कुछ दिन पहले मैंने एक ट्ववीट किया था कि एक तरफ सुप्रीम कोर्ट धीरे-धीरे सामाजिक अन्यायों को खत्म कर रही है, दूसरी तरफ मार्केट के दबाव की वजह से आर्थिक परिवर्तन आ रहा है, वहां शासन का सुधार कौन करेगा?
मैंने ये ट्वीट इसलिए किया था कि इत्तेफाक से मेरा सारा जीवन आईएएस-आईएफएस ऑफिसर्स के बीच में ही गुजरा है. मेरे पिता जी 1949 में आईएएस में भर्ती हुए थे. उनके भाई 1948 में. और अगले 30 साल में परिवार के 5 और सदस्य आईएएस में भर्ती हो गए.
इसके अलावा मेरे बड़े भाई आईएफएस में थे. मेरे चचेरे भाई, जो पाकिस्तान में राजदूत थे. जब मोदी जी अचानक क्रिसमस के दिन लाहौर पहुंच गए थे , वो भी आईएफएस में थे. आईपीएस और इनकम टैक्स सर्विस में भी एक-दो रिश्तेदार थे.
फिर रही दोस्तों की बात. 1970 और 1976 के बीच में, डेढ़ दर्जन दोस्त आईएएस में आ गए. उन दिनों, यानी कि 1970 के दशक में, और कोई नौकरी ही नहीं मिलती थी. जिसका चांस आईएएस/आईएफएस/आईपीएस में लग गया वो मानो सिकंदर बन गया.
अब सब रिटायर हो गए हैं. इस संगत का एक नतीजा यह हुआ कि नौकरशाही के मामलों में मैं काफी ज्ञानी बन गया.
मालिक से नौकर
मैंने भी 1974 में आईएएस की परीक्षा दी थी, मगर फेल हो गया. ताज्जुब की बात ये है कि मैंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से एमए किया था और मैं इकनॉमिक्स में ही फेल हो गया!
लेकिन हिस्ट्री में, जिसका मुझे कोई ज्ञान या अंदाजा नहीं था, कुंजी पढ़कर बहुत नंबर आये थे. बड़ा अजीबोगरीब इम्तेहान था उन दिनों. फेल होने पर बहुत बुरा लगा था. पर अब 35 साल के बाद लगता है कि मेरी जान बच गई.
स्वभाव से मैं बिलकुल फिट नहीं हो पाता किसी भी सरकारी नौकरी में. ये बात सिर्फ मेरी माता जी समझ पाई थीं. आज तक वो कहती हैं, "तुम बच गए". उन्होंने आईएएस और आईपीएस को बहुत नजदीक से देखा है. जिस तरह आईएएस और आईपीएस बदल गए हैं, वो हैरान रहती हैं.
उस जमाने में दोनों मालिक हुआ करते थे, पर इमरजेंसी के बाद दोनों नौकर बन कर रह गए हैं. जरा सोचिये, एक जमाना था जब वो देश को मैनेज करते थे. पर अब उन्हें नेताओं को मैनेज करना पड़ता है. और ज्यादातर नेता, अपने पेशे के कारण जाहिल होते हैं. उन्हें अपने स्वार्थ के सिवा और कुछ नहीं दिखता.
आईएएस वालों का आधा वक्त उन्हें टालने में निकल जाता है. टालने के दो अहम तरीके हैं. एक है ‘फाइल को घुमाना’, मतलब चक्कर में डालना. दूसरा है ‘फाइल को गुमाना’,यानी दफना देना.
पर इसका नतीजा बहुत बुरा हुआ है. चलते-चलते ये एक आदत बन गई है, ताकि कोई फैसला नहीं लेना पड़े. कोई भी काम हो, सही या गलत...नहीं हो पाता है. इस प्रणाली के सामने बड़े बड़े नेताओं ने घुटने टेक दिए हैं.
1987 में राजीव गांधी से एक अमेरिकी पत्रकार ने पूछा कि आप पायलट और पीएम में अब क्या क्या फर्क देखते हैं? राजीव का जवाब एक हारे हुए आदमी का था. उन्होंने कहा:
जब मैं पायलट था और बटन दबाता तो जहाज तुरंत आज्ञा का पालन करता था. अब मैं हुक्म देता हूं तो कुछ भी नहीं होता.
काम है कुछ और करना कुछ पड़ता है
आईएएस और आईपीएस दो तरह के काम करते हैं. पहला उनका मूल कार्य है, जिसके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की कन्वेनेंटेड सर्विस 1806 में बनी थी और फिर जो 1857 के बाद आईसीएस में बदल गई. दोनों का काम जिले को मैनेज करना था और लैंड रेवेन्यू कलेक्ट करना था. इसीलिए कलेक्टर नाम पड़ा था.
1900 में आईसीएस को दूसरा काम सौंपा गया था. वो था पॉलिसी बनाने का जो राजधानी में होता था. फिर 1947 में जब आईएएस बनी, तो उसे मंत्रालयों को भी मैनेज करने को कहा गया. धीरे धीरे इसमें मंत्री को मैनेज करना भी जुड़ गया.
अगर आप थोड़ा सोचेंगे तो समझ जाएंगे कि इन दो कार्यों के लिए दो अलग-अलग स्किल्स चाहिए. लेकिन आईएएस में ये बात नहीं मानी जाती. ढेर सारे बहाने बनाए जाते हैं.
इसका नतीजा ये हुआ है कि जो सबसे अहम काम है- जिले को मैनेज करना, वो सबसे जूनियर अफसर करते हैं. और जो प्रशासनिक लिहाज से गैर-जरूरी काम हैं वो सीनियर अफसर. ये एक बहुत बड़ी वजह है, जिसके कारण जिलों का इतना बुरा हाल है. यही नहीं, जूनियर अफसरों को जिले में सबसे जाहिल नेताओं का सामना करना पड़ता है. आईपीएस का भी यही हाल है.
मेरा सुझाव ये है कि केंद्र सरकार को अपनी एक अलग सीनियर सर्विस बनानी चाहिए, जो सिर्फ पॉलिसी मैनेज करेगी. ( सेंट्रल सेक्रेटेरिएट सर्विस है तो जरूर, पर वो एक सर्विसिंग फोर्स है).
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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