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भारत के लिए पाकिस्तान नहीं, अब चीन है मुख्य खतरा,परमाणु सिद्धांत में बदलाव जरूरी

China के मामले में क्या हमें परमाणु हथियारों के ‘पहले इस्तेमाल नहीं’ के सिद्धांत को छोड़ देना चाहिए?

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30 साल पहले 1992 में जॉर्ज तैनहम ने भारत (India) की ‘रणनीतिक सोच में कमी’ को ध्यान में रखते हुए गड़बड़ी पैदा करनी शुरू कर दी थी. तैनहम ने दिल्ली (Delhi) की ‘प्रतिक्रियाशील’ प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हुए रणनीतिक संस्कृति की कमी को ‘ऐक्टिव’ विजन या पहले से निर्धारित सिद्धांतों के विपरीत कहा था. उम्मीद के मुताबिक इससे कई लोग नाराज हुए थे. हालांकि कई प्रोफेशनल और गैर राजनीतिक विचारकों ने चुपचाप इस बात को मान लिया था.

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पूर्व सेना अध्यक्ष जनरल के सुंदरजी जो कभी किसी के दबाव में नहीं आए, जिन्होंने दरअसल एडमिरल आर एच ताहिलियानी के साथ मिलकर भारत का परमाणु सिद्धांत लिखा, ऐसे ही एक चिंताशील विचारक थे. 1993 में जनरल सुंदरजी ने उपन्यास (हंगामेदार) 'ब्लाइंड मेन ऑफ हिंदोस्तान' लिखी जिसमें उन्होंने भारत की परमाणु नीति की तुलना नेत्रहीन व्यक्ति से की जो हाथी के अंगों को छूकर उसकी गलत व्याख्या करते हैं.

आज के अति देशभक्ति के दौर में जब राष्ट्रीयता के विचार, कट्टरपंथी पहचान के साथ खतरनाक रूप से जोड़ दिए जाते हैं, एक अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक के इस तरह के गंभीर और चेतावनी भरे दृष्टिकोण का विरोध होगा. लोग प्राचीन भारत की शासन कला, रणनीति और दर्शन पर लिखी किताबों की तरफ़ इशारा करेंगे.

2001 के बाद भारत ने क्या किया

लेकिन शासन कला कोई नाट्य शिल्प नहीं है-दोनों पूरी तरह से अलग-अलग जरूरतों और उद्देश्यों से पैदा हुए हैं. इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि तथाकथित ‘राजनीतिक ताकत’ कभी भी लगातार विकसित होने वाले सुरक्षा सिद्धांतों (विशेष रूप से परमाणु सिद्धांतों) की भरपाई नहीं कर सकती हैं जो जियोपॉलिटिक्स, जियोस्ट्रेटेजी और बदलते सुरक्षा हिसाब में उग्र मंथन का जवाब होते हैं.

समय के साथ भारत की कथित ‘रणनीतिक सोच की कमी’ में कितना बदलाव आया है, इसके लिए पक्षपात नजरिए से परे तथ्यों के एक गैर राजनीतिक और गंभीर मूल्यांकन की आवश्यकता है और वहां वास्तविक तस्वीर बहुत आश्वस्त करने वाली नहीं है.

याद रखें, भारत ने पिछली बार रणनीतिक सिद्धांतों के मामले में मौलिक और मजबूती से प्रतिक्रिया 2001 में (ऑपरेशन पराक्रम के कारण) संसद पर आतंकवादी हमले के मद्देनजर की थी. इसके परिणामस्वरूप हमने 'कोल्ड स्टार्ट' का सिद्धांत पेश किया. यह भारत के पुराने काम करने से तरीके से अलग था और इसका उद्देश्य पाकिस्तान के बार-बार के परमाणु संकेतों का सीधा मुकाबला करना था.

हालांकि इसने मौलिक भारतीय दृष्टिकोण में एक बदलाव को चिन्हित किया जिसने एक बार के लिए वास्तविकताओं को दिखावे से अलग कर दिया, पाकिस्तान प्रतिक्रिया कम से कम उसके पेशेवर विश्लेषकों से, तुरंत आई और सच्चाई को स्वीकार करने वाली थी. इस बीच, नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ नेताओं ने एक-दूसरे पर हावी होने के लिए बेवकूफी भरे बयान देना जारी रखा.

पाकिस्तान के पूर्व आंतरिक मंत्री शेख राशिद अहमद ने मसखरी भरे अंदाज में परमाणु हमले की धमकी दी और कहा कि हमला ऐसा होगा कि ‘न तो पक्षी चहकेंगे और न ही मंदिरों में घंटे बजेंगे’. इस तरह की बयानबाजी के बावजूद भारत ने बदलाव किए और 2001 में पाकिस्तान को लेकर अलग परमाणु नीति बनाई.

