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विकास के डबल इंजन में राज्य भी एक इंजन है, वे केंद्र के 'ट्रैक्टर की ट्रॉली' नहीं बनना चाहते

क्या मोदी सरकार ने ऐसा कुछ किया है कि खासकर विपक्ष शासित राज्य केंद्रीय करों और अनुदानों में अपना वैध हिस्सा खो दे?

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कर्नाटक के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ने हाल ही में दिल्ली में विरोध प्रदर्शन की अगुवाई की. उसकी वजह थी- कर्नाटक के लिए केंद्र सरकार (Southern state vs Central Government) के कर आवंटन में कटौती. दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी केंद्र से नाराज हैं क्योंकि, जैसा कि उनका कहना है, मनरेगा जैसी केंद्रीय योजनाओं के लिए केंद्र सरकार पर्याप्त धनराशि जारी नहीं कर रही.

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यानी केंद्र-राज्य के वित्तीय संबंधों को लेकर विपक्ष शासित कई राज्यों में गहरा असंतोष नजर आ रहा है.

क्या मोदी सरकार ने ऐसा कुछ किया है कि खासकर विपक्ष शासित राज्य केंद्रीय करों और अनुदानों में अपने वैध हिस्से से महरूम हो जाएं.

केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा घट रहा है

14वें वित्त आयोग ने वितरण योग्य केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी को 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत किया था.

लेकिन मोदी सरकार इस सिफारिश से बिल्कुल खुश नहीं थी, हालांकि गुजरात और राजस्थान जैसे बीजेपी शासित राज्यों ने इससे कहीं ज्यादा हिस्सेदारी यानी 50 प्रतिशत की मांग की थी. बहरहाल मोदी सरकार ने इस सिफारिश को कम से कम कागज पर लागू किया. केंद्र के सकल कर राजस्व (जीटीआर) में अगर उपकर और अधिभार को हटा दिया जाए तो यह वितरण योग्य केंद्रीय करों के बराबर है.

केंद्र ने साझा करने योग्य करों को उपकर और अधिभार में बदलकर कुछ 'नुकसान' की भरपाई करने का फैसला लिया. पिछले कुछ वर्षों में पेट्रोलियम उत्पादों पर 95 प्रतिशत से अधिक उत्पाद शुल्क को उपकर और अधिभार में बदल दिया गया है (उदाहरण के लिए, 2023-24 के संशोधित अनुमानों में 3,08,100 करोड़ रुपये में से केवल 14,186 करोड़ रुपये साझा करने योग्य हैं).

आयकर और सीमा शुल्क में उपकर और अधिभार के घटक भी बढ़ गए हैं. परिणामस्वरूप, 2018-19 में राज्यों के साथ जीटीआर के 37 प्रतिशत हिस्से के मुकाबले, मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में राज्यों का हिस्सा घटकर 32 प्रतिशत से भी कम हो गया है.

इस बदलाव में राज्यों को बुरी तरह प्रभावित किया है.

मोदी सरकार कर्नाटक के कमतर हिस्से के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं

यूं वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्यों का सामूहिक हिस्सा तय होता है. वह अलग-अलग राज्यों की जरूरतों और पहले से मौजूद वित्तीय संसाधनों का आकलन करता है और फिर यह फैसला लेता है.

आयोग राज्यों की जरूरतों को निर्धारित करने के लिए कई कारकों पर विचार करता है. लेकिन जनसंख्या और गरीबी के स्तर पर मुख्य रूप से विचार किया जाता है, और फिर हर राज्य का हिस्सा तय किया जाता है. आखिरकार, गरीब राज्यों के पास कमजोर वित्तीय संसाधन/क्षमता होती है.

इसके लिए पहले आयोग वर्ष 1971 की जनसंख्या का आधार बनाता था. लेकिन 2017 में मोदी सरकार ने इस परंपरा को खत्म कर दिया.

