटरप्रेनरशिप यानी उद्यमिता, कर और आम बजट जैसे मसलों पर भी काफी मेहनत की.

अब 2007 के उस दुर्भाग्यपूर्ण आम बजट पर चलते हैं. आक्रमक श्री चिदंबरम ने ESOP-टैक्सेशन के मॉडल का चौंकाने वाला खुलासा किया था. एक उदाहरण से इसे साफ कर दूं-

कल्पना करें एक स्टॉक/शेयर की, जिसका बाजार मूल्य 100 रुपये है. किसी प्रमुख महिला कर्मचारी को प्रोत्साहित करने के लिए, मान लीजिए उसे 10 रुपये की दर से 10 लाख शेयर के विकल्प दिए गये. इस तरह उसे 9 करोड़ रुपये की सम्भावित आय का मौका बना. यह सम्भावना है न कि वास्तविक, क्योंकि वास्तव में कोई शेयर उसके पास अब तक नहीं आया. अब मान लीजिए कि उसे शेयर लेना है या नहीं, ये फैसला करने के लिए दो साल दिए जाते हैं. इसे एक्सरसाइज पीरियड यानी अभ्यास का काल कहा जाता. जब वो कहती है कि , “हां, मुझे शेयर चाहिए”तो उसने इसका अभ्यास किया.

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लेकिन ध्यान दें कि हां कहने के बाद कानूनी और कागजी कार्रवाई के चलते उसे शेयरों की मालकिन बनने में कई और हफ्ते, बल्कि कई महीने लग सकते हैं.

यहीं से मुश्किलों की शुरुआत हुई. पी चिदंबरम ने कहा एक्सरसाइज पर वह तत्काल टैक्स चुकाएगी.

लेकिन यहां समस्या है. ठीक है? उसे अब भी शेयर मिले नहीं हैं. सभी ‘मुनाफे’ काल्पनिक हैं, कागज पर हैं. तो कैसे और क्यों उसे इस भ्रामक आय पर टैक्स चुकाना चाहिए?

इससे भी बुरी स्थिति की कल्पना करें जब उसे तीन महीने में शेयर मिल जाते हैं, लेकिन उस दौरान कुछ प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं. और, हरेक स्टॉक का मूल्य 90 रुपये से गिरकर 5 रुपये आ जाता है.

अब उस विचित्र स्थिति को समझें जिसमें वह खुद को पाती है : उसने 5 लाख के नुकसान के बावजूद 9 करोड़ रुपये की ‘आमदनी’ पर टैक्स चुका दिया होता.

इस तरह पी चिदंबरम के बजट का तर्क स्पष्ट रूप से बहुत अटपटा था. ये हर तरह के कठोर टैक्स से भी बुरा था, क्योंकि आभासी आय पर भी, यहां तक कि नुकसान पर भी टैक्स देना है.

ऐसा केवल भारत में ही हो सकता था!

जब मैंने परेशान श्री चिदंबरम से अक्रामक रूप से उनके घाटक ESOP टैक्स की कमी पर सवाल किया, तो उन्होंने अपनी कानूनी विशेषज्ञता का इस्तेमाल करते हुए अपने सिद्धांत का बचाव किया.

लेकिन मैंने जोर दिया, ”महाशय, यह इतना कर्मचारी विरोधी है कि मेरे पास कहने को शब्द नहीं हैं. प्रोत्साहन देने के बजाय आप बेचारों को पीड़ित बना रहे हैं. उनसे बेवजह कर ले रहे हैं जबकि उसने एक पैसा नहीं कमाया है. और, अगर वास्तव में कारोबार गिर जाता है तो उसे नुकसान हो सकता है. यह तकरीबन दंड देने जैसा है.“ मैंने प्रतिवाद किया लेकिन पी चिदंबरम का पारा चढ़ता जा रहा था... बाकी इतिहास है, वीडियो टेप में मौजूद है.

