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भारतीय वायुसेना सिर्फ 'सपोर्टिंग आर्म' नहीं, देखिए इजरायल और अमेरिका के उदाहरण

Indian Air Force जैसी एक सक्षम,अनुभवी और पेशेवर वायु सेना में अकेले ही युद्ध के रुख को मोड़ने की क्षमता

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2 जून को एक टेलीविजन इंटरव्यू में भारतीय वायु सेना (IAF) के द्वारा थिएटर कमांड में अपने सीमित एसेट के पुनर्वितरण से इंकार के सवाल पर चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत (CDS Bipin Rawat) ने कहा "...IAF एक सपोर्टिंग आर्म बनी हुई है, उसी तरह जैसे की आर्मी की सहायता आर्टिलरी (तोप) या इंजीनियर्स करते हैं"

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हकीकत यह है कि तोपें भी अब केवल सपोर्टिंग आर्म नहीं हैं ,कम से कम उन्नत सेनाओं में. कंबटेंट आर्म (सेना) द्वारा हमले से पहले तोपों से लंबी बमबारी के दिन खत्म हो गए हैं क्योंकि सटीक और स्वचालित हथियारों के साथ तोपें अब हताहतों की संख्या और भौतिक क्षति को बढ़ा सकती हैं.यह जंग में निर्णायक हो सकता है. एक सक्षम, अनुभवी, पेशेवर वायु सेना जैसी कि भारतीय वायु सेना(IAF), लगभग एक स्टैंडअलोन, रणनीतिक शक्ति हो सकती है, जिसमें अकेले ही युद्ध के रूख को मोड़ने की क्षमता है.

थिएटर कमांड में भारतीय वायु सेना को मात्र सपोर्टिंग आर्म के रूप में शामिल करना और इसे ग्राउंड फोर्स को एयर सपोर्ट प्रदान करने के लिए कहना या एक एयर डिफेंस कमांड का हिस्सा बनाने के लिए कहना दरअसल इस कीमती संपत्ति को टुकड़े-टुकड़े करना है.
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जीत का मंत्र: 'युद्ध के इंजन' पर हमला

लगभग 75 साल पहले ही वायु सेना मात्र 'सपोर्टिंग आर्म' की भूमिका से बाहर आ गयी थी.कार्ल वॉन क्लॉजविट्ज़ ने प्रसिद्ध रूप से रेखांकित किया था कि युद्ध जीतने का मूल मंत्र है- दुश्मनों के युद्ध लड़ने की क्षमता पर बीचोबीच हमला करना. द्वितीय विश्व युद्ध तक युद्ध का केंद्र सिर्फ युद्ध के मैदान पर सेनाओं का विनाश नहीं था बल्कि वो कारखाने और श्रमिक भी थे जो 'युद्ध के इंजन' का उत्पादन कर रहे थे.

द्वितीय विश्व युद्ध इसलिए समाप्त नहीं हुआ था क्योंकि जर्मनी और जापान के पास युद्ध के मैदान के लिए मैनपावर खत्म हो गया, बल्कि इसलिए हुआ क्योंकि जर्मनी और जापान के औद्योगिक क्षेत्र को पंगु बनाने के लिए मित्र देशों ने बड़े पैमाने पर हवाई हमले किए. इससे जर्मनी और जापान की युद्ध जारी रखने की क्षमता समाप्त हो गई.
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इजराइल की 'फॉलो-ऑन-फोर्स-अटैक' ने NATO के 'एयर लैंड बैटल स्ट्रेटजी' का आधार तय किया

वायु सेना का उपयोग किस लिए किया जाना चाहिए? इस पर सबसे बड़ी सीखों में से एक है -1973 में हुई Yom Kippur युद्ध के दौरान नॉर्दन गोलन की लड़ाई.

उसमें इजराइल सेना पर अचानक हमला हुआ और वह आगे बढ़ती सीरियाई डिवीजनों से हारने के कगार पर पहुंच गयी. लेकिन कमजोर डिफेंस पर और अधिक सेना की तैनाती करने के बजाय जनरल मोशे "मूसा" पेलेड और जनरल डैन लेनर के नेतृत्व में दो इजरायली डिवीजन अंदर तक प्रवेश कर गयीं.उसने सीरियाई सेना के केंद्र को घेरकर उसे बुरी तरह हराया और उसे वापस लौटने पर मजबूर कर दिया.