2003 में सुरक्षा समीक्षा पर कैबिनेट कमेटी ने ‘विश्वसनीय न्यूनतम निवारक’, ‘पहले इस्तेमाल नहीं नीति’ को बनाए रखने और केवल भारतीय क्षेत्र में परमाणु हमले के जवाब में बल का इस्तेमाल करने की नीति को लेकर भारत के परमाणु सिद्धांत को विस्तार से तैयार किया, इसने हमला होने पर ‘अस्वीकार्य नुकसान पहुंचाने’ और निर्यात पर सख्त प्रतिबंध, परमाणु हथियार मुक्त विश्व के लिए प्रतिबद्धता और नागरिक-राजनीतिक नेतृत्व जैसे दूसरे दिशानिर्देश भी हैं.

इसकी भाषा और करीब करीब पूरी दिशा स्पष्ट तौर पर पाकिस्तान के लिए थी. भारत की नीतियों में पारंपरिक तौर से चली आ रही अस्पष्टता और बातों को टालने को खत्म किया गया और पाकिस्तान को सिद्धांत का स्पष्ट संदेश मिला.

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लेकिन अब पाकिस्तान कोई खतरा नहीं है

परमाणु हथियारों से संबंधित वॉरहेड, कैरियर, रणनीतिक बलों, तैनाती और अन्य के बारे में गोपनीय ब्योरे के विपरीत, संप्रभु परमाणु सिद्धांत किसी देश की सुरक्षा, रणनीतिक और प्रतिक्रियावादी अनुमानों को हथियार बनाता है और ये दुनिया के सामने है. ये गोपनीय नहीं है, सबके सामने है लिहाजा दुश्मन पहले ही सचेत हो जाता और कोई गुस्ताखी करने से बचता है.

1998 के भारत-पाक परमाणु परीक्षण (ऑपरेशन शक्ति और चगाई- I और II) के बाद बदले हुए भारतीय इरादे के असली मसौदे पर परमाणु सिद्धांत के संशोधित रचनाक्रम में जोर दिया गया और शामिल किया गया.

लेकिन उसके बाद से क्या हुआ है? पहली बात तो ये कि पाकिस्तान अब प्रमुख खतरा नहीं है, चीन है. चीन के साथ होने वाला डायनामिक्स (सक्रियता) पाकिस्तान से उत्पन्न होने वाले खतरों से पूरी तरह अलग है.

मुंह तोड़ जवाब या करारा जवाब देने के परे और यहां तक कि भारत के ‘दो मोर्चा’ क्षमता के बारे में बिना मतलब की बातें जिसने कट्टर कैडरों को मंत्रमुग्ध कर रखा है, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर 2020 की गर्मी की खूनी घटना के बाद भारतीय सुरक्षा के बड़े अधिकारियों को कुछ आत्मनिरीक्षण करना चाहिए था.

इसकी बजाए टीवी न्यूज में वही सब चलता रहा. आत्मसंतुष्ट पैनलिस्ट (दुख की बात है कि उनमें से कई ‘सैन्य’ पृष्ठभूमि के थे) टीवी शो में शामिल होते हैं, ‘अंबाला में 5 राफेल आ गए हैं’ जैसे विषयों पर बोलते हैं, देश की सुरक्षा स्थिति पर पेशेवर मूल्यांकन की जगह पार्टी प्रवक्ताओं की तरह बात करते हैं.

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चीन के धोखे पर ‘घुसपैठ बनाम अतिक्रमण’ पर बयानबाजी होती रही, ठीक उसी तरह जिस तरह इस सब ने 1962 में जवाहर लाल नेहरू को धोखा दिया था. भारत ने बड़ी संख्या में हथियार आयात (इस पर बहुत सार्वजनिक चर्चा हो चुकी है) कर, तीखे सवालों से घबरा कर और एक नेतृत्व जिसने ड्रैगन का नाम नहीं लेकर, जवाब दिया. हालांकि जनता सरकार के जवाब से संतुष्ट रही-कई राज्यों में बीजेपी की जीत इस बात को साबित करती है.

लेकिन भारत की ‘रणनीतिक सोच की कमी’ पर गैर पक्षपातपूर्ण चिंताजनक सवालों के जवाब नहीं मिल पाए. तब से परमाणु सिद्धांत में किसी भी तरह के संशोधन या बदलाव का एलान नहीं किया गया है.

परमाणु निरस्त्रीकरण एक गलती थी: यूक्रेन

रूस-यूक्रेन युद्ध ने सुरक्षा की बहस और संभावनाओं को और उलझा दिया है और सभी सुरक्षा सिद्धांतों, खास कर परमाणु सिद्धांतों पर फिर से तुरंत ही विचार की जरूरत है. शुरुआत के लिए, ये परमाणु अप्रसार (एनपीटी) के बारे में भारत की वर्षों पुरानी आशंकाओं की पुष्टि करता है क्योंकि ये युद्ध बिना परमाणु ताकत वाले देशों की बजाए परमाणु ताकत वाले देशों के आधिपत्य को रेखांकित करता है.

