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BJP असम में बंगाली हिंदुओं को 'बचाना' चाहती है लेकिन इसकी तकनीकी समस्याएं हैं

CAA के नियमों में कई अस्पष्टताएं है, जिनकी वजह से असम में इन्हें लागू करना मुश्किल हो सकता है.

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जब जनवरी 2019 में लोकसभा में नागरिकता (संशोधन) विधेयक पहली बार पारित हुआ तो असम में प्रस्तावित कानून और बीजेपी के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ. हालांकि, तब यह विधेयक राज्यसभा में पेश नहीं हुआ, और अगले महीने लैप्स हो गया. उस दौरान असम में कड़े विरोध के बावजूद बीजेपी ने वादा किया कि अगर वह सत्ता में लौटी तो यह विधेयक वापस लाएगी और उसने अपना वादा निभाया.

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राष्ट्रीय चुनावों में पूर्वोत्तर में भारी जीत के बाद वह फिर से यह विधेयक लेकर आई. इसे संसद में आखिरकार पारित किया गया और उसी साल दिसंबर में वह कानून बन गया. इसके बाद हिंसक प्रदर्शन और आगजनी हुई. सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में गुवाहाटी में चार लोगों की मौत हो गई. हालांकि, बीजेपी और उसके सहयोगियों ने 2021 में राज्य चुनावों में निर्णायक जीत हासिल की और CAA विरोधी आंदोलनों से हुए नुकसान पर काबू पा लिया.

सीएए अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के छह गैर-इस्लामिक धर्मों - हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई- से संबंधित प्रवासियों के लिए भारतीय नागरिकता को आसान बनाता है. इस संशोधन का कथित उद्देश्य उन लोगों को आसानी से भारतीय नागरिकता देना है, जिनका धार्मिक उत्पीड़न तीन पड़ोसी मुस्लिम-बहुल देशों में किया गया है.

वैसे, जब मोदी सरकार ने सीएए को एनआरसी से जोड़ने की गुंजाइश तलाशनी शुरू की, तो इसका बहुत विरोध किया गया. यह बहस भी शुरू हुई कि क्या राज्य मुसलमानों की नागरिकता छीनने के लिए इन दोनों का इस्तेमाल कर सकता है.

सिटिजनशिप की जानी मानी पॉलिटिकल साइंटिस्ट नीरजा गोपाल जयाल कहती हैं कि अगर देशव्यापी एनआरसी को CAA के साथ मिला दिया जाएगा तो ऐसा लगता है कि “गैरकानूनी प्रवास के बहाने से सभी मुसलमान नागरिकों की नागरिकता पर ही सवाल खड़े किए जाएंगे” (मूल पर जोर देते हुए). हालांकि, सीएए-एनआरसी (CAA-NRC) का जबरदस्त विरोध मुख्य रूप से मुसलमानों ने किया, जिसके बाद बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार ने अपने कदम रोक दिए.

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BJP NRC से हिंदू बंगालियों का बाहर रखने के खिलाफ रही है

असम में कभी उस इलाके से, जिसे अब बांग्लादेश कहा जाता है, प्रवास का एक लंबा इतिहास रहा है और उसके विरोध का भी. यहां सीएए को लेकर काफी मुश्किलें आईं. यहां कानून ‘विदेशी’ की परिभाषा में ही बदलाव कर रहा था, जिसका आधार धर्म था. लोगों को इसी बात पर ऐतराज था. चूंकि असम में ऐतिहासिक रूप से सिर्फ मुसलमानों ही नहीं, उन हिंदुओं का भी विरोध किया जाता रहा है, जो (अब के) बांग्लादेश से राज्य पहुंचते थे. वहां असमिया राष्ट्रवादी का नेरेटिव ही अलग है.

असम में असमिया राष्ट्रवादी विद्यार्थी और युवा संगठनों और एक किसान अधिकार संगठन ने विरोध प्रदर्शन किए. उसका विरोध इस बात से था कि नए कानून के जरिए हिंदू 'बांग्लादेशी' भी भारत आ जाएंगे. इसके विपरीत देश में दूसरी जगहों पर यह विरोध जताया जा रहा था कि इस कानून से मुसलमानों को बाहर रखा गया है, या इससे भारत में धर्मनिरपेक्षता को खतरा है.