‘समानता’ यानी इक्विटी के लिए जनसंख्या की बुनियादी संरचना और गरीबी के आधार पर आयोग ने उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे गरीब और बड़ी आबादी वाले राज्यों के लिए अनुपातहीन रूप से बड़े हिस्से की सिफारिश की है. दूसरी तरफ महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे कम आबादी वाले और अपेक्षाकृत वित्तीय रूप से समृद्ध राज्यों के लिए छोटे हिस्से की सिफारिश की है.

पिछले कुछ वर्षों में कर्नाटक की हिस्सेदारी कम हो गई थी. 15वें वित्त आयोग ने काफी ज्यादा कटौती की है. 14वें वित्त आयोग के दौरान यह हिस्सा 4.713 प्रतिशत तय किया था, जोकि अब घटकर 3.647 प्रतिशत हो गया है. तमिलनाडु जैसे अन्य विकसित राज्यों का ऐसा हश्र नहीं हुआ. इस जबरदस्त कटौती को समझने की जरूरत है, लेकिन यह मोदी सरकार की किसी खास साजिश के कारण नहीं है.

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मोदी सरकार ने ऋण नियमों में बदलाव किया है

संविधान के तहत राज्य ऋण जुटाने के लिए स्वतंत्र हैं. हां, राज्य विधानमंडल उसकी सीमा तय करते हैं. साथ ही, किसी भी राज्य को ऋणी होने के लिए केंद्र सरकार की मंजूरी लेनी होती है.

केंद्र सरकार राज्यों की वित्तपोषक रही है और 1990 के दशक तक उन्हें सभी प्रकार के ऋण प्रदान करती रही, जिससे वे अत्यधिक ऋणग्रस्त हो गए और उनकी वित्तीय स्थिति बड़े पैमाने पर संकट में आ गई. 2002-03 में अपने बिल भुगतान करने में असमर्थ कई राज्यों को महीनों तक अपने खजाने बंद करने पड़े.

केंद्र ने 2005-06 में राज्यों को ऋण देना खत्म कर दिया और एक नियम आधारित पहल की. इसके तहत राज्य अपनी राजकोषीय जिम्मेदारियों के हिसाब से और वित्त आयोग की तरफ से तय सीमा, जो भी ज्यादा हो, उतना ही ऋण ले सकते हैं.

इसके बाद से राज्य अपने राजकोषीय घाटे के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि मोदी सरकार लगातार अपनी राजकोषीय घाटे की सीमा का उल्लंघन कर रही है. सरकार ने तीन बड़े बदलाव किए हैं जिससे राज्यों की उधार लेने की क्षमता कम हो रही है.

सबसे पहले, उसने कोविड की अवधि और उसके बाद अतिरिक्त उधारी के लिए कई मनमानी शर्तें लगा दी हैं, जिनमें से एक बिजली क्षेत्र से जुड़ी है. दूसरा उसने राज्यों के कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों और संस्थाओं द्वारा जुटाई गई राशि के लिए अपनी वार्षिक उधार सीमा को कम करना शुरू कर दिया. तीसरा, उसने राज्यों को पूंजीगत व्यय ऋण के नाम पर उधार देना फिर से शुरू कर दिया है, और कई राजनैतिक शर्तें लगा दी हैं, जैसे सीएसएस (केंद्र प्रायोजित योजनाओं) का नाम न बदलना.

इन शर्तों ने विपक्षी सरकार का जीना दुश्वार कर दिया है.

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केंद्रीय अनुदानों के वितरण पर राजनीति हावी

केंद्र कई मनमाने और वैकल्पिक अनुदान देता है, ज्यादातर सीएसएस के रूप में. 14वां वित्त आयोग चाहता था कि केंद्र इन अनुदानों को कम करे, ताकि समग्र केंद्रीय व्यय प्रभावित न हो, और साथ ही केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा भी बढ़े.

लेकिन अनुदान, केंद्र के हाथों का राजनैतिक हथियार होते हैं. शुरुआत में मोदी सरकार ने राज्यों के हिस्से को बढ़ाकर अनुदान को कम करने की कोशिश की, जिससे उसके कार्यकाल के पहले तीन वर्षों में अनुदान में कुछ कमी आई.

