ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘छपाक’ के सबक समाज की ‘सर्जरी’ की जरूरत बताते हैं...

छपाक देखते हुए गला सिसकियों से रुंध जाता है. देह में सनसनाहट दौड़ती है.

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
  • एक लड़की अपनी दोस्त से इसलिए नाराज हो गयी क्योंकि उसकी दोस्त ने वो सेल्फी इंस्टा पर पोस्ट कर दी थी जिसमें वो जरा कम अच्छी लग रही थी.
  • एक दुल्हन ने रो-रोकर बुरा हाल कर दिया था कि पार्लर वाली ने उसका मेकअप खराब कर दिया था.
  • उस रोज घर आये मेहमानों के आगे जाने से एक लड़की ने इनकार कर दिया क्योंकि वो सिर में तेल चुपड़ के बैठी थी.
  • उसका रंग सांवला था, वो चुपके-चुपके बादाम घिस कर लगाने से लेकर फेयरनेस क्रीम तक लगाया करती थी और अकेले में रोया करती थी.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

मामूली सी नजर आने वाली ये बातें हमारे आसपास की ही हैं. ‘छपाक’ फिल्म देखते हुए महसूस होता है कि ये वजहें कहां तक सही हैं. सुंदर दिखना क्यों इतना अहम बना दिया गया है. उसी सुदंरता पर हमला करके एक जिंदगी को जिंदगी से बाहर करने की घिनौनी हरकत करता है समाज.

स्त्री को उसकी सुंदरता और यौनिकता भर में इस कदर जकड़ दिया गया है कि, संपूर्ण हिंसक पितृसत्तात्मक समाज पूरी कुंठा चाइल्ड अब्यूज, रेप या एसिड अटैक के जरिये निकालने में ही जुटा है. इसमें हमलावर को बचाते लोग, सिस्टम और कानून हमलावर से कम दोषी नहीं हैं.

छपाक देखते हुए गला सिसकियों से रुंध जाता है. देह में सनसनाहट दौड़ती है. क्योंकि जो परदे पर चल रहा था वो लिखी हुई कहानी नहीं, भोगा हुआ सच था. अखबारों की कतरनों में खबर को पढ़ना और उसे जिंदगी पर गुजरते हुए महसूस करना दो बहुत अलग बाते हैं. छपाक उस दूरी को पाटती है.

कैसे और क्या लिखूं फिल्म के बारे में?

कैसे लिखूं फिल्म पर, क्या लिखूं कि फिल्म अच्छी है, विक्रांत और दीपिका की एक्टिंग अच्छी है. निर्देशन कमाल का है और मेकअप वर्क जो कि इस फिल्म की जान है वह भी बहुत अच्छा है. क्या कहूं कि गुलज़ार का लिखा गीत ‘कोई चेहरा मिटा के, और आंख से हटा के, चंद छींटे उड़ा के जो गया, छपाक से पहचान ले गया’ दिल को झकझोर देता है. नहीं...यह सब लिखने का मन नहीं है.

'जेहन में फ्रीज हो गई हैं फिल्म के ये दृश्य'

मेरे जेहन में तो फिल्म के कुछ दृश्य फ्रीज हो गए हैं. वो पहला दृश्य जब पीले और गुलाबी सलवार कमीज में सड़क पर चलती लड़की अचानक सड़क पर गिर पड़ती है, तड़पने लगती है, वो तड़पना अब तक जारी है. उसकी चीखें कानों में अब तक जा रही हैं.

अदालत का वो दृश्य जब राजेश, लड़की का वो दोस्त जिस पर इतने बड़े हादसे के बावजूद मालती को भरोसा है कि ‘वो ऐसा क्यों करेगा’अपने बयान से मुकर जाता है. वो लड़की जो एसिड अटैक में शामिल है. उसके चेहरे के भाव और आंखों से झांकता कमीनापन भुलाये नहीं भूलता. एसिड अटैक करने वाले बशीर के घर की औरतें जो मालती को हेय दृष्टि से देखती हैं और बशीर का साथ पूरी निर्लज्जता से देती हैं. बशीर की शादी का लड्डू मालती के भाई के मुंह में ठूंसने वाली वो औरत. मालती के भाई का मजाक उड़ाते दोस्त. वकील जो मालती के खिलाफ केस लड़ रहा है और उसके सवाल. मालती से बेतुके सवाल पूछते रिपोर्टर.