असम में यह दलील दी जा रही थी कि सीएए के जरिए बांग्लादेशी प्रवासियों को भारत में आने की इजाजत देने से 'स्वदेशी' असमिया लोगों की संस्कृति, भाषा और पहचान को खतरा होगा.

इसके अलावा, असम में, जहां नागरिकता निर्धारित करने की अनोखी कवायद चल रही है- मौजूदा राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) और विदेशी न्यायाधिकरण (FT) में चल रहे मामले- सीएए भारतीयता निर्धारित करने के लिए अब स्वीकृत अंतिम तारीख का भी खंडन करता है. असम में एनआरसी और एफटी, दोनों नागरिकता अधिनियम की धारा 6 ए के अनुसार, 24 मार्च 1971 को अंतिम तिथि यानी कट-ऑफ के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

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असम से कथित 'अवैध' प्रवासियों को बाहर करने के लिए छह साल तक चले आंदोलन के बाद देश के नागरिकता अधिनियम में विशेष धारा शामिल की गई थी और 1985 के ऐतिहासिक असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. लेकिन सीएए अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए अनाधिकृत गैर-मुसलमान प्रवासियों को नागरिकता देने का प्रावधान करता है, जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 तक भारत में प्रवेश किया है.

2019 में प्रकाशित एनआरसी से 19 लाख से अधिक लोगों को बाहर रखा गया है. पिछले साल दिसंबर तक, लगभग 1.6 लाख लोगों को विदेशी न्यायाधिकरण ने 'विदेशी' घोषित किया गया है और 96,000 लोगों को राज्य की मतदाता सूची में संदिग्ध बताया गया है. असम में समानांतर नागरिकता निर्धारण प्रक्रियाओं की प्रकृति बहुत उलझी हुई है, इसीलिए ये आंकड़े ओवरलैप होते हैं.

उदाहरण के लिए विदेशी न्यायाधिकरण में जिन लोगों के मामले लंबित हैं, वैसे 'घोषित विदेशी', और 'संदिग्ध मतदाता' और उनके वंशजों को नियमों के अनुसार एनआरसी से बाहर रखा गया था. यह बताने के लिए कोई आधिकारिक धर्म-आधारित आंकड़े नहीं हैं कि इन प्रक्रिया में फंसे हुए, और 24 मार्च, 1971 के पहले असम में अपनी वंशावली को साबित करने में नाकाम रहने वाले कितने प्रतिशत लोग हिंदू हैं.

बीजेपी एनआरसी से हिंदू बंगालियों को बाहर करने के खिलाफ बहुत मुखर रही है, जोकि पार्टी का मुख्य मतदाता है. पार्टी ने लगातार कहा है कि सीएए एनआरसी से बाहर किए गए बंगाली हिंदुओं के लिए रामबाण होगा.
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सीएए की अधिसूचना के ठीक एक दिन बाद, सम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने पत्रकारों से कहा कि सीएए से सिर्फ उन लोगों (यानी गैर-मुस्लिमों) को फायदा होगा जिन्होंने एनआरसी के लिए आवेदन किया था और लेकिन उससे छूट गए हैं - और किसी को नहीं. यहां एक सवाल उठता है: जो लोग धारा 6ए के प्रावधानों के जरिए पहले से ही भारतीय नागरिकता के पात्र हैं, उन्हें नागरिकता हासिल करने के लिए सीएए के मानदंडों पर खरा उतरने की क्या जरूरत है?

इसका एक जवाब यह हो सकता है कि नागरिकता को निर्धारित करने की प्रणालियां सबके साथ न्याय नहीं करतीं. पत्रकारों, एकैडमिक रिसर्चर्स, मानवाधिकार वकीलों और एक्टिविस्ट्स के काम से साफ पता चलता है कि एनआरसी और विदेशी न्यायाधिकरण की प्रक्रियाओं में कई तरह की संरचनात्मक और संचालनात्मक समस्याएं हैं. इसकी वजह से वास्तविक भारतीय नागरिक प्रभावित होते हैं- जिनमें हिंदू और मुसलमान, दोनों शामिल हैं. उन दोनों की नागरिकता छीनी जा रही है, या उन्हें नागरिकता के अधिकार से वंचित किया जा रहा है.

