ADVERTISEMENTREMOVE AD

CAA मामलों को लेकर अपने ही मानकों पर विफल रहा सुप्रीम कोर्ट

जनवरी 2020 से CAA की याचिकाओँ को सूचीबद्ध कर पाने में सुप्रीम कोर्ट विफल रहा है जो खुद उसके ही आदेश का उल्लंघन है

story-hero-img
छोटा
मध्यम
बड़ा
“एक जज यह सुनिश्चित करेगा कि उसका व्यवहार किसी उचित पर्यवेक्षक की नजर में दोषारोपण से परे है.“ 
बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ ज्यूडिशियल कंडक्ट 2002 का खंड 3.1 

जिस तरीके से भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय इतिहास के सर्वाधिक विवादास्पद कानूनों में एक नागरिकता संशोधन कानून 2019, जो सामान्य तौर पर सीएए के नाम से मशहूर है, से निपटा है उसने बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ ज्यूडिशियल कंडक्ट के सिद्धांतों की ओर सबका ध्यान खींचा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

कृपया ‘दोषारोपण से परे’ और ‘उचित पर्यवेक्षक’ जैसे शब्दों पर ध्यान दें. एक जज के आचरण की परख उचित पर्यवेक्षक का दृष्टिकोण होता है- न केवल चंद मनमाने आदर्शों में, बल्कि पिछले दो दशकों से भारत में उच्च न्यायिक व्यवस्था ने जो आचार संहिता अपनायी है उसमें भी यह झलकता है.

और, जिस तरीके से रिकार्ड संख्या में आईं सीएए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली रिट याचिकाओं को सूचीबद्ध करने और उनकी सुनवाई करने में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय विफल रहा, उस बारे में ‘उचित पर्यवेक्षक’ क्या कहते?

क्या अदालत के रुख पर असंतोष है और उसकी आलोचना हो रही है कि ऐसा देखा गया कि इसने अपने कदम पीछे खींच लिए और 22 जनवरी के बाद से मूल याचिकाओं को सूचीबद्ध करने में अदालत विफल रही? और, यहां तक माना गया कि इन्हें चार हफ्तों के बाद सूचीबद्ध कर लिया जाएगा. क्या यह उचित तरीके से दोषारोपण से पर है?

खासकर एक साल पहले लागू किए जाते वक्त इस कानून के खिलाफ प्रदर्शनकारियों के साथ जैसी सुस्ती दिखायी गयी थी, उसे देखते हुए क्या अदालत का यह आचरण “न्यायालय की अखंडता में जनता के विश्वास को बनाए रखता है”, क्योंकि जजों से अपेक्षा की जाती है कि वे बैंगलोर कोड के क्लाउज 3.2 से जुड़े रहें?

न्यायालय में विश्वास के महत्व को मैं कम नहीं कर सकती जो बुरी से बुरी परिस्थिति में भी उम्मीद की आखिरी किरण होती है. और, इसलिए यह हमारी जिम्मेदारी हो जाती है कि ऐसे सवालों का सावधानी पूर्वक परीक्षण करें और देखें कि हमारी सर्वोच्च अदालत अपने ही मानकों पर खरा उतर रही है या नहीं.

सीएए की चुनौतियों के टाइमलाइन को समझना जरूरी

कई बार यह जरूरी हो जाता है कि किसी खास कार्रवाई और उसके प्रभावों को समझने के लिए टाइमलाइन पर नजर डालें. इसलिए कुछ प्रासंगिक तारीखों पर चलते हैं.

12 दिसंबर 2019 : एक साल पहले राष्ट्रपति ने सीएए को अपनी सहमति दी थी जो एक दिन पहले ही संसद के दोनों सदनों में पारित हो चुका था. जिस तरीके से नागरिकता के सवाल में धर्म को घसीटा जा रहा था और एक ‘क्रोनोलॉजी’ का खतरा दिख रहा था जो परस्पर जुड़कर प्रस्तावित राष्ट्रव्यापी एनआरसी का रूप लेती, उसे देखते हुए यह साफ है कि कानून बनने से पहले ही बड़े पैमाने पर सीएए का विरोध था.

12 दिसंबर 2019 को ही इंडियन यूनियन ऑफ मुस्लिम लीग ने सीएए की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में पहली याचिका दायर की. जल्द ही इसके प्रावधानों को चुनौती देते हुए 140 के करीब याचिकाएं आ गयीं। (अब यह बढ़कर 200 के करीब पहुंच चुकी हैं).