एक दृश्य जहां एसिड अटैक की विक्टिम पिंकी राठौर की मृत्यु हो जाती है और कोने में चुपचाप खड़ी मालती धीरे से कहती है कि ‘मुझे इससे जलन हो रही है.’ इन सबके बीच लक्ष्मी अग्रवाल जिन पर यह फिल्म बनी है एक रियलिटी शो में उनका यह कहना कि ‘जब मैं हिम्मत करके घर से बाहर निकली तो सबसे ज्यादा नकारात्मकता महिलाओं से मिली.’

‘छपाक’ सिर्फ फिल्म नहीं है आईना है जो हम सबके सामने रखा है. स्त्रियों के सामने भी पुरुषों के सामने भी, जो फिल्म का बायकॉट कर रहे हैं उनके लिए तो बस एक ही बात मन में आती है कि कितना अच्छा होता कि आप तेजाब की खुलेआम बिक्री को बायकॉट करते. 
ADVERTISEMENTREMOVE AD

'स्त्रियां कब इन साजिशों को समझेंगी'

फिल्म के बहाने हम सबके अंदर पल रहे न जाने कितने नासूर बह निकलने को बेताब हैं. कुछ सवाल हैं जो नए नहीं हैं कि सुंदर होना होता क्या है आखिर, सुंदर होने के तथाकथित सामजिक मायने इतना ऊंचा ओहदा कैसे पा गए. कोई चिढ, कोई गुस्सा इतना कैसे बढ़ जाता है कि मानवीयता की सारी हदें पार कर जाता है. और एक अंतिम सवाल जो शायद पहला होना चाहिए था कि स्त्रियां कब इन साजिशों को समझेंगी. कब वो एक-दूसरे की दोस्त बनेंगी. सुख दुख की साझीदार बनेंगी. हां, जानती हूं कि स्त्रियों के इस जकड़े हुए व्यवहार के लिए भी वो खुद जिम्मेदार नहीं हैं. यह सब एक बड़ी पितृसत्तात्मक साजिश है लेकिन व्यक्तिगत तौर पर भी तो हमें इन साजिशों को बेनकाब करने की ओर बढ़ना होगा. कोई भी सत्ता कोई भी बहकावा, कोई भी प्रलोभन हमें मानवीय होने से कैसे रोक सकता है.

किसी एसिड अटैक सरवाइवर या रेप सरवाइवर, चाइल्ड अब्यूज विक्टिम को लेकर हम सबको निजी तौर पर अपने रवैये को खंगालने की सख्त जरूरत है. 

'फिल्म तीन बातों की ओर इशारा करती है'

छपाक तीन बातों की ओर इशारा करती है एक क्राइम के खिलाफ लड़ने की. दूसरी क्राइम न हो इसकी मजबूत व्यवस्था करने की और तीसरी हम सबको अपने भीतर झांककर देखने की और ज्यादा मानवीय होने की ओर बढ़ने की. अगर हम एसिड अटैक विक्टिम या रेप विक्टिम से बात करते हैं उन्हें गले लगाते हैं तो क्यों खास महसूस करते हैं और हमने कुछ खास किया है ये उन्हें भी क्यों महसूस कराते हैं. किसी को नॉर्मल फील कराने के लिए हमें खुद उनके लिए नॉर्मल होना सीखना होगा. एक-दूसरे का हाथ मजबूती से थामना होगा.

याद यह भी रखना होगा कि जो लड़कियां पढ़ रही हैं, बढ़ रही हैं, सपने देख रही हैं, अपनी बात कह रही हैं वो खटक रही हैं. हालांकि, रेप या चाइल्ड अब्यूज के मामले में तो छह महीने की बच्ची भी निशाने पर है. लड़की होना पहले ही गुनाह सा बना रखा था समाज ने अब बोलने वाली, सोचने वाली, सपने देखने वाली लड़कियां कैसे सहन होंगी भला. 

महज फिल्म भर नहीं है ‘छपाक’. यह समाज की सर्जरी की जरूरत की ओर इशारा करती है. विक्रांत मैसे का फिल्म में और आलोक दीक्षित का लक्ष्मी अग्रवाल के साथ खड़े होना यह भरोसा देता है कि यह सफर सिर्फ स्त्रियों का नहीं है. बहुत सारे सवालों को उठाती, झकझोरती यह फिल्म सकारात्मक सफर की, हिम्मत की है, हौसले की फिल्म है. मिलकर किसी भी मुश्किल से बाहर निकलने की है, हालात कैसे भी हों जीने की इच्छा से भरे रहने की, जिन्दगी की ओर कदम बढ़ाने की, मोहब्बत पर यकीन करने की फिल्म है.

(लेखिका युवा साहित्यकार हैं. लम्बे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद इन दिनों सोशल सेक्टर में कार्यरत हैं)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×