कांग्रेस के लिए गुजरात से आगे का रास्ता किधर जाता है? लाख टके का ये सवाल इन दिनों राष्ट्रीय विमर्श का प्रमुख हिस्सा है. क्या गुजरात में बीजेपी को कड़ी टक्कर देकर सम्मानजनक तरीके से हारने वाली कांग्रेस 2019 में पीएम मोदी को टक्कर देने के लिए तैयार हो गई है? क्या कांग्रेस को वो संजीवनी मिल गई है, जिसकी दरकार राहुल गांधी को कई सालों से थी? क्या गुजरात ने राहुल को पीएम मोदी के विजय रथ को रोकने का आत्मविश्वास दे दिया है? क्या राहुल गांधी 2019 में पीएम मोदी के सामने बडे़ चैलेंजर साबित होंगे.
इन सवालों के जवाब काफी कुछ इस बात पर निर्भर करते हैं कि अगले चार विधानसभा चुनाव कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में कैसे लड़ती है?
राहुल के पीएम मोदी के सामने 2019 में चैलेंजर बनने की कहानी इन चार विधानसभा में कांग्रेस की चुनावी रणनीति पर टिकी है. इसके साथ ही कांग्रेस की नैरेटिव उसकी आक्रामकता उसके चुनाव जीतने की भूख पर भी बहुत कुछ टिका है.
2019 के लोकसभा चुनाव को जीतने या कम से कम सम्मानजनक स्कोर तक पहुंचने के लिए राहुल को चारों विधानसभा चुनाव में चैलेंजर बनकर वोटर के दिल में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाना होगा.
आज की तारीख में जैसे ही यह सवाल आप अलग-अलग समूहों से पूछेंगें कि लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए आपकी पहली पसंद कौन होगा? मोदी या राहुल? ज्यादातर लोगों का जवाब होता है मोदी. अभी भी मतदाताओं का बड़ा प्रतिशत मोदी के साथ है. गुजरात से राहुल गांधी की राजनीतिक इक्विटी बढ़ी है, पर वोटर के दिलो दिमाग पर अभी भी उनकी मोदी जैसी स्वीकार्यता और कनेक्ट नहीं है. तो फिर राहुल और कांग्रेस के लिए मोदी को पटकनी देने का रास्ता क्या है?
लोकसभा नहीं अभी विधानसभा चुनाव पर ध्यान दें राहुल
गुजरात के नतीजे यह बताते हैं कि अगर गुजरात में यूपी की तरह त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय मुकाबला होता, तो बीजेपी आसानी से पटेलों और किसानों की नाराजगी के बाद भी बड़ी जीत हासिल कर लेती. जैसा जाटों की नाराजगी के बाद भी आसानी से यूपी में बीजेपी ने बड़ी जीत हासिल कर ली थी. तो सार ये है कि जहां मोटे तौर पर कांग्रेस और बीजेपी के बीच चुनावी मुकाबला है, वहां अगर कांग्रेस पूरा जोर लगाए तो बीजेपी को कमजोर कर लक्ष्य के नजदीक जा सकती है.
गुजरात के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए बड़ा राजनीतिक अवसर राजस्थान, मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में है. कर्नाटक को छोड़कर तीनों राज्यों में बीजेपी कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है और जहां वोट बंटने का खतरा नहीं है.
मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक में पीएम का व्यक्तिगत कनेक्ट गुजरात जैसा नहीं
चारों राज्यों में कांग्रेस के पक्ष में कई बातें है. गुजरात से उलट चारों राज्यों में कांग्रेस के पास मजबूत स्थानीय नेतृत्व है. चारों राज्य गुजरात की तरह शहरीकृत नहीं है. इन राज्यों में बड़ी आबादी ग्रामीण है. जहां कांग्रेस का स्ट्राइक रेट बेहतर रहा है. कृषि का संकट मध्यप्रदेश और राजस्थान में विकराल है. बीजेपी सरकारों की अपनी एंटीइनकैबैंसी भी है और सबसे बड़ी बात इन राज्यों में मोदी का व्यक्तिगत कनेक्ट वैसा नहीं है, जैसा सूरत राजकोट में था, जहां जीएसटी के खिलाफ आंदोलन करने के बाद भी व्यापारियों ने अंत में पीएम मोदी के नाम पर वोट दिया.
इन राज्यों में कांग्रेस अगर गुजरात जैसा प्रदर्शन भी दोहराने में सफल हो जाती है, तो बीजेपी के लिए लोकसभा चुनाव में 2014 दोहराना मुश्किल हो जाएगा.
राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार के खिलाफ एंटीइनकैबैंसी काफी है. और जयपुर में कहते हैं वसुंधरा को सिर्फ महिलाओं का एकतरफा वोट ही चुनाव में बचा सकता है. कांग्रेस ने निकाय चुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया है. 2013 के विधानसभा चुनाव के 12 प्रतिशत की खाई को कांग्रेस एंटीइनकैबैंसी के सहारे आसानी से पाट सकती है. 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 45 प्रतिशत और कांग्रेस को 33 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन छत्तीसगढ़ में 2013 में 39 सीट हासिल करने वाली कांग्रेस का वोट प्रतिशत बीजेपी से महज 0.7 कम है. बीजेपी को 49 सीट मिली थी .
छत्तीसगढ़ कांग्रेस नेतृत्व की अपनी समस्याएं हैं, लेकिन राहुल में जीतने की भूख हो तो कांग्रेस बाजी पलट सकती है. कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश में भी अवसर है बशर्ते सिंधिया, दिग्विजय, कमलनाथ मिलकर शिवराज का मुकाबला करें. कर्नाटक में सिद्दारमैया उतने कमजोर नहीं हैं, जितना बीजेपी प्रचारित कर रही है .