सीएए के खिलाफ मूल आपत्ति यह है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से गैर मुस्लिमों को अवैध प्रवासियों के दायरे से यह निकालता है और उनकी नागरिकता के लिए विशेष फास्ट ट्रैक का गठन करता है. यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है. भारतीय कानून के अनुसार अनुच्छेद 14 न सिर्फ भारतीय नागरिकों के लिए, बल्कि सभी ‘लोगों’ के लिए समानता के व्यवहार की रक्षा करता है. इसी तरह अनुच्छेद 21 व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार को सुनिश्चित करता है.

जाहिर तौर पर धार्मिक उत्पीड़न का सामना कर रहे लोगों की मदद करने के लिए समान आस्था से जुड़े इन तीन देशों के लोगों को छोड़ देना संविधान के खिलाफ जाता है भले ही उसी आस्था से जुड़े कुछ लोगों को उन देशों में भी धार्मिक उत्पीड़न का सामना क्यों न करना पड़ा हो. अगर आधार धार्मिक उत्पीड़न था तो उसके लिए कारण भी उचित होना चाहिए था न कि केवल उन्हें बाहर रखने का पूर्वाग्रह होना चाहिए. सीएए को लेकर केवल तीन पड़ोसी देशों के साथ विशेष व्यवहार पर मनमानी के अतिरिक्त सवाल भी पैदा हुए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

13 दिसंबर 2019 : दिल्ली में जामिया टीचर्स एसोसिएशन ने सीएए के विरोध में मार्च निकाला, जिसके बाद कई और भी विरोध प्रदर्शन हुए. उत्तर पूर्व में सीएए के विरोध में दायर होने वाली याचिकाओं में असम स्टूडेंट्स यूनियन आगे था जहां इस कानून को लागू करने की कोशिश के दौरान पहले ही कई विशाल प्रदर्शन हो चुके थे.

14 दिसंबर 2019 : शाहीन बाग का प्रदर्शन स्थल 14 दिसंबर 2019 को उभरा. जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी परिसर में दिल्ली पुलिस ने 15 दिसंबर 2019 को छापेमारी की जब छात्रों पर हमले हुए, उनकी गिरफ्तारी हुई और कथित रूप से दंगे भड़काने के आरोप उन पर लगे. भारत के मुख्य न्यायाधीश ने एएमयू की तरह देश की दूसरे विश्वविद्यालयों और जामिया में पुलिस बर्बरता के खिलाफ निर्देश देने की अपील को खारिज कर दिया.

18 दिसंबर 2019 : मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य सम्मानित जजों की पीठ के सामने सीएए के विरोध में रिट याचिकाएं सूचीबद्ध की गयीं. अदालत ने अटॉर्नी जनरल के साथ-साथ सभी पक्षों को नोटिस भेजा. भारत सरकार को नोटिस से बचा लिया गया क्योंकि एक वकील सरकार की ओर से मौजूद था. अदालत ने नोटिस को 22 जनवरी 2020 तक वापस लेने योग्य रखा था जिसका मतलब यह है कि जवाब देने वालों से अपेक्षा की जाती है कि वे स्वयं उपस्थित हों.

16 जनवरी 2020 : इंडियन यूनियन ऑफ मुस्लिम लीग और दूसरे याचिकाकर्ताओं ने एक आवेदन देकर सीएए पर रोक लगाने की मांग अदालत से की, जिसे 10 जनवरी को अधिसूचित किया गया था.

22 जनवरी 2020 : याचिकाकर्ताओँ को फिर से सूचीबद्ध किया गया. अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया वरिष्ठ वकील केके वेणुगोपाल ने वक्ता मांगा और उन्हें भारत सरकार की ओर से याचिकाओँ का जवाब देने के लिए चार हफ्ते का समय मिल गया. जजों का कहना है कि याचिकाओँ को उसके बाद सूचीबद्ध होना चाहिए (आदेश के 5वें हफ्ते में).

यह बात स्पष्ट करना जरूरी है कि इन याचिकाओँ पर केंद्र की ओर से जवाबी हलफनामा 22 फरवरी 2020 तक दिए जाने की उम्मीद की गयी थी और इन मामलों को भी उन्हीं दिनों सूचीबद्ध किया जाना चाहिए था.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

27 फरवरी 2020 : दिल्ली चुनाव अभियान के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने अपने भाषण में आम लोगों से कहा था कि इतनी जोर से बैलेट बटन दबाओ कि शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों को बिजली का झटका महसूस हो. बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर और परवेश वर्मा ने भी प्रदर्शनकारियों को बदनाम करते हुए आपत्तिजनक बातें कही थीं, लेकिन फिर भी दिल्ली चुनावों में जीत आम आदमी पार्टी की हुई.

