ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या सरदार पटेल की विरासत पर PM मोदी का दावा जायज है?

सरदार पटेल कैसे बने भारत के ‘लौह पुरुष’?

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

आज एक महान शख्सियत भारत के सबसे सम्मानित जनकों में से एक, सरदार वल्लभभाई पटेल की विरासत पर मंथन का सटीक दिन है. वह विरासत, जिसे अपना बनाने की हैरतअंगेज कवायद नरेंद्र मोदी और बीजेपी की ऐतिहासिक गुस्ताखी साबित हो रही है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह कवायद तो तभी शुरू हो गई थी, जब 2014 के चुनाव से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी ने आक्रामक रूप से पटेल की विरासत पर दावा ठोक दिया था. खुद को अपनी पार्टी के दायरे से ज्यादा विशिष्ट ऐतिहासिक वंशावली में सजाने की कोशिश में मोदी ने पूरे देश के किसानों से अपील की थी कि वह अपने हल का लोहा दान करें ताकि गुजरात में लौह पुरुष की विशालकाय, करीब 600 फीट ऊंची, यानी विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति बन सके, जिसके सामने अमेरिका का स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी भी बौना पड़ जाए. (आखिर में ये मूर्ति एक शालीन गांधीवादी के सम्मान में बनी स्मारक से ज्यादा इसे बनाने वाले व्यक्ति की आत्ममुग्ध महत्वाकांक्षा का प्रतीक बन कर रह गई –महत्वाकांक्षा भारत की क्षमता से भी बड़ी थी इसलिए मूर्ति बनाने के लिए चीनी ढलाई-खाने की जरूरत पड़ गई.)

सरदार पटेल कैसे बने भारत के ‘लौह पुरुष’?

मोदी के इरादों को समझना बेहद आसान है. क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मोदी की छवि पर 2002 के सांप्रदायिक दंगों का दाग लगा था, खुद को सरदार पटेल से जोड़ना (जिन्हें बीजेपी एक ऐसा नेता के तौर पर पेश करती है, जो बंटवारे की विभिषिका के वक्त देश के हिंदुओं के साथ खड़े हुए और कश्मीर के मसले पर अडिग रहे) महज एक छवि सुधारने की कोशिश है – ताकि मोदी खुद को सरदार पटेल की तरह एक सख्त और निर्णायक नेता के रूप में पेश कर सकें, जबकि विरोधी उन पर ‘कट्टरवादी’ होने का आरोप लगाते हैं. अनुच्छेद 370 का खात्मा और इसे सरदार पटेल के सपनों के साकार होने से जोड़ना भी इसी कोशिश का एक हिस्सा है.

सरदार पटेल कैसे बने भारत के ‘लौह पुरुष’?
मोदी के इरादों को समझना बेहद आसान है. क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मोदी की छवि पर 2002 के सांप्रदायिक दंगों का दाग लगा था
(फोटो: PTI)
विभाजन के बाद देश को जोड़ने में पटेल की असाधारण भूमिका की हर तरफ तारीफ हुई, उन्हें लौह पुरुष का रुतबा मिला. सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान के प्रतीक होने के साथ गुजराती मूल के भी थे जो कि मोदी के लिए फायदेमंद साबित होता है. आज-का-मोदी-कल-का-पटेल का संदेश कई गुजरातियों पर सीधा असर करता है, उन्हें गर्व है कि उनके राज्य के एक बेटे से आज पूरे देश की आस बंधी है. शहरी मध्यम-वर्ग के ज्यादातर लोग नरेंद्र मोदी में ऐसे राजनेता को देखते हैं, जो भारत के अस्तव्यस्त लोकतंत्र की उलझन और असमंजस के बीच से रास्ता निकालता है.
0

कैसे सरदार पटेल ने मुस्लिमों की रक्षा की और उनका भरोसा जीता?

देश के बंटवारे के दौरान हुई हिंसा के वक्त सरदार पटेल ने जिस तरह का रुख अख्तियार किया था, 2002 में गुजरात में हुए दंगे के बाद नरेंद्र मोदी का रवैया उससे ठीक उलट था. मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और दंगे के बीच, अपने-अपने वक्त में, सरदार पटेल और नरेंद्र मोदी के सामने एक जैसी चुनौती थी.

1947 में तब दिल्ली में सरदार पटेल ने तुरंत और प्रभावी तरीके से मुसलमानों की सुरक्षा के इंतजाम किए, 10 हजार मुसलमानों को संवेदनशील इलाकों से बाहर निकालकर लाल किले के सुरक्षित घेरे तक पहुंचाया.

सरदार पटेल को डर था कि स्थानीय सुरक्षा बल सांप्रदायिक उन्माद के संक्रमण से प्रभावित हो सकते हैं, इसलिए उन्होंने कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुणे और मद्रास से सेना की टुकड़ियों को दिल्ली बुलाया. सरदार पटेल ने दिल्ली के मशहूर निजामुद्दीन दरगाह पर सजदा कर ये भी तय किया कि मुस्लिम समुदाय में भरोसे का संदेश जाए और मुसलमान आश्वस्त हों कि वो और उनकी आस्था बेशक भारत की जमीन से जुड़ी हैं. सरदार पटेल ने सरहद के पास अमृतसर शहर का दौरा किया, जहां नए इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान भाग रहे मुसलमानों पर हमले हुए थे, और हिंदू और सिख उपद्रवियों से गुजारिश कि वो मुस्लिम शरणार्थियों को अपना शिकार ना बनाएं.

