गुजरात में पाटीदार और महाराष्ट्र में मराठा. बीजेपी सरकार के लिए इन दोनों समुदायों का आंदोलन एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है. महाराष्ट्र में अपनी मांगों को लेकर लाखों मराठा सड़कों पर उतर आए हैं और बेहद शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे हैं. गौर फरमाने वाली बात ये है कि इतने बड़े आंदोलन का कोई चेहरा नहीं है.
महाराष्ट्र में मराठा नाराज हैं. छह हफ्ते से ज्यादा हो गए हैं, वो सड़क पर हैं. उनकी मांग है कि SC-ST कानून खत्म हो, मराठा समुदाय को आरक्षण मिले. जब इस समुदाय ने ‘मूक मोर्चा’ निकालने का आह्वान किया था, तो किसी ने भी इनको गंभीरता से नहीं लिया. हालांकि मराठा समाज को महाराष्ट्र में काफी मजबूत माना जाता है.
राज्य की आबादी में 33 फीसदी मराठा है. 288 विधानसभा में से 75 सीटों पर किसी भी उम्मीदवार को हराने या जिताने में निर्णायक भूमिका इनकी होती है. शरद पवार, अशोक चव्हाण, पृथ्वीराज चव्हाण जैसे दिग्गज नेता इसी समाज से आते हैं, जो हाल में मुख्यमंत्री भी रहे.
बिना पार्टी का राजनीतिक आंदोलन!
महत्वपूर्ण बात ये है कि ये पूरा का पूरा आंदोलन बिना किसी राजनीतिक पार्टी की अगुवाई के चल रहा है और इसके आगे भी दो महीने तक चलने की योजना है. इस आंदोलन की तपिश को महसूस करते हुए अब राजनीतिक पार्टियां और नेता इससे जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं, पर इनको फिलहाल आगे नहीं आने दिया जा रहा है. अभी इस आंदोलन का कोई एक नेता पूरी तरह से उभर कर नहीं आया है.
जैसे पड़ोसी राज्य गुजरात में 22 साल का लड़का हार्दिक पटेल सामने आया था, जिसको पिछले ग्यारह महीने से गुजरात सरकार ने जेल में बंद कर रखा है. पहले नौ महीने गुजरात में और पिछले दो महीने से राजस्थान में नजरबंद है.
ये आंदोलन भी बिना किसी नेता या पार्टी की सरपरस्ती के शुरू हुआ. ये वो पाटीदार समाज है, जिसने गुजरात में बीजेपी को खड़ा किया और पिछले पचीस सालों से बीजेपी की रीढ़ की हड्डी बना रहा, पर आज ये बीजेपी से नाराज है.
पाटीदार और मराठा दोनों ही राजनीतिक तौर पर मजबूत समाज हैं. राजनीति में इनका दबदबा रहा है. शक्तिशाली रहे हैं, फिर भी सड़क पर आंदोलन कर रहे हैं. क्यों ? ये सवाल अहम है. इसी तरह पिछले दिनों गुजरात के ही ऊना में गोरक्षकों के द्वारा दलितों की पिटाई का वीडियो सामने आया और पूरे देश में हंगामा मच गया.
दलितों ने इस के विरोध में पहले अहमदाबाद में एक विशाल रैली की और फिर अहमदाबाद से उना तक यात्रा की. गुजरात में दलित सिर्फ सात फीसदी है पर इसकी धमक पूरे देश ने सुनी. ये आंदोलन भी किसी राजनीतिक पार्टी ने नहीं किया था.
नए चेहरे और बीजेपी का ढहता किला!
पाटीदार और दलितों के साथ साथ गुजरात में ही एक और आंदोलन जोर पकड़ रहा है. क्षत्रियों का शराबबंदी की कमियों के खिंलाफ गांव-गांव में चलने वाला आंदोलन. ये आंदोलन नवंबर महीने में विधानसभा का भारी घेराव करने जा रहा है. इसकी अगुवाई चालीस साल के एक समाजसेवी अल्पेश ठाकुर कर रहे हैं.