फरवरी 2020 : शाहीन बाग समेत सीएए के खिलाफ प्रदर्शन लगातार जारी रहे.

23 फरवरी 2020 : बीजेपी नेता कपिल मिश्रा 20 दिसंबर को अपने भाषण के बाद लगातार सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ आग उगलने वाली भाषा बोलते रहे.

23-26 फरवरी 2020 : पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे हुए जिसमें दोनों समुदायों के लोग मारे गये, उनके घरों में तोड़फोड़, आगजनी की गयी और वे बेघर हो गये.

17 मार्च 2020 : सीएए याचिकाओँ के विरोध में केंद्र ने आखिरकार करीब एक महीने बाद जवाबी हलफनामा दायर किया. उन्होंने तर्क दिया कि सीएए कानून का हिस्सा है, यह किसी के अधिकार का अतिक्रमण नहीं करता है, न ही यह मनमानापूर्ण है. जनता के लिए लायी गयी इस नीति से फायदा होगा या नहीं यह न्यायिक समीक्षा का विषय नहीं है.

पूर्व में अपने आदेश के बावजूद फरवरी या मार्च में कभी सुप्रीम कोर्ट ने सीएए विरोधी याचिकाओं को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं किया. और, न ही बीते नौ महीनों में उन्हें सूचीबद्ध किया गया है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

सीएए मामलों को सूचीबद्ध करने में सुप्रीम कोर्ट की विफलता कितनी गंभीर?

इस मामले में जो वकील बहस करने वाले हैं या जो जज फैसला देने वाले हैं उनके क्षेत्र में अतिक्रमण का मेरा कोई इरादा नहीं है. यह उन पर निर्भर करता है कि वे इस पर ध्यान दें लेकिन मेरे पास तर्क इस बात को लेकर हैं कि क्यों 22 जनवरी के अदालती निर्देश के अनुसार रिट याचिकाओं को सूचीबद्ध नहीं किया गया?

याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश होने वाले वकीलों ने मुझसे जानना चाहा कि क्या वजह है कि कई बार सर्वोच्च अदालत से सुनवाई के लिए बहस के बाद भी प्रार्थना नहीं सुनी गयी. उन्हें बताया गया कि सबरीमाला मामले की समीक्षा के बाद संवैधानिक पीठ इस मामले को सुनेगी.

टाइमलाइन इस बात की गवाही देती है कि सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित है और इस दौरान पूरा देश इस मामले पर उबल रहा है. इस कानून के कारण असंतोष से अदालत अवगत है। फिर भी इस मुद्दे पर कोई कदम उठाने में अदालत सफल नहीं हो सकी है.

दिल्ली दंगों के बाद कार्रवाई करने में इस विफलता ने नया आयाम लिया: अगर अदालत ने निश्चित समय पर मामले को सुना होता, अगर इसने उन तमाम लोगों को सुनने में थोड़ी दिलचस्पी दिखायी होती जो सीएए का विरोध कर रहे थे तो क्या दंगे रुक नहीं गये होते?

लेकिन यहां बेशक पहला सवाल पूछा जाना चाहिए कि मामले को सूचीबद्ध करने में अदालत की विफलता कितनी अहम थी.

हम कुख्यात ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ मामले के बाद भी जानते हैं कि देश के मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक प्रमुख हैं जिनके पास दूसरों के मुकाबले अन्य अतिरिक्त कानूनी वरीयता नहीं है. अगर मैं भूल नहीं कर रही हूं तो उन्हें इसके लिए थोड़ा ज्यादा मिलता है और प्रोटोकॉल एवं सुख-सुविधाओं में ऊंचा ओहदा हासिल होता है. इससे अधिक कुछ भी नहीं.

