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चंडीगढ़ करे राजनीति! लेकिन विपक्ष है कि सीखता नहीं

चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव में हुए अनुभव विपक्षी पार्टियों के लिए कई सीख देते हैं

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अरविंद केजरीवाल और आयुष्मान खुराना में क्या समानता है? किसी के लिए दोनों ही नाम में AK हैं, लेकिन यह कुछ हद तक मामूली बात है. वहीं दूसरों के लिए, दोनों ही ने लीक से हटकर साहस के साथ चंडीगढ़ को अपनी ओर खींचा है. आयुष्मान इस फिल्म में बेहद खूबसूरत वाणी कपूर, जो एक ट्रांस-वुमन के किरदार में हैं, के साथ शादी कर पितृ प्रधान रूढ़ियों को तोड़ते दिखाई देते हैं (इस फिल्म को नेटफ्लिक्स पर देखा जा सकता है). केजरीवाल ने भी एक शानदार काम किया है. चंडीगढ़ के स्थानीय चुनावों को जीतकर, उस राजनीतिक रूढ़ी को तोड़ा है जहां लंबे समय से बीजेपी और कांग्रेस के बीच दो ध्रुवों का मुकाबला ही समझा जाता था. उनकी आप (आम आदमी पार्टी) ने बीजेपी (12 सीटों) और कांग्रेस (8 सीटों) को पछाड़ते हुए नगर निगम में 14 सीटों पर कब्जा कर लिया.

अब यहीं पर खुराना केजरीवाल से आगे जाते दिखाई देते हैं. जहां खुराना लड़की और गबरू प्रतियोगिता दोनों जीत जाते हैं, वहीं बेचारे केजरीवाल चंडीगढ़ को शातिर बीजेपी से हार जाते हैं, आखिर क्यों? क्योंकि उन्होंने, फिल्म की तरह, कभी कांग्रेस आला कमान को व्हाट्सएप नहीं किया.

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तो, ऐसे में एक स्पष्ट राजनीतिक रणनीति क्या थी - आप और कांग्रेस को 67:33 के अनुपात में, एक तेज, जुझारू बीजेपी के मुकाबले, गठबंधन को साझा करना चाहिए था. कांग्रेस के एक नेता ने दलबदल किया, आप का एक वोट अमान्य हो गया, बीजेपी के मौजूदा सांसद ने एक निर्णायक वोट दिया, और सात कांग्रेस पार्षदों ने भाग नहीं लिया.

अरविंद केजरीवाल, जो गाना पसंद करते हैं, 1957 की एक कॉमेडी फिल्म 'देख कबीरा रोया' में महान गायक तलत महमूद के उस गीत, जिसकी लाइनें हैं-'हमसे आया न गया, तुम से बुलाया न गया, फासला प्यार में दोनों से मिटाया न गया' को उत्साह के साथ गा सकते हैं- 'हम आप तक पहुंच न सके, आप मुझे फोन न कर सके, हम दोनों में से कोई भी, प्यार में दूरियां कम न कर सके - चंडीगढ़ नगर निगम में बीजेपी ने अपने नेताओं को बिठा लिया था.

जो गलतियों से सबक नहीं लेते, उन्हें दोहराते हैं

जिस ने भी इस प्रतिष्ठित कहावत को लिखा है - चाहे वे आयरिश राजनेता एडमंड बर्क हों या स्पेनिश दार्शनिक जॉर्ज सैन्टायाना या ब्रिटिश प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल - मोदी के बाद के युग में भारत के विपक्षी दलों की दुर्दशा का सटीक हाल बयां करता है. आप में से जो लोग भी हाल के इतिहास को भूल गए हैं, आइए उस पर एक फौरी नजर डालते हैं.

फरवरी 2017: गोवा

गोवा के 40 सदस्यीय सदन में, मनोहर पर्रिकर के शानदार बहुमत वाली 21 सीटों से 13 सीटों पर सिमटकर बीजेपी को एक आश्चर्यजनक हार का सामना करना पड़ा था. कांग्रेस अपनी बहुमत के करीब 17 सीटों के साथ पूरी तरह तैयार नहीं थी. सरकार बनाने के लिए एक बैठक होनी चाहिए थी, खासकर जब महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (MGP) ने पेरनेम, मरकाइम और सैनवोर्डन निर्वाचन क्षेत्रों में बीजेपी के उम्मीदवारों को हराया था. इसके साथ ही विजय सरदेसाई की गोवा फॉरवर्ड पार्टी (GFP) ने तीन सीटों को बीजेपी से छीन लिया था, तब कांग्रेस के नेतृत्व में एक 23 सदस्यीय गठबंधन को तैयार किया जाना चाहिए था. बजाए इसके, कांग्रेस को पाला मार गया, और बीजेपी 'विजेताओं' की नाक तले, धुर विरोधी समझे जानेवाली MGP और GFP से आक्रामक और भद्दे सौदों के बल पर, सरकार बनाने में कामयाब रही.

