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दिल्ली पर केंद्र का अध्यादेश: AAP को कांग्रेस का साथ मांगने से सावधान रहना चाहिए

राजनीतिक दुश्मनी खत्म करने में कांग्रेस को खुशी होगी. यह बात AAP को जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना अच्छा है.

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केंद्र सरकार ने दिल्ली में सेवाओं पर चुनी हुई सरकार के नियंत्रण को परिभाषित करने वाले सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश लाया. इसके एक हफ्ते बाद, दो चीजें सामने आईं हैं: पहली, गैर-एनडीए पार्टियों का बहुमत स्पष्ट तौर पर दिल्ली की सत्ताधारी AAP (आम आदमी पार्टी) का समर्थन करता प्रतीत होता है और दूसरी, ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के समर्थन पर निर्भर रहने की गलती कर रही है.

यह लगभग तय है कि नए संसद भवन में होने वाले मानसून सत्र के दौरान जब इस अध्यादेश को विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा, तो लोकसभा में इसका पारित होना महज एक औपचारिकता होगी और थोड़ा-बहुत शोर-शराबे के साथ यह राज्यसभा में भी बिना किसी परेशानी के पारित हो जाएगा. आगे चलकर कुछ महीनों में इसे कानून बना दिया जाएगा.

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कांग्रेस के पास हिसाब बराबर करने का मौका

एनडीए हो या यूपीए 21वीं सदी में अब तक कोई भी सरकारी बिल संसद में अटका नहीं है. हालांकि एक अल्पकालीन समय 2002 की शुरुआत में आया था जब वाजपेयी सरकार के दौरान राज्य सभा में पोटा पारित नहीं हो पाया था, लेकिन जल्द ही यह दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में पारित हो गया था.

अभी जिस अध्यादेश की चर्चा हो रही है उसको लेकर अधिकांश गैर-एनडीए पार्टियां AAP का समर्थन करेंगी यानी वे अध्यादेश के खिलाफ जाएंगी, लेकिन संख्या बल की दृष्टि से देखें तो संसद में शायद ही इससे कोई फर्क पड़ेगा. इसके अलावा, वामपंथी दलों को छोड़कर अन्य विपक्षी दलों का AAP को समर्थन दरअसल बीजेपी के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता की वजह से है. वामपंथी दल अपनी संख्यात्मक कमजोरी के बावजूद लोकतंत्र और संघवाद के सवालों पर एक सैद्धांतिक रुख अपनाते हैं.

वहीं दूसरी ओर, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को इस अध्यादेश के रूप में आम आदमी पार्टी के प्रति अपनी मूल नफरत या दुश्मनी को दूर करने का अनुकूल मौका मिल गया है. कांग्रेस के इस रुख के बारे में और क्या समझा सकता है कि वह इस मुद्दे पर अपनी राज्य इकाइयों से सलाह-मशवरा करेगी? संसद में लिए जाने वाले स्टैंड को लेकर कांग्रेस ने आखिरी बार कब इस तरह का बेतुका बयान दिया था?

आखिर, कांग्रेस किससे सलाह लेगी? दिल्ली यूनिट एक ऐसी इकाई है, जो मौजूद ही नहीं है. कई सारे स्थानीय नेताओं के पहले ही बीजेपी में शामिल होने गए हैं. पंजाब में जो कुछ भी बचा है, अब वही है.

अध्यादेश के मुद्दे से कांग्रेस को अपनी विरोधी पार्टी (AAP) की कमजोरी मिल गई और ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भी चीज से बढ़कर (2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता से भी ज्यादा बढकर) आखिरकार कांग्रेस को ऐसा मुद्दा मिल गया है जिस पर वह AAP को वश में कर सकती है और संभवतः उस प्रतिद्वंद्विता को समाप्त कर सकती है, जिससे व‌र्षों पुरानी पार्टी को निपटना मुश्किल हो रहा था.

कांग्रेस की हिप्पोक्रेसी साफ दिखाई पड़ रही है

2017 में अपनी राष्ट्रपति पद कीं उम्मीदवार मीरा कुमार, या 2022 में संयुक्त विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा और उप-राष्ट्रपति पद कीं उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा के लिए आम आदमी पार्टी (AAP) से समर्थन लेने में कांग्रेस को कोई समस्या नहीं थी. मीरा कुमार और मार्गरेट अल्वा दोनों ने अपने-अपने चुनावों के लिए समर्थन मांगने के लिए व्यक्तिगत रूप से केजरीवाल से मुलाकात की थी.

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कांग्रेस पार्टी बीजेपी से भी ज्यादा AAP से नफरत करती है. कांग्रेस यह भुला नहीं पा रही है कि उसके 15 साल के गढ़ (दिल्ली) में आम आदमी पार्टी ने सेंध लगा दी थी और देश की राजधानी में जब कांग्रेस को लगातार अपने चौथे कार्यकाल का सपना बुन रही थी तब AAP ने चुनावी मैदान में कांग्रेस को पटखनी देते हुए उसके सपनों को चकनाचूर कर दिया था.