सिर्फ गठबंधन नही नैरेटिव बड़ा करें राहुल
गुजरात में हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के साथ गठबंधन से कांग्रेस को सम्मानजनक हार तो मिली पर जरूरी जीत नहीं. बीजेपी को कड़ा मुकाबला देने के लिए जरूरी है इन राज्यों में चुनाव का दो धुव्रीय रहना और कांग्रेस का अपने सामाजिक जातीय फुटप्रिंट का विस्तार करना. चुनाव जीतने के लिए जरूरी है बडे़ राजनीतिक आख्यान नैरेटिव का होना, जिसकी कमी राहुल गांधी और कांग्रेस के पास है.
नैरेटिव में ही बहुसंख्यकों को मतदान केंद्र तक खींचकर लाने की ताकत होती है.
यूपी में समाजवादी पार्टी और बंगाल में सीपीएम से गठबंधन के बाद भी कांग्रेस को इन दोनों राज्यों में कोई खास सफलता नही मिली थी. किसानों की नाराजगी पार्टी को ओपनिंग बैलेंस तो दे सकती है पर बडे़ स्कोर के लिए किसान, मजदूर, आदिवासी के साथ शहरी मध्यमवर्ग का भी वोट करना उतना ही जरूरी है जो कि गुजरात में नहीं हुआ. गुजरात में अगर एक भी बड़ा शहर कांग्रेस को वोट कर रहा होता, तो कांग्रेस आज सत्ता में होती.
ब्रांड मोदी को हराने के लिए राहुल को ब्रांड राहुल बनना होगा
राहुल गांधी को अपना नैरेटिव सिर्फ मोदी सरकार की आर्थिक नाकामी और किसानों की समस्या के इर्द-गिर्द रखने से काम नही चलेगा. राहुल की सोच में नयापन ताजगी और नई हवा का झोंका होना चाहिये. ब्रांड मोदी को हराने के लिए राहुल को ब्रांड राहुल बनना होगा. नाकामियों को अवसरों में तब्दील करने का ब्लू प्रिंट जनता को देना होगा.राहुल को सिर्फ छोले भटूरे पेश करने से काम नहीं चलेगा, उन्हें थाली परोसनी होगी, जहां सबके लिए कुछ न कुछ हो.
राहुल का कैंपेन केंद्र की नाकामी और सुनहरे भविष्य के सपने की सॉलिड बुनियाद पर टिकी होनी चाहिये. ग्रामीण भारत और शहरी भारत के सपनों को पूरा करने के एजेंडे के आसपास राहुल का कैंपेन होना चाहिए.
चेंज एजेंट बने राहुल गांधी
कांग्रेस को यह जवाब खोजना चाहिए कि जीएसटी नोटबंदी की मार के बाद भी शहरी मध्यमवर्ग व्यापारी वर्ग मोदी को क्यों वोट देता है? क्यों सूरत और राजकोट अकेले मोदी को हारने से बचा लेता है? वो गलतियों के लिए मोदी को सबक तो सिखाना चाहता है पर हराना नही. अभी भी उसकी उम्मीदें मरी नहीं है, अभी भी उसे मोदी में उम्मीद दिखती है. घंधे-रोजगार आर्थिक उन्नति का उसका सपना राहुल गांधी के एजेंडे से मेल नही खाता.
राहुल गांधी को 2019 में मोदी को चुनौती देने के लिए 2014 के मोदी की तरह चेंज एजेंट बनना होगा. राहुल मध्यमवर्ग को अपने आर्थिक विशेषज्ञों टेक्रनोक्रेट की टीम के जरिये आर्थिक प्रगति रोजगार का ब्लू प्रिंट देकर मोदी के नैरेटिव को चुनौती दे सकते हैं. राहुल गांधी किसानों मजदूरों की पीड़ा को आवाज देने के लिए किसी खास कॉरपोरेट घराने पर हमला करें पर मध्यमवर्ग व्यापारियों के बीच राहुल की उद्योग विरोधी छवि उन्हें शहरी मध्यमवर्ग से कनेक्ट नही बनाने देगा. रोजगार की तलाश में गांवों से शहर आए मध्यमवर्ग के लिए ऐसे उद्योग प्रतिष्ठान किसी आइकॉन से कम नहीं है.
बूथ मैनेंजमेंट
सोशल मीडिया पर अपनी पकड़ बनाने और गुजरात में बेहतर बूथ मैनेंजमेंट करने के बाद भी बीजेपी के बूथ मैनेंजमेंट के सामने कांग्रेस का बूथ मैनेजमेंट उतना मजबूत नहीं है.
सबसे पुराना संगठन होने के बावजूद आधी लड़ाई कांग्रेस अपने लचर संगठन और बूथ मैनेंजमेंट के कारण हर चुनाव में हार जाती है. तो कांग्रेस की पहली चुनौती अपने संगठन का बीजेपी की भांति निचले स्तर तक विस्तार होना चाहिए. बूथ मैनेजरों से केंद्रीय नेतृत्व का संवाद चुनाव केंद्रित न होकर लगातार चलना चाहिए.
बॉलीवुड में केवल ओरिजिनल फिल्में बाक्स अॉफिस पर हिट नहीं होती उनकी रीमेक भी उतना ही पैसा कमाती है. बीजेपी कैंपेन की कुछ अच्छी बातों को कॉपी करने में कोई बुराई नहीं. अगर शत्रु को उसके ही अस्त्रों से पराजित करना हो.
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