संक्षेप में : जो एक सामान्य हार हो सकती थी, उसके बीच में इजरायलियों ने गहराई में हमला करने की रणनीति अपनाई .अमेरिकी सेना ने इस निर्णायक लड़ाई का विश्लेषण किया और निष्कर्ष निकाला कि 'शुरुआती अनुपात' किसी लड़ाई के परिणाम को निर्धारित नहीं करते. उनके अनुसार शुरुआती चरणों में 'इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि किसकी संख्या ज्यादा है और किसकी कम'-परिणाम इस बात से तय होगा कि क्या दुश्मन की फॉलोऑन सेना को आगे बढ़ने और युद्ध में शामिल होने से रोका जा सकता है या नहीं.
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इसके बाद अमेरिकी सेना ने 'एक्टिव डिफेंस' नामक एक नया युद्ध सिद्धांत जारी किया जो युद्ध के मैदान को लंबा खींचने और ना सिर्फ दुश्मनों के फ्रंटलाइन पर हमला बल्कि लॉन्ग रेंज सिस्टम की सहायता से बैकअप ट्रूप्स और रिजर्व को भी समाप्त करने की रणनीति पर जोर देता है.

यह 'फॉलो-ऑन-फोर्स-अटैक' की अवधारणा थी जिसने NATO की 'एयर लैंड बैटल स्ट्रेटजी' का आधार तय किया. परिष्कृत और परिवर्तनकारी ALBS ने 'डीप बैटल' के लिए अमेरिकी वायु सेना(USAF) को एकीकृत किया-यानी इसकी सहायता से अब वह दुश्मनों के कमांड सेंटर, लॉजिस्टिक लाइन, डिपों, संचार लिंक, वायु रक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर, उद्योग आदि के साथ साथ युद्ध के मैदान में फ्रंटलाइन की ओर बढ़ते ट्रूप को निशाना बना सकती थी.

इस स्थिति में सप्लाई से वंचित और रिजर्व को फिर से भरने में असमर्थ होने के कारण दुश्मन की फ्रंटलाइन का पतन स्वाभाविक था. 1991 के खाड़ी युद्ध और 2003 के इराक युद्ध में USAF ने ठीक यही किया था. दोनों में मित्र देशों की जमीनी सेना को भारी लड़ाई का सामना नहीं करना पड़ा.
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IAF 'सहायक भूमिका' से अधिक सक्षम

इस कारण IAF की राय अपनी जगह सही है. वह मल्टीरोल एयरक्राफ्ट से लैस है जो मिशन के अनुसार अपनी भूमिकाओं को बदल सकती है और एक ही दिन में विभिन्न ठिकानों से काउंटर-एयर स्ट्राइक या एयर डिफेंस भूमिकाओं में उसका प्रयोग किया जा सकता है.

अच्छी तकनीक,अनुभवी पायलट और अटैक प्लानर्स के साथ भारतीय वायु सेना ने दुश्मन वायु सेनाओं को रोकने और हवाई हमलों से मातृभूमि की रक्षा करने के लिए एकीकृत काउंटर एयर ऑपरेशन करने के लिए अपने आप को तैयार किया है. इसके साथ वह टेक्निकल बैटलग्राउंड को अलग-थलग करते हुए 'युद्ध के इंजन' को भी नष्ट करने के लिए हमला कर सकती है.

ऐसी कार्यवाहियां, जिसमें कमांड और ऐसेट में यूनिटी की आवश्यकता होती है,में विभिन्न लड़ाईयों एवं युद्ध के परिणाम पर कहीं अधिक प्रभाव डालने की क्षमता होती है.

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US पेंटागन में बड़े स्तर पर बदलाव की जरूरत

भारत को थिएटर कमांड के माध्यम से एकीकृत होने की प्रेरणा अमेरिकी मिलिट्री के जियोग्राफिक कॉम्बैटेंट कमांड्स (GCCs) से मिली जो 1986 के गोल्डवाटर-निकोल्स डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस रिऑर्गेनाइजेशन एक्ट द्वारा बनाए गए थे. इसके अलावा इसे प्रेरणा चीन से भी मिली जिसने मिलिट्री रीजन्स को हटाकर थिएटर कमांड स्थापित कर लिया है.

हालांकि हाल के वर्षों में अमेरिका में GCC/ थिएटर कमांड मॉडल पर काफी बहस हुई है. ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रमुख सैन्य सुधार में कम से कम एक दशक की अवधि उसको स्थापित करने के लिए आवश्यक है और उससे तैयार मॉडल ,यदि अच्छी तरह से सोचा जाए, को लगभग 25-35 वर्षों तक ही चलना चाहिए.ऐसा इसलिए है क्योंकि युद्ध तकनीक लगातार विकसित होती रहती है.

