सरकार के साथ अब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) का भी संघर्ष शुरू हो गया है. इसलिए आपको संस्थानों को कमजोर करने का शोर और भी ज्यादा सुनाई पड़ेगा, लेकिन विडंबना यह है कि ज्यादातर लोग यह तक नहीं जानते कि ‘संस्थान’का मतलब क्या होता है.
‘संस्थान’ ऐसी चीज नहीं होती, जिसे रातोंरात खड़ा किया जा सकता है, न ही इसका ड्यूटी फ्री इंपोर्ट किया जा सकता है. कहने का मतलब यह है कि कई चीजें हैं, जो संस्थान नहीं होतीं.
इसे बनाने में काफी समय लगता है. इसके काम करने के नियम तय होते हैं. संस्थान कुछ आदर्शों पर चलते हैं, जिससे धीरे-धीरे इसका कंट्रोल बढ़ता है. इसलिए भले ही खाप पंचायतें हों या किसी मंदिर में प्रवेश करने के नियम या सरकार और रिजर्व बैंक के बीच का रिश्ता या लोगों के साथ पुलिस का संबंध या कुछ और, सच्चे संस्थान को खड़ा करने के लिए दो चीजें बेहद जरूरी हैं. पहला, इसका धीरे-धीरे विकास और दूसरा, इसके लिए तय नियम.
दिक्कत यह है कि निर्वाचित लोकतंत्र में धीमी गति की गुंजाइश नहीं होती. इसमें जिसका बहुमत होता है, उसकी ही चलती है. इसलिए संस्थानों के लिए नियम अक्सर तय नहीं हो पाते. इंदिरा गांधी के दौर के बाद हम देख चुके हैं कि एक सरकार का शासन दूसरे के लिए कैसे कुशासन बन जाता है.
आपातकाल इसकी असाधारण मिसाल है. खुशकिस्मती से देश को 19 महीने ही इमरजेंसी में गुजारने पड़े, लेकिन इतने कम समय में ही इंदिरा गांधी ने पिता की सांस्थानिक विरासत को तबाह कर दिया या बदल दिया था. इंदिरा ने न सिर्फ प्रतिबद्ध नौकरशाही की बात की, बल्कि वह न्यायपालिका को भी सरकार का पिछलग्गू बनाना चाहती थीं.
ब्रिटिश सिस्टम के बदले अमेरिका सिस्टम
मैं भारतीय संस्थानों के साथ घट रही घटनाओं को जिस तरह से देखता हूं, उसका गलत मतलब निकाला जा सकता है. हालांकि इस पूरी बहस के केंद्र में ब्रिटिश बनाम अमेरिकी सिस्टम है. अमेरिकी सिस्टम में संस्थान देश के लीडर के प्रति वफादार होते हैं. इससे जल्द नतीजे हासिल करने में मदद मिलती है.
संस्थानों के नियम-कायदे के फंदे के चलते रिजल्ट मिलने में देरी हो सकती है. यह बात मैं नहीं कह रहा हूं, न ही मैं नियम-कायदे तोड़ने की वकालत कर रहा हूं. संस्थानों की वजह से नतीजा हासिल करने में देरी की बात दिवंगत मुख्य न्यायाधीश पीबी गजेंद्रगडकर ने कही थी. उन्होंने 1960 में कहा था कि सरकारें जल्दी में होती हैं, लेकिन यह न्यायापालिका को देखना है कि काम ठीक से हो यानी यह समस्या बहुत पुरानी है.
हालांकि यह परेशानी उन संस्थानों को लेकर नहीं होनी चाहिए, जिन्हें प्रशासनिक आदेश के तहत बनाया गया है. सीबीआई ऐसी ही संस्था है. गृह मंत्रालय ने इसका गठन किया था. इसलिए साल 2013 में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने इसे गैरकानूनी माना था. इस मामले में अंतिम फैसला नहीं आया है और अपील सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है.
अगर सुप्रीम कोर्ट गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले को पलट भी देता है, तब भी सीबीआई संस्थान नहीं बन जाएगा. जांच एजेंसी को संस्थान बनने के लिए दो शर्तें पूरी करनी होंगी.
पहली, इसे संवैधानिक दर्जा देना होगा. जो संस्थाएं इस तरह से बनाई जाती हैं, वे सरकारी बंदिशों से वास्तविक अर्थों में आजाद होती हैं. आरबीआई और टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) जैसे संस्थान संसद ने बनाए हैं. इसलिए वे अर्ध-स्वायत्त हैं.
तीसरे दर्जे में ऐसे संस्थान आते हैं, जिन्हें मंत्रालयों ने बनाया है. वे उनका ही एक्सटेंशन होते हैं. आप उन्हें संबंधित मंत्रालय का विभाग मान सकते हैं. जिन संस्थानों को संविधान के तहत बनाया गया है, उनके पास अपना स्टाफ होता है. इसलिए सीबीआई को भी यही करना होगा. तब डेप्यूटेशन पर भेजे गए पुलिस अधिकारियों से काम नहीं चलेगा. अगर पुलिस अधिकारी के दामन पर दाग नहीं हैं, तब भी उनकी अप्रोच वह नहीं होती जिसकी एक स्वायत्त जांच एजेंसी को जरूरत है.
जहां तक सीबीआई के डायरेक्टर की नियुक्ति, उनके अधिकारों या उन्हें हटाए जाने की बात है, तो उसके लिए मौजूदा व्यवस्था ठीक है. हालांकि बहुत जल्द सीबीआई को लेकर ऐसे बदलाव नहीं होने जा रहे हैं, लेकिन इस मामले से मोदी सरकार के हाथ एक मौका लगा है.
क्या विपक्ष सीबीआई को संवैधानिक संस्थान बनाने के लिए राजी होगा? मोदी यह चुनौती दे सकते हैं. इससे और कुछ नहीं, तो शायद विपक्ष की पोल ही खुल जाए.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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