असम के बंगालियों के लिए अपनी नागरिकता साबित करना मुश्किल होगा

यह दावा किया गया है कि 2024 के नियमों के जरिए असम में बंगाली हिंदुओं के लिए नागरिकता हासिल करना मुश्किल नहीं होगा, यानी ये सीएए के लागू होने के बाद आने वाली समस्याओं का समाधान कर देंगे. लेकिन सोमवार को अधिसूचित नियमों में भी कई बातों को नजरंदाज किया गया है. अभी यह साफ नहीं है कि सीएए असम में नागरिकता निर्धारण प्रक्रियाओं को कितना प्रभावित करेगा. नियमों में उन हिंदुओं के खिलाफ कोई विशेष निर्देश नहीं हैं, जिनके मामले विदेशी न्यायाधिकरण में लंबित हैं या जिन्हें असम में संदिग्ध मतदाता के तौर पर चिन्हित किया गया है. इसके अलावा, कुछ आवेदकों के लिए नियमों में बताए गए दस्तावेज देना मुश्किल हो सकता है.

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सीएए के प्रावधानों के तहत पंजीकरण के लिए आवेदन पत्र में तीन तरह के सहायक दस्तावेजों की जरूरत होती है- पहला दस्तावेज यह साबित करने के लिए कि आवेदक सच में अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से है; दूसरा, यह साबित करने के लिए कि आवेदक 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में दाखिल हुआ है; और तीसरा, आवेदक के धर्म की घोषणा करने वाला एक हलफनामा और 'स्थानीय रूप से प्रतिष्ठित सामुदायिक संस्थान' के प्रतिनिधि के दस्तखत वाला एक 'पात्रता प्रमाणपत्र'.

वकीलों और एक्टिविस्ट्स का कहना है कि असम में कई बंगालियों के लिए, जो अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए जूझ रहे हैं, नियमों की अनुसूची 1 ए के तहत सूचीबद्ध दस्तावेजों की पहली श्रेणी को हासिल करना और उन्हें पेश करना मुश्किल होगा. असम में कई बंगाली हिंदुओं के लिए अपनी नागरिकता साबित करना दिक्कत भरा है. उनकी पहले की पीढ़ी शरणार्थी रही है. उन्होंने विभाजन के दौरान और उसके बाद के दो दशकों में खराब स्थितियों में पलायन किया. बहुतों को अपनी संपत्ति, जमीन जायदाद छोड़नी पड़ी. जीवित रहने भर का सामान अपने साथ ला पाए.

हो सकता है कि इसी वजह से उनके पास पूर्वी पाकिस्तान के अपने दस्तावेज न हों. इसके अलावा, उस समय अब जैसे पुख्ता दस्तावेज होते भी नहीं थे. यकीनन, इन देशों के हाल के प्रवासियों के पास, पहले के प्रवासियों के मुकाबले कहीं ज्यादा नए और मुफीद दस्तावेज होंगे.
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आमतौर पर असम में शरणार्थी पृष्ठभूमि के ऐसे परिवारों के पास जो दस्तावेज़ होते हैं, वे राहत पात्रता प्रमाणपत्र, शरणार्थी पंजीकरण प्रमाणपत्र, प्रवासन प्रमाणपत्र और शरणार्थी शिविरों के पहचान पत्र होते हैं. भारत पहुंचने की मुश्किल यात्रा के बाद उनके पास यही दस्तावेज हो सकते हैं. जबकि ये दस्तावेज साबित करेंगे कि वे लोग पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने वाले शरणार्थी (या शरणार्थियों के वंशज हैं), लेकिन उन्हें पूर्वी पाकिस्तान में निवास की पुष्टि करने वाले दस्तावेजों के रूप में नियमों की अनुसूची 1ए के तहत सूचीबद्ध नहीं किया गया है.

कौन से दस्तावेज सबूत के तौर पर माने जाएंगे? और क्या सभी के पास वो दस्तावेज होंगे?

यह साफ नहीं है कि शरणार्थियों से संबंधित ऐसे दस्तावेजों को अनुसूची 1ए के तहत सबूत माना जा सकता है या नहीं. अनुसूची में नौ दस्तावेजों की सूची है. इनमें से सात ऐसे हैं जिन्हें अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान के अधिकारी जारी करते हैं, जैसे पासपोर्ट, शिक्षा का प्रमाणपत्र, सरकारी आईडी, जमीन रिकॉर्ड और लाइसेंस. बाकी दो दस्तावेजों में से एक भारत में एफआरआरओ की तरफ से जारी किया गया परमिट है. दूसरा (बिंदु संख्या 8) काफी दिलचस्प है. इसके लिए कहा गया है, "कोई दस्तावेज़" जो साबित करता है कि आवेदक के पूर्वज तीन देशों में से किसी एक के नागरिक थे.

