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मुसलमान अंबेडकर आंदोलन को समझ लें तो मिलेगी CAA/NRC विरोध में जीत

पहली बार ऐसा हुआ कि अल्पसंख्यक एवं बुद्धिजीवी समाज में डॉ अम्बेडकर को अपनाया गया

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जब CAA/NRC लागू करने कि बात हुई तब जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में प्रतिरोध की लहर उठी . जेएनयू भी कहां पीछे रहने वाला था . धीरे-धीरे पूरे देश में इसका विरोध शुरू हुआ. पहले तो जामिया विरोध प्रदर्शन केंद्र बना लेकिन कुछ दिन बाद ही शाहीनबाग का प्रतिरोध देश भर के लिए मॉडल बन गया.

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शुरूआती दौर में प्रगतिशील , बुद्धिजीवी , राजनीतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता सभी की भागीदारी बढ़ चढ़ कर हुई. फिर भी भीड़ मुसलमानों की ही ज्यादा रही. ट्रिपल तलाक और रामजन्म भूमि पर फैसले आदि से मुस्लिम समाज आहत तो था ही लेकिन विरोध नहीं किया. लेकिन CAA/NRC ने उन्हें मजबूर कर दिया कि वो अपने अस्तित्व कि लडाई लड़ें . इसी बीच एक नया सामाजिक-राजनैतिक समीकरण देखने को मिला कि एक तरफ गांधीजी की तस्वीर तो दूसरी तरफ बाबा साहब डॉ अम्बेडकर की तस्वीर.

पहली बार ऐसा हुआ कि अल्पसंख्यक एवं बुद्धिजीवी समाज में डॉ अम्बेडकर को अपनाया गया . दोनों की दोस्ती जमीन पर पैदा हुई और इसके बड़े राजनैतिक एवं सामाजिक परिणाम अवश्य होने वाले हैं. समय के साथ प्रदर्शन में भीड़ कम होने लगी और मूल रूप से मुस्लिम समाज के हाथ में ही अब आंदोलन चल रहा है . यह भी बात है कि कहीं न कहीं मुस्लिम समाज अब अकेला महसूस करने लगा है.

CAA/NRC के विध्वंसक परिणाम तो होने वाले ही हैं लेकिन, एक अच्छी बात ये हुई है कि मुस्लिम समाज पहली बार अपने लिए इतने दमखम से मैदान में उतरा है. जब वह मैदान में उतरा है तभी तो दोस्त और दुश्मन की पहचान कर पाएगा. पहले भी उसने अपनी तमाम लड़ाइयां लड़ी ही नहीं और अधिकतर असुरक्षा की भावना की वजह से राजनीतिक रूप से सक्रियता नहीं था, इसलिए बीजेपी के खिलाफ वोट देता रहा है. दलित-मुस्लिम एकता का प्रयास कई बार हुआ लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी .

बाबा साहब डॉ अंबेडकर को बंगाल से दलित- मुसलमानों ने संविधान सभा में भेजा था और शुरुआत अच्छी हुई थी लेकिन टिकी नहीं रह सकी .

योगेन्द्र नाथ मंडल का मोहभंग हुआ और पाकिस्तान से वापस भारत आए . 1960 के दशक में बीपी मौर्या और संघप्रिय गौतम ने दलित-मुस्लिम की राजनीति की और कुछ हद तक सफल भी रहे लेकिन वो लम्बे समय तक कायम नहीं रह पायी. सुश्री मायावती ने बिजनौर से पहली बार जब लोकसभा का चुनाव जीता तो उसमें मुसलमानों का बहुत बड़ा योगदान था. अगर देखा जाय तो यह पहलकदमी दलितों की तरफ से ज्यादा होती रही है. मुस्लिम समाज को सब्र से काम लेना होगा क्योंकि उसने कभी दलित उत्पीड़न या उसकी लड़ाई में साथ नहीं दिया है. इसका मतलब यह नहीं कि ये दोस्ती अस्वाभाविक है , बल्कि मुस्लिम समाज खुद अपने मसलों पर भी नहीं लड़ा है .