तो क्या होता है जब एक जज एक न्यायिक आदेश पारित करते हुए किसी निश्चित दिन नियमों के मुताबिक किसी मामले में किसी बात को आगे बढ़ाता है. यहां तक कि मुख्य न्यायाधीश भी किसी प्रशासनिक आदेश के जरिए इसकी अनदेखी नहीं कर सकते. और अगर रजिस्ट्री किसी मामले को सूचीबद्ध करने में न्यायिक आदेश के बावजूद विफल हो जाती है तो रजिस्ट्रार को अवमानना के लिए पकड़ा जाता है क्योंकि उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डाली है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

तो, जब मुख्य न्यायाधीश ने खुद खासतौर से निर्देश दे दिया कि इस मामले को 22 जनवरी 2020 के बाद 5वें हफ्ते में सूचीबद्ध किया जाए तो कोई कारण नहीं कि इसे सूचीबद्ध नहीं किया जाना चाहिए था. वास्तव में यह अदालत का कर्त्तव्य था कि वह स्पष्टीकरण मांगती कि क्यों इस मामले को सूचीबद्ध नहीं किया गया और अपने अनुभव से मैं कह सकती हूं कि ज्यादातर जज नियमित रूप से ऐसा ही करते हैं.

बहरहाल बार के हमारे जूनियर सहयोगियों ने मुझे बताया है कि सुप्रीम कोर्ट हमेशा इस नियम का पालन नहीं करता है और अब यह आम बात हो गयी है कि न्यायिक आदेश के बावजूद मामले सूचीबद्ध नहीं किए जाते जबकि ऐसा होने की उम्मीद की जाती है. जब वकील रजिस्ट्री से पूछताछ के लिए जाते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि उन्हें मौखिक आदेश है कि इसे सूचीबद्ध नहीं करना है.

तो, प्रभावी रूप में सुप्रीम कोर्ट की स्थिति ‘कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड’ की है जहां माना जाता है कि कार्यवाही के रिकॉर्ड्स तक कोई नहीं पहुंच सकता, मगर अब यह मौखिक आदेशों की अदालत में पदावनत हो गया है.

मेरा मानना है कि यह निश्चित रूप से न्याय देने वाली व्यवस्था के मानकों का स्तर गिरा रहा है जिसे हमने अब तक पवित्र बनाए रखा है.

यह सच है कि अदालत के पास कामकाज के अपने नियमों का पालन करने का विवेकाधिकार है और इसमें बदलाव का भी, लेकिन इन मामलों में एकरूपता और निश्चितता की जरूरत अहम है और इसकी भी वजह है. एकसमान प्रक्रिया से कानून प्रभावी होता है और इसका दुरुपयोग रुकता है और यह सुनिश्चित करता है कि लोगों के साथ समान व्यवहार हो. अगर मामलों को सूचीबद्ध करने और इसकी सुनवाई को लेकर खुद अदालत की ओर से तय समय के हिसाब से एकरूपता और निश्चितता नहीं है तो अदालत की प्रतिष्ठा गिरने का जोखिम बहुत बढ़ जाता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या इन याचिकाओं की अविलंब सुनवाई जजों की ड्यूटी नहीं थी?

सुप्रीम कोर्ट के बहुप्रतिष्ठित पूर्व जज जस्टिस आरवी रविन्द्रन ने 2012 में एससीसी जर्नल में एक शानदार आलेख में विस्तार से बताया था कि किस तरह बैंगलोर प्रिंसिपल ऑफ ज्यूडिशियल कंडक्ट के तहत जजों को अपने दायित्वों की व्याख्या करने की आवश्यकता है.

एक जज का कर्त्तव्य न्याय करना होता है. व्यापक अर्थ में न्याय देने का मतलब हर व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, न्याय देना होता है. वे सभी लोग न्याय करते हैं जिनके पास शासन करने की ताकत है, विधायिका की शक्ति है, दंड या पुरस्कार देने की न्यायिक शक्ति है. जजों के संदर्भ में न्याय देने का मतलब समुचित सुनवाई के बाद त्वरित, प्रभावी और सक्षम तरीके से विवादों और शिकायतों को साफ-सुथरे और पक्षपातरहित होकर कानून के हिसाब से, समानता व बराबरी के भाव में, और जहां कहीं भी जरूरी हो, पूरी भावना के साथ आवश्यक फैसला करना होता है. 

पूर्व में टाइमलाइन का जो लेखा जोखा लिया गया है उससे मैं पाती हूं कि सीएए याचिकाएं और वास्तव में राष्ट्रीय महत्व के कई मामलों की सुनवाई नहीं कर पाने के कारण सर्वोच्च अदालत की आलोचना और उस कारण असंतोष निश्चित रूप से बेवजह नजरिया नहीं है.