1986 का अधिनियम दूसरे विश्व युद्ध, कोरिया और वियतनाम युद्ध में ज्वांइट ऑपरेशन चलाने में अमेरिकी सेना की अक्षमता का परिणाम था. साथ ही यह ऑपरेशन ईगल-क्लॉ (1994 ईरान में बंधकों को बचाने में विफल) और अर्जेंट फ्यूरी (1983 का ग्रेनेड हमला) की विफलता का भी परिणाम था. लेकिन अब हालात पहले जैसा नहीं रहा.

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यही कारण है कि 2016 में अमेरिकी कांग्रेस ने 1986 के इस अधिनियम की '30 साल की समीक्षा' की. सैन्य कर्मियों और प्रशिक्षण में सुधार, मौजूदा लड़ाकू कमांडो के पुनर्गठन,OSD/ सिविल मैनेजमेंट, रणनीति तैयारी करने और अपनाने पर महत्वपूर्ण गवाही दी गई.

इससे पहले 2015 में तीन विशेषज्ञों, जिनमें से 2 ने 1986 एक्ट को बनाने में मदद की थी, ने अमेरिकी सीनेट के आर्म्ड सर्विसेज कमिटी के समक्ष गवाही दी कि 'कोई भी संगठनात्मक ब्लूप्रिंट हमेशा के लिए नहीं रहता' और यद्यपि इस अधिनियम ने संयुक्त क्षेत्रीय लड़ाकू कमान संरचना को मजबूत किया था लेकिन इसने अनजाने में ही संयुक्त संगठनों के भीतर व्यक्तिवादिता को बढ़ावा दिया और पेंटागन इस टॉप-हेवी कमांड स्ट्रक्चर के नीचे दबा जा रहा है. इसमें सुधार के लिए बड़े स्तर पर बदलाव की जरूरत है.

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि 2020 की शुरुआत में अमेरिकी एयर फोर्स चीफ ऑफ स्टाफ जनरल डेविड गोल्डफिन ने बहुत कुछ वैसा ही कहा जैसा भारतीय वायु सेना ने बताने की कोशिश की है- कि US मिलिट्री ऑपरेशन को नियंत्रित करने वाली वर्तमान GCC संरचना को भविष्य की वैश्विक, सभी-डोमेन संघर्षों का मुकाबला करने के लिए बदलना होगा.
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बड़ी सेना में सुधार न तो आसान है और ना ही त्वरित

और यहां हम तीन लैंड थिएटर कमांड, एक एयर डिफेंस कमांड(ADC) और एक मैरिटाइम कमांड का समर्थन कर रहे हैं. इससे पहले तीन (आर्मी के प्रभुत्व वाले) थे-

  • इस्टर्न थिएटर (चीन केंद्रित,सिवाय जम्मू-कश्मीर बॉर्डर से संबंधित)

  • नॉर्दन थिएटर (वर्तमान नॉर्दन कमांड की तरह ही)

  • वेस्टर्न थिएटर (पाकिस्तान केंद्रित)

हैरानी की बात है कि चीन की सीमा को दो अलग-अलग थिएटर कमांड द्वारा नियंत्रित किया जाना है, जो कमांड और समन्वय को प्रभावित कर सकता है. इसके अलावा IAF ने अपने सभी डिफेंस एसेट को अपने अधीन रखने की बात कही है. यह स्पष्ट नहीं है कि आर्मी, IAF और नेवी अपने स्टैटिक, मोबाइल और ऑफेंसिव एसेट के लिए अपने एयर कवर को कैसे कोऑर्डिनेटर करेंगे.
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हम इतिहास के उस पड़ाव पर नहीं हैं जहां 1986 में अमेरिका था.सिर्फ सुधार के लिए सुधार एक अच्छा विचार नहीं है. इसके अलावा एक बड़ी सेना में सुधार न तो आसान है और ना ही त्वरित. नये सिद्धांतों को बनाने, परिष्कृत करने,अपनाने ,उपकरण प्राप्त करने और सेना को प्रशिक्षित करने में समय लगता है. सुधार की इस अवधि के दौरान सेना और राष्ट्र, दोनों असुरक्षित रहते हैं. इसलिए प्रत्येक सर्विस पर ध्यान देने की आवश्यकता है.

(लेखक भारतीय सेना के रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है.यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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