यूक्रेन का न टाला जा सकने वाला भाग्य, जिसे बुडापेस्ट मेमोरैंडम के कथित आश्वासन के साथ 1994 में 1700 परमाणु वॉरहेड को सरेंडर करना पड़ा (विश्व का तीसरा सबसे बड़ा भंडार), भावी पीढ़ी के लिए सबक है.

क्या रूस इतने आराम से यूक्रेन पर हमले कर सकता था अगर यूक्रेन के पास भी एक परमाणु हथियार होता? हम निश्चित रूप से नहीं जान सकते हैं लेकिन इतिहास और अंतर्निहित तर्क बताते हैं कि पुतिन शायद उतने ही लापरवाह नहीं होते जितने वो अभी हैं.

2019 में यूक्रेनियन नेशनल सिक्योरिटी एंड डिफेंस काउंसिल ने माना था कि “परमाणु निरस्त्रीकरण एक ऐतिहासिक गलती थी” और “उन्हें जो गारंटी दी गई थी वो जिस पेपर पर लिखी गई थीं उसके मूल्य के बराबर भी नहीं हैं”. इस बीच व्लादिमीर पुतिन की “ऐसे नतीजे जो आपने पूरे इतिहास में कभी नहीं देखी होगी” की धमकी परमाणु हमले की ओर इशारा करती है, भले ही खतरा वास्तविक रूप से केवल धमकाना ही हो.

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क्या भारत को चीन के लिए ‘पहले इस्तेमाल नहीं’ की नीति को खत्म करना चाहिए?

भारत पर लौटते हैं. एक दबंग, विस्तारवादी और काफी बड़ी चीनी युद्ध मशीनरी को देखते हुए भारत को अपने सिद्धांत और संदेश पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए. ‘पहले इस्तेमाल नहीं’ की मौजूदा शर्तें या यहां तक कि धमाकेदार लगने वाली ‘बड़ी जवाबी कार्रवाई’ अनिवार्य रूप से भारतीय सशस्त्र बलों को असमान युद्ध की स्थिति में ले जाती है.

भारत ने पारंपरिक श्रेष्ठता और मौजूदा परमाणु सिद्धांत के जरिए पाकिस्तान की ओर से खतरे को सफलतापूर्वक खत्म कर दिया. लेकिन वही रणनीति चीन के लिए काम नहीं करेगी. चीन केंद्रित एक स्पष्ट नीति बनाने की जरूरत है जिसमें शायद चीन के लिए ‘पहले इस्तेमाल नहीं’ की शर्त को हटाया जा सकता है.

इसके अलावा भारत की ओर से प्रतिक्रिया की गारंटी की चीन की धारणा (चिंता पढ़ें) के कारण वो अपने स्तर पर सावधानी बरत सकता है जिसे वास्तविक रूप से पारंपरिक हथियारों और तैनाती से हासिल नहीं किया जा सकता है. भारतीय परमाणु सिद्धांत में चतुराई से शब्दों को फिर से गढ़कर हम चीन को सोचने पर मजबूर कर सकते हैं. लेकिन अभी सिद्धांत केवल पाकिस्तान पर केंद्रित है.

चीनी केवल रणनीतिक दिखावे/अनुमान को समझते हैं और उनका सम्मान करते हैं. देशों की अक्षमताओं, भटकाव का फायदा उठाने का चीन का एक कुख्यात इतिहास रहा है.

भारत के चीन विशेषज्ञों के लिए ये एक बड़ा काम होगा, लंबी राजनीतिक-सैन्य बातचीत की गुंजाइश है, साथ ही मौजूदा परमाणु सिद्धांत और परिणाम स्वरूप प्रतिरोध को शांत करने में विशेषज्ञ मार्गदर्शन का उपयोग करने की आवश्यकता है.

तैनहम की चेतावनी को बकवास बताना आसान है और ये धीरे-धीरे फैशन भी होता जा रहा है. लेकिन वैश्विक असुरक्षा की उभरती शतरंज की बिसात की मांग है कि भारतीय परमाणु सिद्धांत में अतीत की मान्यताओं और वर्तमान की बहादुरी को अधिक कठोर और चीन केंद्रित दृष्टिकोण से बदला जाए.

(ले. जनरल भोपिंदर सिंह (रि) अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह और पुड्डुचेरी के एलजी रह चुके हैं. लेख में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं और इनसे क्विंट का सहमत या इनके लिए जिम्मेदार होना जरूरी नहीं है)

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