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CAA-NRC: ‘शाहीन बाग’ से याद आए दुनिया बदलने वाले ये 6 आंदोलन

दिल्ली : शाहीनबाग की महिलाओं को मिला जामिया छात्रों का साथ

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शाहीन बाग की औरतें खुद को ही शाहीन बाग नाम देना चाहती हैं. उनका विरोध है, नागरिकता कानून, एनपीआर और एनआरसी से. देश में नागरिकों के लिए कानून, क्योंकि नागरिकों की बिना सहमति के बनाए जाते हैं- इसी सवाल के साथ पिछले एक महीने से हजारों की संख्या में धरने पर बैठी हैं. 10 जनवरी से कानून लागू भी हो गया है, पर इन औरतों को अब भी आस है कि उनका प्रदर्शन और धरना रंग लाएगा.

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दिलचस्प यह है कि इनमें से अधिकतर एक्टिविस्ट नहीं. शब्दों की जादूगर भी नहीं. वे सिर्फ शब्दों की अर्थवत्ता की रक्षा के लिए काम कर रही हैं. अधिकतर खामोशी से बैठी हैं, पर यह खामोशी बता रही है कि कहीं कुछ गड़बड़ है.

सत्ता हमेशा माहौल के सामान्य होने का दावा करती है. यह दावा उसके हाथ से छीन लिया गया है, बोलकर नहीं, चुपचाप बैठकर. इन औरतों में अस्सी फीसदी गृहिणियां हैं. अपनी बिरादरी से भी लोहा ले रही हैं, एक शक्तिशाली समूह को नाराज करने का जोखिम भी उठा रही हैं, लेकिन उन्हें इस बात की जरा भी परवाह नहीं.

इस खामोश प्रतिरोध के साथ वे कह रही हैं कि वे यहां हैं और यहीं रहेंगी. अपने मुस्लिमपने और हिंदूपने के साथ वैसे ही रहेंगी. औरतों ने कई सालों के दौरान अनेक प्रकार से अपने विरोध दर्ज कराए हैं. दुनिया के हर कोने में. हजारों-लाखों की संख्या में.

1. जब औरतों ने राजसत्ता की नींव हिला दी

1789 में महिलाओं के प्रदर्शन से ही फ्रांसीसी क्रांति के बीज उगे थे. उन दिनों मामूली ब्रेड की कीमत आसमान छू रही थी. लोग भुखमरी से मर रहे थे. तब पेरिस में लगभग सात हजार औरतें इकट्ठी हुईं- उन्होंने सिटी हॉल पर कब्जा किया और यह मांग की कि अनाज के भंडारों को आम लोगों के लिए खोला जाए. पर राजसत्ता के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. इसके बाद इन प्रदर्शनकारी औरतों ने फैसला किया कि वे किंग लुइस सोलहवें से सीधी गुहार लगाएंगी.

औरतें 12 मील पैदल चलकर वर्साइ राजमहल तक पहुंची. उनका एक प्रतिनिधिमंडल राजा से मिला लेकिन राजा ने उनकी मांगें नहीं मांगी. प्रदर्शनकारी हिंसक हो गईं और राजा को महल छोड़कर पेरिस लौटना पड़ा. तो, महिलाओं ने राजसत्ता की चूले हिला दीं जिसके बाद फ्रांसीसी क्रांति हुई.

2. वोटिंग के अधिकार के लिए जुटी लाखों महिलाएं

औरतों को मताधिकार ऐसे ही हासिल नहीं हुआ. इसके लिए उन्हें जबरदस्त संघर्ष करना पड़ा. 1908 में युनाइडेट किंगडम की विमेन्स सोशल एंड पॉलिटिकल यूनियन ने कई बार सार्वजनिक स्तर पर प्रदर्शन किए. विमेन्स संडे नाम से एक प्रदर्शन में करीब ढाई लाख औरतें जमा हुईं. यह ब्रिटिश इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन है. 1913 में अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में महिलाओं ने सफरेज परेड की. सफरेज यानी मताधिकार.

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अमेरिकी राजधानी का यह पहला सिविल राइट्स प्रदर्शन था. इस प्रदर्शन में पांच हजार औरतों ने हिस्सा लिया.

वैसे भारत में संविधान निर्माताओं ने महिलाओं को भी पुरुषों की तरह वोट देने का समान अधिकार दिया था. इसके लिए औरतों को सड़कों पर नहीं उतरना पड़ा था.

3. महिलाएं चुप रहीं, फिर भी सरकार को कानून वापस लेना पड़ा

भारत में नागरिकता कानून के विरोध से पहले दक्षिण अफ्रीका में भी श्वेत सरकार के कानून पर औरतें उबल चुकी हैं. यह कानून था, अपारथाइड पास लॉज़. ये कानून अश्वेत लोगों के मूवमेंट्स पर पाबंदी लगाते थे. इसके खिलाफ 9 अगस्त, 1956 को प्रिटोरिया की यूनियन्स बिल्डिंग्स तक करीब 20 हजार औरतों में मार्च किया. उनकी नेताओं में प्रधानमंत्री को याचिका देनी चाही. प्रधानमंत्री वहां मौजूद ही नहीं थे. तो, उन्होंने उनके सचिव को याचिका सौंपी, आधे घंटे सड़क पर मौन खड़ी रहीं और फिर अपने अधिकारों को पुख्ता करने वाले नगमे गुनगुनाए.