सरदार पटेल इन सभी मामलों में पूरी तरह कामयाब रहे, उनकी दखल की वजह से आज दसों हजार लोग जिंदा हैं. इससे ठीक उलट 2002 में गुजरात में जो हुआ वह पीड़ादायक है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

चाहे नरेंद्र मोदी पर कोई उस साल हुए दंगों का अप्रत्यक्ष आरोप मढ़े या नहीं, वो किसी भी सूरत में दिल्ली में सरदार पटेल जैसी कार्रवाई करने का श्रेय नहीं ले सकते. गुजरात में मुख्यमंत्री मोदी ने मुसलमानों की सुरक्षा के लिए, राज्य के मुखिया के तौर पर, कोई सीधी और फौरी कार्रवाई नहीं की. ना ही श्रीमान मोदी ने खुले तौर पर इन हमलों की कभी निंदा की, सांकेतिक तौर पर किसी मस्जिद में जाना या मुसलमानों को आश्वस्त करने के लिए आसपास के किसी इलाके का दौरा करना तो दूर की बात थी.

गांधीवादी सरदार पटेल

यह एक बड़ी विडंबना है कि नरेंद्र मोदी जैसे स्वघोषित ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ एक ऐसे गांधीवादी नेता की विरासत पर अपना दावा पेश कर रहे हैं, जिन्हें किसी कीमत पर अपने भारतीय राष्ट्रवाद को किसी धर्म से जोड़ना गवारा नहीं होता. सरदार पटेल सभी के लिए बराबर का अधिकार में यकीन रखते थे, चाहे वो व्यक्ति किसी भी धर्म या जाति का क्यों ना हो. और, जैसा कि मैंने संसद में कहा, अनुच्छेद 370 के विचार और व्याख्या को संविधान में शामिल किए जाने से पहले उन्होंने स्पष्ट तौर पर अपनी रजामंदी दी थी.

यह सच है कि देश के बंटवारे के समय, जवाहरलाल नेहरू के विपरीत, सरदार पटेल को ऐसा लगता था कि एक पूरे समुदाय ने खुद को अलग कर लिया है. 2003 में छपी मेरी किताब, Nehru: The Invention of India, में मैंने नेहरू और सरदार पटेल के बीच इस मसले पर हुए टकराव का जिक्र किया है.

इसके बावजूद कई ऐसे मिसाल सामने आए जब सरदार पटेल ने, अगर उन्हें हिंदुओं के हक और नैतिकता में से कोई एक चुनना हो, बिना किसी अपवाद के नैतिक गांधीवादी दृष्टिकोण का समर्थन किया.

ऐसी ही एक मिसाल थी, जिसे संघ परिवार के समर्थक तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं, पूर्वी पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक के खिलाफ हिंसा पर जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच हुई संधि पर सरदार पटेल का विरोध. नेहरू-लियाकत संधि की वास्तव में सरदार पटेल ने आलोचना की थी, और वह इस मसले पर जवाहरलाल नेहरू से आक्रामक तौर पर असहमत थे.

लेकिन जब पंडित नेहरू अपने फैसले पर अड़े रहे, तो सरदार पटेल पीछे हट गए, और उनका तर्क पूरी तरह से गांधीवादी था कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा ने वास्तव में भारतीयों से पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ दंगें की निंदा करने का नैतिक हक छीन लिया. लेकिन वह एक हिंदू राष्ट्रवादी का मत नहीं, बल्कि एक भारतीय राष्ट्रवादी का गांधीवादी दृष्टिकोण था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

राष्ट्रवाद पर सरदार पटेल के विचार

एकमात्र सच्चा राष्ट्रवाद जो हम सबके दिमाग में बिठाया जाना चाहिए वह है भारतीय राष्ट्रवाद; बाकी सब झूठा या छद्म-राष्ट्रवाद है. भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म उस भारत की कल्पना से हुआ है, जो समग्रता और विविधिता का जश्न मनाता है, लेकिन हमारी सत्ताधारी पार्टी हिंदी-हिदुत्व-हिंदुस्तान की तिकड़ी पर बनी समानता पर जोर देती है.

एक तरफ नफरत को बढ़ावा और दूसरी तरफ समानता का भ्रमजाल बनाने वाले इन लोगों के हाथों अपने आदर्शों और धारणाओं की ऐसी विकृति देखकर सरदार पटेल, जिन्होंने नफरत फैलाने के आरोप में आरएसएस पर पाबंदी लगा दी थी, रो पड़ते. ऐसे लोग भारत की मूल-भावना को खोखला कर रहे हैं, जो कि देश की विविधता को मान्यता देता है और भारतीयता की हर शैली का उत्सव मनाता है.

(संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अंडर-सेक्रेट्री-जनरल शशि थरूर कांग्रेस सांसद और लेखक हैं. उन्हें @ShashiTharoor पर ट्वीट किया जा सकता है. आर्टिकल में दिये गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे कोई सरोकार नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×