मार्च 2017: मणिपुर

पश्चिमी तट के गोवा से हजारों मील की दूर उत्तर-पूर्व के मणिपुर बीजेपी ने वही काम किया. कांग्रेस ने 60 सदस्यीय सदन में 28 सीटें जीती थीं, जो बहुमत से महज एक कदम दूर थी. वहीं बीजेपी 21 सीटों के साथ बहुमत के जादुई आंकड़े से काफी दूर थी. ऐसे में कांग्रेस को फिर से शासन करने के लिए केवल एक छोटी पार्टी - शायद कॉनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी - के साथ एक आक्रामक और असरकारक सौदा करने की जरूरत थी. लेकिन कांग्रेस ठिठकी रही और बीजेपी ने सभी छोटे खिलाड़ियों को अपने पाले में कर सरकार बना ली.

अक्टूबर 2019: महाराष्ट्र

इस बार जूता दूसरे पांव में चढ़ गया. 288 सीटों वाली विधानसभा में 106 सीटों के साथ बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. लेकिन यह शिवसेना के साथ एक भयावह गतिरोध में आ गई, जब केवल 58 सीटें जीतनेवाली शिवसना मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने लगी. बात बिगड़ती गई और फिर चतुर शरद पवार ने उद्धव ठाकरे से कहा कि क्यों न बीजेपी के लिए वही किया जाए जो उसने कांग्रेस के साथ गोवा और मणिपुर" में किया. ऐसे में बीजेपी को महाराष्ट्र में अपनी ही कड़वी दवा को निगलना पड़ा. और आजाद भारत में शायद सबसे अप्रत्याशित सरकार बनाने के लिए शिवसेना पूरी तरह से अभूतपूर्व और यहां तक ​​​​कि अपवित्र - राजनीतिक दुश्मनों, कांग्रेस और NCP के साथ गठबंधन में शामिल हो जाती है.

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लेकिन यहां विपक्षी दलों के लिए एक सबक था. वे बच गए क्योंकि वे सरकार में आ गए, उन्हें राजनीतिक सत्ता का स्वाद चखने को मिला. वरना उनके विधायकों का छोटा दस्ता, मंत्रालय (सचिवालय) में निर्दयी बीजेपी के लिए आसान निशाना होता - जैसा की गोवा में हुआ, मणिपुर और चंडीगढ़ में भी.

मेरे बड़े दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त है, भले ही वह मेरा छोटा दुश्मन क्यों न हो!

यह मंत्र काफी जटिल है, एक बार में बोलना भी कठिन.

कांग्रेस के लिए उसका छोटा दुश्मन (आप) एक दोस्त है क्योंकि आप बीजेपी (कांग्रेस की सबसे बड़ी दुश्मन) की दुश्मन है.

शिवसेना के लिए, उसका छोटा दुश्मन (कांग्रेस) एक दोस्त है क्योंकि कांग्रेस बीजेपी (शिवसेना के प्रमुख विरोधी) की दुश्मन है.

तृणमूल कांग्रेस के लिए उसका छोटा दुश्मन (कांग्रेस) दोस्त होना चाहिए क्योंकि कांग्रेस बीजेपी (तृणमूल की कट्टर दुश्मन) की दुश्मन है.

अब, यूपी में, विशाल, उभरते राजनीतिक युद्ध के मैदान में, कांग्रेस को यह महसूस करना चाहिए कि उसका छोटा दुश्मन (समाजवादी पार्टी) एक दोस्त है क्योंकि एसपी बीजेपी (कांग्रेस की सबसे बड़ी दुश्मन) की दुश्मन है.

एक बार जब आप ऊपर दिए गए फॉर्मूले को सरलता के साथ पेश करते हैं - एकदम बच्चों की भाषा में- तो हमारे विपक्षी दलों के लिए समझना आसान हो जाना चाहिए, है ना? नहीं गलत. यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 403 सीटों पर लड़ने के लिए तैयार है. जबकि उसे शक्तिशाली बीजेपी से मुकाबला करने के लिए सपा के हाथों को मजबूत करना चाहिए था. अब अगर इसी तरह की व्यावहारिक समझदारी हमारे विपक्षी दिग्गज दिखाते हैं तो यह देश में बार-बार गोवा-मणिपुर-चंडीगढ़ की जैसी सियासी घटनाएं होती रहेंगी.

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