हालांकि, कांग्रेस यह स्पष्ट नहीं करती है कि उसने कड़े मुकाबले वाले चुनाव के कुछ दिनों बाद ही आम आदमी पार्टी को पहली सरकार बनाने के दौरान समर्थन क्यों दिया था? यह वही पार्टी थी जिसकी वजह से उस चुनाव में कांग्रेस की प्रतीक चिन्ह शीला दीक्षित की हार हुई थी.

केजरीवाल सरकार के उन 49 दिनों के बाद से, कांग्रेस पिछले एक दशक से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक भी विधायक या सांसद को जीत नहीं दिला पाई है. भले ही अब दिल्ली कांग्रेस के नेता AAP के खिलाफ जहर उगल रहे हैं, लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव गठबंधन के लिए कांग्रेस ने एक असफल प्रयास किया था.

अध्यादेश के पक्ष में कांग्रेस नेताओं द्वारा पेश किए गए बेतुके और हास्यास्पद तर्कों पर गौर करें तो यह स्पष्ट है कि उनकी मंशा AAP सरकार को दिल्ली से बाहर करना है. शहर की ब्यूरोक्रेसी (नौकरशाही) पर केंद्र के नियंत्रण पर बीजेपी की लाइन पर चलने वाली कांग्रेस को कोई और कैसे समझाएगा कि वे कांग्रेस इस बात को भूल जाती है कि उनकी अपनी पार्टी की मुख्यमंत्री स्वर्गीय शीला दीक्षित ने 2012 में पार्टी से सलाह-मशवरा किए बगैर अपनी ही पार्टी की केंद्र सरकार द्वारा नौकरशाहों के तबादले का सार्वजनिक रूप से विरोध किया था?

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अपना गढ़ (दिल्ली) वापस चाहती है कांग्रेस

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1993 में विधानसभा के अस्तित्व में आने के बाद से कांग्रेस हमेशा दिल्ली में एक शक्तिहीन सरकार चाहती आयी है. दिल्ली को राज्य का दर्जा देने पर स्वर्गीय शीला दीक्षित की चुप्पी से यह बात तब और स्पष्ट होती है जब वह दिल्ली की सत्ता में थीं और उनकी अपनी पार्टी 2004 से 2014 के बीच केंद्र में शासन कर रही थी. ये वही शीला दीक्षित थीं, जिन्होंने उन्होंने 1998 और 2004 के बीच वाजपेयी शासन के दौरान इस मुद्दे पर कुछ शोर मचाया था.

अतीत में उस स्थिति से लेकर दिल्ली में राजनीतिक रूप से गायब हो जाने तक, चूंकि शहर की राजनीति में अब इसका कोई दांव नहीं बचा है ऐसे में राष्ट्रीय राजधानी को पूर्ण केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलते देख कांग्रेस खुश होगी.

2019 में अनुच्छेद 370 निरस्त करने पर केंद्र का समर्थन करने के लिए AAP की आलोचना की जा सकती है, लेकिन क्या राज्यसभा के तीन AAP सांसदों के समर्थन के कारण यह बिल पारित हुआ? कांग्रेस चाहेगी कि तीन तलाक और CAA बिल के खिलाफ AAP का जो स्टैंड है उसको देश भूल जाए, क्योंकि यह बिल के AAP से मेल नहीं खाते हैं.

2015 में AAP के अब तक के सबसे बड़े जनादेश के साथ सत्ता में आने और 2020 में अपनी सफलता को दोहराने के बाद से कांग्रेस दिल्ली में बीजेपी की भरोसेमंद सहयोगी रही है. आम आदमी पार्टी सरकार के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों के पास दर्ज सभी शिकायतों पर नजर डालने पर आपको इसका जवाब मिल जाएगा.

दिल्ली ही नहीं, 2022 के पंजाब विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के चुनावी अभियान की गहन जांच से एक दिलचस्प झलक मिलती है कि AAP को कुचलने के लिए कांग्रेस किस हद तक जाने को तैयार है.

राहुल गांधी से लेकर मलिकार्जुन खड़गे तक सभी कांग्रेस नेताओं ने AAP के पूर्व नेता कुमार विश्वास के एक आरोप पर जोरदार तरीके से चिपके हुए थे कि 2017 में आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जो कैंपेन चलाया था उसको खालिस्तानी तत्वों का समर्थन प्राप्त था, जिसका जिक्र पीएम मोदी ने भी अपने अभियान के दौरान किया था.

दिल्ली अध्यादेश अब कोई कानूनी या तकनीकी मुद्दा नहीं है, न ही यह संसद में संख्याओं की लड़ाई है. केवल जन आंदोलन की वजह से ही इस अध्यादेश को वापस लिया जा सकता है. कांग्रेस को इस विषय पर अपने राजनीतिक झगड़े को समाप्त करने में खुशी होगी, और आम आदमी पार्टी को इस बात का एहसास जितना जल्दी हो जाए, उसके लिए उतना ही अच्छा होगा.

(नागेंद्र शर्मा वर्तमान में प्रमुख पॉडकास्टिंग प्लेटफॉर्म earshot.in के एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं. 2015-20 के बीच वह दिल्ली के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार थे और इससे पहले बीबीसी वर्ल्ड सर्विस और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम कर चुके हैं. यह एक ओपीनियन पीस है, इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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