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यूं इस प्रदर्शन से पहले और उसके बाद भी प्रदर्शन हुए. एक प्रदर्शन में पुलिस ने बर्बर गोलीबारी की. करीब 30 साल बाद इस कानून को 1986 में रद्द किया गया.

4. बराबरी पाने के लिए औरतों ने काम बंद रखा

अमेरिका में वोटिंग का अधिकार हासिल होने के 50 साल बाद, 26 अगस्त, 1970 को औरतें एक बार फिर जमा हुईं. न्यूयॉर्क के फिफ्थ एवेन्यू में लगभग 50 हजार औरतों ने समानता के अधिकार के लिए प्रदर्शन किया. इसे नाम दिया गया था- विमेन्स स्ट्राइक फॉर इक्वालिटी.

दरअसल पुरुषों और महिलाओं के बीच गैर-बराबरी के विरोध में यह प्रदर्शन किया गया था. औरतें नाराज थीं कि उन्हें घरेलू कामकाज में इतना समय देना पड़ता है कि उन्हें और किसी काम के लिए फुरसत ही नहीं मिलती. नारी शक्ति को दिखाने के लिए नेशनल ऑर्गेनाइजेशन फॉर विमेन ने यह प्रदर्शन किया था.

इरादा यह जताना था कि देश की हर व्यवस्था, उद्योग, यूनियंस, सभी पेशे, सेना, यूनिवर्सिटी, सरकार, सब पुरुष प्रधान हैं. औरतों ने उस दिन काम बंद कर दिया. सफाई और खाना पकाना बंद कर दिया. वे स्लोगन लेकर सड़कों पर खड़ी रहीं- ‘डोंट आयरन वाइल द स्ट्राइक इन हॉट’ और ‘डोंट कुक डिनर- स्टार्व ए रैट टुडे.’ इसके दो साल बाद फेडेरल कानून टाइटल नाइन्थ पास हुआ, जिसमें कहा गया कि अमेरिका में लिंग के आधार पर शैक्षणिक कार्यक्रमों में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा.

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इसी तर्ज पर 1975 में आइसलैंड में औरतों ने समानता की मांग करते हुए देश भर में हड़ताल की. इसी ने देश में महिला नेतृत्व के लिए जमीन तैयार की. विग्दिस फिनबोगदातेर विश्व की पहली लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित महिला राष्ट्रपति बनीं.

5. शांति के लिए गुहार लगाती औरतें

औरतों ने शांति कायम करने के लिए भी कई बार बड़े-बड़े प्रदर्शन किए. 1976 में आयरलैंड में गृह युद्ध को समाप्त करने के लिए हजारों की संख्या में उतरीं. इन प्रदर्शनों के फलस्वरूप देश में शांति कायम करने में मदद मिली. महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं मेरीड कोरिगन और बेट्टी विलियम्स को इसी साल नोबल शांति पुरस्कार से नवाजा गया.

इसी तरह 2003 में लाइबेरिया में लाइबेरिया मास एक्शन फॉर पीस की महिलाओं ने हर हफ्ते रैली और धरनों का आयोजन किया. ये औरतें हर धार्मिक मत, जातियों वाली थीं. लाइबेरिया के गृह युद्ध को समाप्त करने में उनका बड़ा योगदान था.
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6. यौन शोषण के खिलाफ महिला प्रदर्शन

जनवरी 2017 में अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद 30 से 50 लाख औरतों ने प्रदर्शन किए. मुद्दा था- ट्रंप के महिला विरोधी बयान. यह अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन था. इसके बाद दुनिया के बहुत से देशों में लगभग 261 छोटे प्रदर्शन भी हुए. महिलाओं के यौन शोषण के विरोध में 85 देशों में हैशटैग मीटू अभियान के पक्ष में प्रदर्शन किए गए. यह 2017 से हर साल किया जाता है.

बेशक, शाहीन बाग की औरतों के लिए रास्ता लंबा है. अंत का पता नहीं. पर जैसा कि मशहूर अमेरिकी पॉलिटिकल एक्टिविस्ट एंजेला वाई. डेविस ने कहा है- कई बार हमें कोई काम करना पड़ता है, भले ही हमें क्षितिज पर कोई चमक दिखाई न दे कि यह सचमुच में संभव होने वाला है. जो संभव नहीं, उसी असंभव को संभव बनने की कोशिश कर रहा है शाहीन बाग. हम उसे सिर्फ आमीन कह सकते हैं.

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