यह साफ नहीं है कि शरणार्थी दस्तावेज "किसी भी दस्तावेज" की श्रेणी में आते हैं या नहीं, और आवेदन करने के बाद की अधिनिर्णय की प्रक्रियाएं ही बताएंगी कि राज्य लोगों के दस्तावेजों को मंजूर करेगा या नहीं. अगर शरणार्थी प्रमाणपत्रों को कवर किया जाता है तो भी बड़ी संख्या में लोग ऐसे दस्तावेज नहीं दे पाएंगे- क्या उन्हें सीएए के दायरे से बाहर रखा जाएगा?
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असम में एनआरसी से बाहर होने वाले या विदेशी न्यायाधिकरण की तरफ से ‘विदेशी घोषित’ बंगाली हिंदुओं ने यह साबित करने की पूरी कोशिश की कि वह और उनके पूर्वज असम में 24 मार्च, 1971 से पहले आए थे, लेकिन वे नाकाम रहे. अब जैसा कि नियम बताते हैं, सीएए के प्रावधानों के तहत उन्हें बांग्लादेश में अपने पूर्वजों के होने और वहां से भारत पलायन को साबित करना होगा. तभी उन्हें संशोधित कानून के तहत भारत में नागरिकता मिलेगी.

इसके अलावा, क्या कोई व्यक्ति जो पहले से ही धारा 6ए के तहत नागरिकता के लिए पात्र है (जो 24 मार्च 1971 से पहले असम में अपनी वंशावली साबित कर सकता है) अब सीएए प्रावधानों के जरिए आवेदन कर सकता है? क्या कोई व्यक्ति जिसका मामला विदेशी न्यायाधिकरण में लंबित है या सुनवाई चल रही है, क्या वह व्यक्ति अब सीएए के जरिए राहत का दावा कर सकता है?

दूसरी ओर, यह देखना बाकी है कि 1971 के बाद असम में कितने गैर-मुस्लिम प्रवासी- यानी जो 24 मार्च 1971 और 31 दिसंबर 2014 के बीच असम में आए हैं- सीएए के तहत आवेदन करते हैं. उनके लिए, इसका मतलब यह हुआ कि वे खुद को 1971 के बाद का प्रवासी घोषित करते हैं, जोकि धारा 6ए के प्रावधानों के तहत नहीं आते. सोमवार को अधिसूचित नियमों में ऐसे किसी सवाल का जवाब नहीं है जो असम के संबंध में प्रासंगिक हों.

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देश के आम चुनावों से ठीक पहले नियमों को अधिसूचित करके, बीजेपी ने सीएए पर अपना राजनीतिक संदेश बहुत साफ कर दिया है. सबसे पहले, उसका कहना है कि उसने शरणार्थियों के मामले में एक कथित ऐतिहासिक गलती को सुधार लिया है और तीन पड़ोसी मुस्लिम देशों के अल्पसंख्यक शरणार्थियों को वह दिया है जिसके वे भारत में हकदार हैं. दूसरा, जैसा कि द इंडियन एक्सप्रेस ने मंगलवार को कहा है, केंद्र सरकार अपने मतदाताओं को कहना चाहती है कि उसने अपना वादा पूरा किया, 'जो कहा, वो किया'.

दूसरी तरफ, राजस्थान के शरणार्थी समुदायों और पश्चिम बंगाल के मतुआ लोगों के जश्न मनाने की खबरें भी आई हैं. लगता है कि यह कानून कुछ प्रवासी और शरणार्थी समुदायों की नागरिकता की समस्याओं को हल कर सकता है. भले ही असम में यह कहा जा रहा है कि यह कानून हिंदुओं की नागरिकता की लड़ाई को जादू की छड़ी की तरह सुलझा देगा, लेकिन देखना बाकी है कि मौजूदा कानूनी और नौकरशाही नागरिकता निर्धारण तंत्र की उलझन के बीच कानून को कैसे लागू किया जाता है.

(अभिषेक साहा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डॉक्टोरल रिसर्चर हैं. उन्होंने नो लैंड्स पीपुल: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ असम्स एनआरसी क्राइसिस नामक किताब भी लिखी है. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए ज़िम्मेदार है.)

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