इन आंदोलनों का असर ये हुआ कि गुजरात में बीजेपी को पसीने छूट रहे हैं, उसे अपने सबसे मजबूत किले का मुख्यमंत्री बदलना पड़ रहा है. अमित शाह की सभा में जमकर कुर्सियां चली और मोदी के गुजरात आने के समय पूरे शहर को छावनी में तब्दील करना पड़ा. ये सारे आंदोलन राजनीतिक हैं, पर नेतृत्व पेशेवर राजनेताओं के हाथ में नहीं है.
नये लोग, नये चेहरे सामने आ रहे हैं. जिग्नेश मेवानी और हार्दिक छोटी सी उम्र में अखिल भारतीय पहचान बन गये हैं. उसी तरह जेएनयू का कन्हैया कुमार रातोंरात हीरो बन गया था और हैदराबाद का रोहित वेमुला आत्महत्या के बाद दलित चेतना का नया नायक.
सामाजिक हैं आंदोलन की वजहें?
हमें ये सवाल पूछना पड़ेगा कि क्या ये प्रखर आंदोलन राजनीति की असफलता है ? क्या राजनीतिक पार्टियां और नेता अलग समुदायों के हितों की रक्षा करने में नाकाम हो रहे हैं ? क्या अलग-अलग समाज दूसरे समाजों को अपना प्रतिद्वंद्वी मानने लगे हैं ? क्या समाजों के बीच टकराव बढ़ रहा है ? क्या जो समाज पहले राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर मजबूत माने जाते थे, अब उनका वर्चस्व खत्म होने लगा है, जिसकी वजह से उनके अंदर असुरक्षा भाव घर करने लगा है ?
और अंत में क्या सोशल मीडिया की अति सक्रियता और टीवी के तीखेपन ने एक नयी सामाजिक चेतना का विस्तार कर दिया है, जिसे अपनी नई महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए नए राजनीतिक सामाजिक ढांचे की जरुरत आन पड़ी है?
इसमें कोई दो राय नहीं कि 1991 के बाद की आर्थिक और सूचना क्रांति ने समाज में भूचाल ला दिया है. समाज में समृद्धि आई, नया मध्य वर्ग पैदा हुआ.उम्मीदों ने नई छलांग लगाई है. नई महत्वाकांक्षाओं ने जन्म लिया है.
आर्थिक सम्रद्धि ने समाज में नया आत्मविश्वास पैदा किया है. ये आत्मविश्वास भारतीय लोकतंत्र में अपना हिस्सा मांग रहा है, साथ ही राजनीतिक सत्ता में वो खास तरह का सुधार भी चाहता है.
परंपरागत राजनीति इस बदलाव के हिसाब से कदमताल नहीं कर पा रही है. वो अभी भी पुराने मोड में ही है. इस वजह से समाज और राजनीति में दुराव भी पैदा हो रहा है और टकराव भी.
2011 ने पहली बार इस फिनोमिना के संकेत दिए. जब अन्ना की अगुवाई में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने पूरे राजनीतिक जमात को हिला कर रख दिया. रामलीला मैदान नए क्रांतिकारियों की कर्मस्थली बन गई. जब इस आंदोलन को राजनीति में उतरने की चुनौती दी गई, तो लगा कि राजनीति नए सामाजिक बदलावों का मजाक उड़ा रही है.
पर जब यही आंदोलन राजनीतिक पार्टी में बदल गया, चुनाव लड़ा तो नया सच सामने आया. पचासों साल पुरानी पार्टियां जमींदोज हो गईं और मोदी के लोकसभाई चमत्कार के बाद भी दिल्ली में ‘आप’ को 70 में से 67 सींटे मिली. बीजेपी जो राजधानी दिल्ली में सरकार बनाने का सपना देख रही थी, वो गायब ही हो गई. ये चमत्कार किसी पार्टी का नहीं था. ये करिश्मा था लोगों के अंदर जन्म ले रही नई महत्वाकांक्षा का. अब यही चमत्कार पंजाब में भी होने जा रहा है.
क्यों नाराज हैं पाटीदार और पटेल समुदाय
ये महत्वाकांक्षा की उड़ान है कि पाटीदार समाज और मराठा समाज सिर्फ राजनीतिक भागीदारी से संतुष्ट नहीं है. उस समाज में भी कई स्तर बन गए हैं. हर समाज की तरह इस समाज में अभिजात्य वर्ग सारे हक पर कुंडली मार कर बैठ गया है, जिसके कारण बहुसंख्य पाटीदार और मराठा समाज अपने को उपेक्षित महसूस कर रहा है. उसे लगता है कि कुछ लोग उनके नाम पर वोट तो ले लेते हैं पर बदले मे सिर्फ अपना घर भरते हैं. पूरे समाज के साथ न्याय नहीं होता.