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मुसलमान के बाद अगर दूसरे नंबर पर भागीदारी के मामले में CAA/NRC आंदोलन में कोई शामिल है तो वो है दलित समाज. संविधान के अनुच्छेद 15 में धर्म के आधार पर नागरिकता निर्धारित नहीं कि गयी है लेकिन CAA के बाद धर्म के आधार पर भी नागरिकता परिभाषित हो गयी है . बांग्लादेश , पाकिस्तान, अफगानिस्तान से प्रताड़ित मुस्लिमों को भारत में नागरिकता लेने में दिक्कत आएगी, बाकी धर्म के लोगों के लिए भारतीय नागरिकता का दरवाजा खुला है. इससे दलित समाज भावुक रूप से आहत हुआ कि संघ/बीजेपी संविधान को नष्ट करना चाहते हैं

11 दिसंबर 1949 में संघ ने संविधान एवं बाबा साहब का पुतला जलाया था और सर संघ चालक गोलवलकर ने संविधान तैयार होने पर कहा था कि इसमें कोई हिन्दूपन नहीं है और डॉ अंबेडकर ने दुनिया के और देशों के संविधान की नकल करके इसे बनाया है. यह मुख्य कारण है कि सीएए/एनआरसी के खिलाफ दलित मुसलमानों के साथ दूसरे नंबर पर खड़ा है.

एक कारण ये भी है कि बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को लाखों लोगों के साथ हिन्दू धर्म छोड़कर के बौध धम्म अपनाया था . शिक्षित और जागरूक दलित मनुवाद के खिलाफ स्वयं बहुत जागरूक है, इसलिए हिंदुत्व के जाल में नहीं फंसता है. इस आंदोलन से मुसलमानों को समझना चाहिए कि दलितों के साथ जब उत्पीड़न हो या समस्या पर उनका साथ देना हो तो मुस्लिम समाज को सहयोगी बनना होगा.

वर्तमान में जो देश के कई हिस्सों में CAA/NRC के खिलाफ धरना चल रहा है और इसका चेहरा केवल मुसलमान न बने तो इसके लिए मुसलमानों को अंबेडकरवादी दलितों से संवाद करना होगा. यह स्वाभाविक इसलिए है क्योंकि इनकी भी लड़ाई हिंदुत्व के खिलाफ है

बाबा साहब डॉ अंबेडकर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों पर करार प्रहार किया है इसलिए धर्म वाला पहलू छोड़कर मुसलमानों को डॉ अंबेडकर के सामाजिक एवं शैक्षणिक दर्शन से जुड़ना चाहिए. संघ और बीजेपी के पास हिन्दू और मुस्लिम कराने के अलावा राजनैतिक सत्ता अपनाने का कोई और रास्ता नहीं है.

इसके अलावा एक बहुत एहतियात बरतने वाली बात है कि उन समाज के नेताओं को जरूरत के मुताबिक ही जगह दें जिनकी जाति की वजह से संघ और बीजेपी का दारोमदार टिका हुआ है. संघर्ष में दलित, पिछड़े, छोटे-बड़े नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को ज्यादा तवज्जो दें क्योंकि इनके वोट बीजेपी विरोधी हैं और भविष्य में बीजेपी को इन जाति के नेताओं से ही कड़ी चुनौती मिलने वाली है. थोड़े समय के लिए मंच को आकर्षक और भीड़ को खींचने कि दृष्टि से उनको ही तवज्जो देते रहेंगे जो दस वोट नहीं दिला सकते.

वैसे भी जनतंत्र में बंदूक से सत्ता नहीं ली जाती है, बल्कि वोट से हासिल होती है. इसलिए जो समाज बीजेपी के खिलाफ वोट दे, संघर्ष का साथी उनको ही बनाएं. इसकी कोई काट बीजेपी के पास नहीं है.

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