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कम होते शब्द और बदलता ट्रेंड, अब किताबें बन गईं हैं कंज्यूमर गुड्स

पहले साहित्य की काबिलियत, आप एक वाक्य में कितने शब्द लिख सकते हैं इस बात से तय होती थी.

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आसपास की हर चीज की बुराई करने से ज्यादा मजेदार कुछ भी नहीं. खासतौर पर तब, जब आपकी बुजुर्ग हो रहे हों. मुझ जैसे बुजुर्ग आमतौर पर बदलाव की आलोचना करते हैं, लेकिन बदलाव के प्रति ऐसी सोच और नई चीजों का विरोध आपके अंदर तल्खी भर सकती है.

इससे भी बुरी बात यह है कि यह आदत आपको ऐसे बोर इंसान में बदल सकती है, जिससे हर कोई बचना चाहे. इसलिए मैंने राजनीति को छोड़कर अपने आसपास हो रहे बदलावों का लुत्फ उठाने का फैसला किया है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अतीत में जो भी हुआ, वह अच्छा था क्योंकि यह सच नहीं है.

दरअसल, कुछ साल पहले मेरा ध्यान उपन्यास लिखने के स्टाइल में हो रहे बदलाव पर गया. मैं हिंदी बहुत कम पढ़ता हूं. मैं तमिल हूं, लेकिन अपनी भाषा में भी कम ही चीजें पढ़ता हूं. मैं ज्यादा चीजें अंग्रेजी में पढ़ता हूं. मैंने नोटिस किया कि इंग्लिश में जो उपन्यास लिखे जा रहे थे, उनमें लंबे वाक्य दिखने बंद हो गए थे और छोटे-छोटे वाक्यों का इस्तेमाल बढ़ गया था.

जब हम बड़े हो रहे थे, तब हमें सिखाया गया था कि किसी भाषा पर कमांड का पता इससे चलता है कि आप एक वाक्य में कितने शब्द लिख सकते हैं. हमारे सामने ऐसे एक वाक्य की मिसाल दी जाती थी, जिसमें 47 शब्द थे. एक ऐसे वाक्य के बारे में भी बताया जाता था, जिसमें 87 शब्दों का इस्तेमाल हुआ था. 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के पहले 50 साल में साहित्य की दुनिया की एक जानी-मानी शख्सियत ने ये वाक्य लिखे थे.

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छोटी-छोटी बातें

हालांकि, पिछले तीन दशकों में यह ट्रेंड पूरी तरह बदल गया. अंग्रेजी में उपन्यास पढ़ने वालों की संख्या बढ़ने के साथ वाक्य छोटे होने लगे. 21वीं सदी का यह 17वां साल चल रहा है. इस दौरान मैंने जो भी किताबें पढ़ी हैं, उनमें से किसी में एक वाक्य में 20 से अधिक शब्द नहीं मिले. 20 शब्द भी विरले ही मिलते हैं. अब आमतौर पर एक वाक्य में 12 से 15 शब्द होते हैं.

आप चाहें तो पिछले 20 साल में किसी लेखक की किताब उठाकर इसकी पड़ताल कर सकते हैं. कहानियां पेश करने का तरीका भी बदल गया है. केकी दारूवाला के लिखे शानदार उपन्यास ‘Ancestral Affairs’ को पढ़ते वक्त मुझे इसका शिद्दत से अहसास हुआ. इसमें 1947 में जूनागढ़ के एक पारसी वकील की कहानी है, जिसे देश में हो रहे बदलाव की जानकारी देने के लिए वहां के नवाब के पास भेजा जाता है.

यह किताब छोटे-छोटे वाक्यों की अनोखी मिसाल है. मुझे नहीं पता कि यह दारूवाला का ओरिजनल स्टाइल है या अमेरिकी पब्लिशर ने इसे उन पर थोपा था. लेकिन सच यही है कि पूरी नॉवेल छोटे-छोटे वाक्यों में लिखी गई है और यही बात मायने रखती है.

पिछले कुछ साल में मैंने अंग्रेजी में जो भी उपन्यास पढ़े हैं, उनमें यही स्टाइल दिखा है. यह जापानियों की कविता लिखने की शैली हाइकू की तरह है. इसे कविता लिखने की सबसे मुश्किल शैलियों में से एक माना जाता है क्योंकि एक कविता में 17 से अधिक शब्द नहीं हो सकते.

किताब नहीं कंज्यूमर गुड्स कहिए

अमेरिका में एक और नया ट्रेंड दिख रहा है. पब्लिशर्स यानी प्रकाशक खुद को कंज्यूमर प्रॉडक्ट्स कंपनियों की तरह देखते हैं. इनमें से एक तो खुद को ‘दुनिया का दूसरा बड़ा कंज्यूमर बुक पब्लिशर कहता है.’ कंज्यूमर बुक पब्लिशर क्या बला है? शायद यह किताबों को कंज्यूमर गुड्स की तरह दिखाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला जुमला है.

फिर तो इस पर जीएसटी लगना चाहिए. किताबों को कंज्यूमर गुड्स बनाने के इस फितूर से छोटे वाक्य लिखने का चलन बढ़ा है. हालांकि, सच यह भी है कि छोटे वाक्य होने पर किताब पढ़ने में आसानी होती है.

यह भी लग रहा है कि ये किताबें 6-8 घंटे की फ्लाइट में पढ़ने के लिए ‘तैयार’ की जा रही हैं. इन्हें कम से कम लिखना तो नहीं कहा जा सकता. अगर आपकी यात्रा इससे लंबी है तो ऐसी दो किताबें खरीदनी पड़ेंगी. मैं जिन लोगों को जानता हूं, उनमें से ज्यादातर फ्लाइट के पहले घंटे में कोई सीरियस बुक पढ़ते हैं और बाकी के वक्त में नॉवेल.

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‘शॉर्टहैंड’ का जमाना

इस ट्रेंड की तीन वजहें हैं. पहली, किताबें अब पढ़ी नहीं जा रही हैं बल्कि उन्हें कंज्यूम (उपभोग) किया जा रहा है. अधिकतर रीडर्स सरसरी तौर पर नॉवेल पढ़ते हैं और बस उसकी मुख्य बातों को याद रखना चाहते हैं. वे लिखने की शैली का लुत्फ उठाने की कोशिश नहीं करते या शायद उनमें इसकी योग्यता नहीं है.

इसके लिए उपन्यास को सहज होना चाहिए, कुछ वैसा ही जैसे दक्षिण कोरिया की डिश किमची है. दूसरी, किताब पढ़ने में समय लगता है. लोगों को ट्रैवल या छुट्टियों के दौरान ही इसके लिए समय मिल पाता है. यात्रा और छुट्टियां बहुत लंबी नहीं होतीं और लोग किताबों को कंज्यूम करना चाहते हैं यानी आखिर में क्या हुआ, यह जानना चाहते हैं, इसलिए लिखने की शैली ऐसी होनी चाहिए, जो आसानी से समझ आ सके.

तीसरी और शायद सबसे जरूरी बात यह है कि अंग्रेजी भाषा अब चाइनीज की तरह हो गई है, जिसमें अगर 1,800-2,000 शब्द जानना काफी होता है. अंग्रेजी में भी अब आपको 1,000-1,500 शब्द ही जानने की जरूरत है. शायद कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है और मानव सभ्यता का इतिहास भी यही है.

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