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जो चिदंबरम ने किया उसे जेटली ने जारी रखा

ESOP 12 साल से ज्यादा समय तक बन रहा. एक के बाद एक नए उद्यमी स्टार्टअप की पीढ़ियां इस गलत टैक्स व्यवस्था पर चीखती रहीं. आवाज तब मुखर हुई जब प्रधानमंत्री मोदी ने पहली पीढ़ी के संस्थापकों की तारीफ की और उन्हें अवतार का दर्जा दिया. दुर्भाग्य से उनकी बढ़ चढ़कर की गई तारीफ भी उस टैक्स को खत्म करने में या कम करने में नाकाम रही. उनके वित्तमंत्री के रुख में बदलाव नहीं आया. चिदंबरम की तरह कानून दिग्गज रहे सम्माननीय अरुण जेटली पांच सालों तक इस विषय पर खामोश रहे.

फिर निर्मला सीतारमण ने ये कर दिखाया

लेकिन चीख-चिल्लाहट तब तक बढ़ती रही जब तक कि मेसर्स मोदी एंड सीतारमण ने इस पर आगे बढ़ने का फैसला नहीं कर लिया. सीतारमण ने घोषणा की कि उन्होंने लम्बे समय से ESOP से जुड़े टैक्स के जख्मों पर मरहम लगा दिया है:

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और भारतीय स्टार्ट-अप खुश

साफ कहें तो हम विचित्र देश हैं जहां भूल सुधार होने पर भी सराहना होती है, अव्वल तो गलती होनी ही नहीं चाहिए थी लेकिन यहां तो उसे वीभत्स रूप में लागू करने के बाद बारह सालों बाद ठीक किया जाता है.

क्योंकि भारत में प्रताड़ित करते हुए देर से किए गए भूल सुधार को ‘रीफॉर्म’ कहा जाता है!

जो हमारा अधिकार होना चाहिए, वो मिलने पर हम भारतीय स्तुतिगान करने लग जाते हैं.

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थोड़ा रुकिए, उनके नौकरशाहों ने फिर से चोट दी है...

बहरहाल असल नाटक और त्रासदी तो बॉलीवुड फिल्मों की तरह फाइन प्रिंट में छिपा है. इस छोटे से सुधार पर भी बाबूशाही हमला करती है. बस देखें कि उन्होंने क्या किया:

यह सभी 20 हजार स्टार्टअप पर लागू होने वाली सामान्य पॉलिसी नहीं है

नहीं साहब, ये नीति सिर्फ चुनिंदा 250 स्टार्टअप पर लागू होगी जिन्हें सचिवों की एक कमेटी किसी दैवी इच्छा शक्ति से चुनेंगी- कि आइए आप ईएसओपी टैक्स छूट का आनंद उठाएं”. आखिर में चुभने वाला खंजर है- विकृत टैक्स को खत्म नहीं किया गया है, केवल 5 साल के लिए टाला गया है. और अगर आप कंपनी छोड़ते हैं तो आपको इस छूट का फायदा नहीं मिलेगा. एक झटके में प्रतिभा को काम पर रखना कठिन कर दिया जाता है.

तो फिर से वही सब- प्रतिभाओं के बदलते और खुले बाजार को सूक्ष्म स्तर पर नियंत्रित करने का प्रयास.

और आखिर में, क्यों ESOP पाने वाले हर शख्स को ये छूट नहीं दी गयी? क्या वह इंजीनियर जिन्होंने जियो फीचर फोन को फेसबुक एप्स के लायक बनाया वो किसी से कम प्रतिभावान और क्रिएटिव हैं? उन्हें इस छूट से वंचित क्यों किया गया? क्या सिर्फ इसलिए कि वे किसी बड़ी कंपनी में काम करते हैं? यहां प्रतिभा मानक है या फिर कंपनी का आकार?

अंत में मैं क्या कह सकता हूं? मैं वास्तव में विश्वास करता हूं कि वित्तमंत्री सीतारमण कुछ ईमानदार करना चाहती थीं. वह एक अन्याय को दूर करना चाहती थीं. लेकिन उनके नौकरशाहों ने उनके नेक इरादों पर पानी फेर दिया.

दुर्भाग्य से, इस तरह बजट T.R.U.S.T जीत पाने में विफल रहा.

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