पाटीदारों का एक हिस्सा विदेश चला गया. मोटी कमाई कर रहा है. पटेल आज की तारीख में अमेरिका और दूसरे देशों में सिक्खों की तरह आर्थिक स्तर पर बहुत मजबूत है. गुजरात में भी पटेलों के एक तबके ने सत्ता पर पकड़ बना ली, पर बाकी के पटेल अपने को गुरबत में पाते हैं, तो उनमें खीझ होती है.
पाटीदार और मराठा समाज नौकरी में आरक्षण इसलिए मांग रहे हैं कि क्रीमी लेयर के नीचे का तबका अब पहले से ज्यादा पढ़ लिख कर रोजगार मांग रहा है. जब उन्हें अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप रोजगार नही मिलता, तो फिर उनके पास अपना गुस्सा दिखाने के सिवाय कोई और रास्ता सूझता नहीं. उन्हें समाज के नेताओं से तकलीफ है, इसलिए उनकी अगुवांई में चलने को तैयार नहीं है और न ही उनसे न्याय मिलेगा, ये वो सोचते हैं.
दलितों की अपनी नेताओं से नाराजगी
दलित समाज को भी अपने नेताओं से कोई उम्मीद नहीं है. आजादी की लड़ाई में गांधी जी ने 1920 के बाद से ये तय किया था कि दलितों के उद्धार के बिना स्वतंत्रता का संघर्ष अधूरा है .
30 मार्च, 1938 में तो वो ये भी कह गए कि अगर अस्पृश्यता खत्म नहीं होती, तो हिंदुत्व ही खत्म हो जाए. दलितों को साथ लेकर चलने की जिद से नेहरू जी काफी परेशान हो जाते थे.
नेहरू को लगता था कि कहीं गांधी जी आजादी की लड़ाई से भटक न जाएं, कहीं उनका ध्यान स्वतंत्रता संग्राम से दूर न हो जाए और आजादी का सपना कमजोर न पड़ जाए. अंबेडकर से गांधी के गहरे मतभेद थे, पर गांधी जी ने दलितों की लड़ाई लड़ना नहीं छोड़ा पर उनकी मौत और आजादी के बाद ये लड़ाई फीकी पड़ गई. दलित पार्टियां और दलित नेता अपनी तिजोरियां भरने मे जुट गए.
सोशल मीडिया का दलित चेतना में बढ़ता प्रभाव
सोशल मीडिया ने नवजाग्रत दलित चेतना को प्लेटफॉर्म दिया और एकजुट होने का मंच भी. रोहित वेमुला अपनी मौत के बाद हीरो बन गया. दलित चेतना उभार का नया मार्गदर्शक. ये समाज अब राजनीतिक हिस्सेदारी के साथ साथ सामाजिक हिस्सेदारी और परंपरा से न्याय चाहता है.
ऐसे में परंपरागत दलित नेता से निराश समाज ऊना की घटना के बाद घिसे-पिटे नेताओं के पास न जाकर 32 साल के युवा जिग्नेश को तलाशता है और उसे अपना नेता बनाता है.
पर हमें ये समझना होगा कि इसको अलग-अलग समाज के बीच की लड़ाई मानना गलत भी होगा और इतिहास सम्मत भी नहीं होगा. ये विभिन्न समाज के बीच टकराव की कहानी नहीं है. मराठा और पाटीदार समाज दलितों को मिले आरक्षण को हटाने की मांग भले ही कर रहे हो पर हकीकत में ये अपना हक मांगने की कहानी है, राजनीति से निराशा की कहानी है.
अपनी महत्वाकांक्षा को पर लगा कर उड़ने की कोशिश की कहानी है. ये कहानी देश की नयी पटकथा लिखेगी और अपने बीच से नये नायकों को जन्म देगी. मराठाओं का संघर्ष यों ही खत्म नहीं होगा. देश को इन निहितार्थों को समझना होगा.
(आशुतोष आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आलेख में लेखक के निजी विचार हैं. ये लेख पहली बार क्विंट हिंदी पर 22 सितंबर को छपा.)
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