जब एक व्यक्ति अपनी इच्छा से जज बनने को सहमत होता है तो वह देश के साथ एक अनुबंध से जुड़ जाता है जहां न्याय देने के लिए उनके साथ सहयोगी होते हैं. वह भावना में आकर पीछे नहीं हटता और अदालत के दायरे में रहते हुए जब उसके समक्ष मामले सूचीबद्ध होने आते हैं तो ऐसे व्यवहार से जुड़े नहीं रहने का कोई बहाना नहीं होता.

एक जज को जो विवेकाधिकार है उससे सर्वोच्च आदेश के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए. यह असीमित नहीं है और इसके साथ उसे लापरवाह होने की आजादी नहीं मिल जाती. यह जिम्मेदारी के तहत आता है जहां इसका कानूनी अर्थ है कि जज न सिर्फ अपने कर्तव्यों पर विचार करते हैं बल्कि उन लोगों के अधिकारों को भी देखते हैं जो न्याय के लिए उनकी ओर देख रहे होते हैं.

मेरे विचार में सीएए के बारे में विस्फोटक स्थिति पर अदालत की जागरुकता से- लंबे समय से कई शहरों में प्रदर्शन, सत्ताधारी दलों के सदस्यों की ओर से प्रदर्शनकारियों के खिलाफ उत्तेजक टिप्पणियां, उन लोगों की चिंता जो समझते हैं कि प्रदर्शनकारी गलत तरीके से उनकी जिन्दगी को प्रभावित कर रहे हैं- केवल अदालत की जिम्मेदारी में ही इजाफा होता है कि वह निर्बाध तरीके से मामले की सुनवाई करे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बिल्कुल कार्यपालिका ही वह निकाय है जो देश का प्रशासन संभालती है और यह कार्यपालिका ही है जिससे अपेक्षा की जाती है कि आवश्यकता पड़ने पर वह कार्रवाई करे ताकि देश शांतिपूर्ण और प्रभावी ढंग से चले. हां, यह कार्यपालिका का प्राथमिक कर्त्तव्य है कि वह आवश्यक अहतियाती कदम उठाए ताकि स्थिति नियंत्रण से बाहर ना हो. हां, अदालतें देश की कार्यपालिका के कामकाज अपने हाथ में न ले सकती हैं और न ही लेना चाहिए.

लेकिन जब आम आदमी की रक्षा करने में कार्यपालिका फेल हो जाती है और वह अदालत की शरण लेता है तब क्या होता है? वास्तव में यही वह स्थिति है जब सीएए की वैधता को लोग चुनौती दे रहे थे, उन लोगों की याचिकाओँ को कानूनी रूप देने की कोशिश की जा रही थी जो ठंडी रात में अपनी आवाज सरकार को सुनाना चाहते थे जिसकी अनदेखी की जा रही थी.

आवश्यकता का नियम महज रक्षा में अदालतों द्वारा लागू किए जाने के लिए नहीं होता, कार्रवाई करने के लिए भी इसका इस्तेमाल होता है. वास्तव में हमारी अदालतों का लंबा और गौरवशाली अतीत है जब इसने जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए वो सबकुछ किया, जो जरूरी था.

इसका मतलब यह नहीं होता है कि सुप्रीम कोर्ट को प्रदर्शनकारियों के समर्थन में तुरंत आदेश देना चाहिए. इसका मतलब यह नहीं है कि उसे सीएए को खारिज कर देना चाहिए और सरकार को दंड देना चाहिए. 

लेकिन इसका मतलब यह था कि वे खुद को ऐसी स्थिति में रखते, जहां वे भारत के लोगों की सुरक्षा के लिए जरूरी कोई भी कार्रवाई कर सकें, जिनका यह कर्तव्य है ताकि न्यायिक अखण्डता में जनता का विश्वास बना रहे.

दुर्भाग्य से, बीते महीनों में इन मामलों को सूचीबद्ध करने में अदालत की विफलता और स्थगन याचिकाओं या याचिकाओं की गुणवत्ता पर निष्क्रियता का अर्थ है कि अदालत अपने ही मानकों और परंपराओँ पर खरा उतरने में विफल रहा है.

(जस्टिस (रिटायर्ड) अंजना प्रकाश पटना हाईकोर्ट में पूर्व न्यायाधीश हैं और सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता के तौर पर प्रैक्टिस करती हैं. यह उनके विचार हैं और क्विंट का इससे कोई सरोकार नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×