हालांकि, अनुदान कम करने का मतलब यह है कि राज्यों में केंद्र सरकार का राजनैतिक असर कुछ कम होगा. इसीलिए अनुदान नए नामों के साथ वापस आए, ज्यादातर मामलों में, "प्रधानमंत्री" के उपसर्ग को जोड़कर. मिसाल के तौर पर, आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, पीएम किसान आदि.

इसका सियासी पैगाम साफ था. योजनाओं या अनुदानों को प्रधानमंत्री मोदी के तोहफे के तौर पर प्रचारित किया गया. राज्यों को योजनाओं के नाम बदलने से रोका गया, हालांकि, कई मामलों में, राज्यों ने योजना लागत का 50 प्रतिशत से अधिक का योगदान दिया.

बीजेपी शासित राज्यों को इसमें क्या परेशानी थी. लेकिन विपक्षी राज्यों को यह संदेश अखरा. कुछ राज्यों ने तय किया कि हम इनमें से कुछ योजनाओं को लागू नहीं करेंगे. कुछ ने पुराने नाम बहाल रखे या अपने राज्यों में संदेशों में कुछ बदलाव करने की कोशिश की.

इसके अपने परिणाम हुए. कुछ मामलों में केंद्रीय एजेंसियों ने खास योजनाओं के कार्यान्वयन की जांच शुरू कर दी जिससे विपक्ष शासित राज्यों में धनराशि के प्रवाह पर असर हुआ. जाहिर सी बात है, विपक्षी सरकारों ने शिकायत करनी शुरू की.

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राज्य सचमुच 'डबल इंजन' की सरकार बनाना चाहते हैं, केंद्र के ट्रैक्टर की ट्रॉली नहीं

भारतीय संविधान के तहत देश में राजकोषीय संघवाद की परिकल्पना की गई है. चूंकि राज्य मुख्य रूप से विकास के लिए जिम्मेदार हैं, इसलिए उनकी व्यय संबंधी जिम्मेदारियां उनके संसाधनों से अधिक हैं. स्वतंत्र वित्त आयोग इस बेमेल स्थिति में संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं. केंद्रीय अनुदान अपवाद माने जाते हैं.

मोदी सरकार ने उपकरों और अधिभारों का ज्यादा इस्तेमाल करके, केंद्र से राज्यों तक संसाधनों के बहाव में रुकावट पैदा की है. राज्यों के लिए उधार लेने की शर्तें तय करके, और उधार लेने की सीमा के सूक्ष्म प्रबंधन से राज्यों की परेशानियां बढ़ी हैं. तिस पर पूंजीगत व्यय ऋण को डिजाइन ही ऐसे किया गया है कि राज्य केंद्र सरकार के मातहत ही रहें. और, केंद्रीय अनुदान प्रधानमंत्री के प्रचार के तौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं.

राज्य विकास के दूसरे इंजन होते हैं. जबकि बीजेपी शासित राज्यों को इसमें कोई दिक्कत नहीं कि वे दूसरे इंजन की बजाय ऐसी ट्रॉली बन जाएं जोकि ट्रैक्टर के पीछे-पीछे चल पड़े. लेकिन विपक्षी राज्य, सचमुच डबल इंजन की सरकार के तौर पर काम करने चाहते हैं, और इसीलिए अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं.

भारत में केंद्र और राज्य के बीच फिस्कल फेडरलिज्म की अवधारणा काम करती है, जहां केंद्र और राज्य अपने अपने हिसाब से वित्तीय फैसले करें, लेकिन फिलहाल यहां ऐसा फिस्कल यूनियनिज्म काम कर रहा है जिसमें केंद्र की तूती बोलती है. इस बदलती हुई व्यवस्था में नाखुशी और नाराजगी लाजमी है जो आने वाले समय में बढ़ सकती है.

(लेखक भारत के पूर्व आर्थिक मामलों के सचिव और वित्त सचिव हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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